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संगीत का उखड़ रहा है पैर

संगीत के मामले में भारत सदा से समृद्ध रहा है, लेकिन आज के दौर में हमारे पैर संगीत में जमने की बजाय उखड़ते जा रहे हैं. विशेष रूप से फिल्म संगीत में गिरावट आती जा रही है और उसकी वजह है विषय का भटकाव. इस क्षेत्र में अच्छे बदलावों का हमेशा स्वागत किया गया है […]

संगीत के मामले में भारत सदा से समृद्ध रहा है, लेकिन आज के दौर में हमारे पैर संगीत में जमने की बजाय उखड़ते जा रहे हैं. विशेष रूप से फिल्म संगीत में गिरावट आती जा रही है और उसकी वजह है विषय का भटकाव. इस क्षेत्र में अच्छे बदलावों का हमेशा स्वागत किया गया है और आगे भी किया जाता रहेगा, लेकिन अफसोस की बात है कि पिछले दस सालों से हम अपनी संस्कृति से काफी दूर हो गये हैं. अब हम पश्चिमी संस्कृति के इतने अधीन हो चुके हैं कि हमारे खान-पान, लिबास और व्यवहार में भी पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव नजर आता है. पश्चिमी संस्कृति की छोटी-छोटी बातों को भी अपनाना शुरू कर दिया है. अगर मैं यह कहूं तो कतई गलत नहीं होगा कि हमारी फिल्मों में 80 प्रतिशत प्रभाव विदेशी सभ्यता का है. बचे हुए 20 प्रतिशत में कहीं हिंदुस्तान नजर आता हो तो कह नहीं सकता. हिंदुस्तान में नारी सुंदरता को हमेशा सर्वोपरि माना गया है. कुदरत ने नारी को सुंदर इसलिए बनाया है कि वह नर को आकर्षित करे, लेकिन उस आकर्षण में कहीं खुलापन नहीं होता. आदिवासी समाज में भी अभावों के बावजूद जो कपड़े पहने जाते हैं, वह भी अंग ढकने के लिए पर्याप्त होते हैं.

मेरा मानना है कि संगीत के पैर उखड़ने की सबसे बड़ी वजह आज की फिल्में हैं. आजकल फिल्मों को हिट कराने के लिए उसके प्रमोशन में 100 करोड़ तक लगा दिये जाते हैं और उसके बावजूद फिल्में हिट नहीं होतीं. उन फिल्मों में जो गाने होते हैं उन्हें मैं गाना भी नहीं कहता. इलेक्ट्रॉनिक रिद्म पर सब कुछ सेट होता है. पहले सभी गानें सभी तालों की जननी कहरवा पर आधारित होती थी, जिसे चार मात्र या चार बीट कहते हैं. अब चार बीट को आधा कर गाने सेट किये जाते हैं. ऐसे गीतों को गाने के लिए नायिकाओं में होड़ लगी रहती है, जिन्हें आइटम सॉंग भी कहते हैं. लोगों को उनका डांस बहुत अच्छा लगता है, लेकिन मेरे हिसाब से वह डांस नहीं है. मैं उसे मात्र बॉडी मूवमेंट कहता हूं. आज हर हीरोइन सेक्सी कहलाना चाहती है. वह इसमें गर्व महसूस करती है.

हम विकास के नये पायदान तय करते जा रहे हैं, लेकिन आज भी हमारे देश में कई ऐसे लोग हैं जो किसी कारणवश पढ़ नहीं सके. यहां पढ़े-लिखों से मेरा मतलब ग्रेजुएट होना नहीं, बल्किसाक्षर होना है. मैं समझता हूं मैंने ऐसे लोगों को हमेशा अपने गीत-संगीत से शिक्षित करने का प्रयत्न किया है. कुछ शब्द, कुछ बोल जान-बूझ कर गीतों में इस्तेमाल किये हैं, जिसे मेरे किसान और मजदूर भाई सुनें और उसका अर्थ जानें. इसे मैं अपना मिशन मानता हूं, जिसमें मैं कामयाब हुआ हूं.

फिल्मों में मैं केएल सहगल की एक्टिंग से प्रभावित होकर आया था. उन दिनों सिनेमा को बाइस्कोप और सिनेमाघर को मंडुआ कहते थे. सिनेमाघर के अलावा ड्रामा और थियेटर कंपनी को भी मंडुआ ही कहा जाता था. मैं जालंधर के छोटे से शहर राहों का रहनेवाला हूं, लेकिन अकसर मुङो मीडिया ने ग्रामवासी कहा है. सो मैं सभी से यह बात साफ कर देना चाहता हूं कि मैं एक ऐसे शहर से हूं जहां अस्पताल, स्कूल, टूरिस्ट बंगले, पुलिस थाना जैसी सभी सुविधाएं थीं, जो गांव में मिलना मुमिकन नहीं है. इसके अलावा बड़ी-बड़ी झीलें थी, जिनमें समुद्री बतखें भारी मात्र में आती थीं.

उन दिनों जालंधर पांच डिस्ट्रिक्ट डिविजन का हेडक्वार्टर हुआ करता था और यही उसकी खूबी थी. राहों से जालंधर जाते समय एक छोटा-सा स्टेशन पड़ता था, खटकड़ कलां. जब कभी यात्र के दौरान हमारे अब्बा जान साथ होते तो वह हम सभी भाई-बहनों को उस स्टेशन पर उतारते और पिंड (गांव) को सलाम और प्रणाम दोनों करवाते. यह मेरे वालिद का ही प्रभाव था कि फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद मैंने ही सलाम और प्रणाम दोनों करने की शुरुआत की. मुझसे पहले हिंदू भाई प्रणाम और मुसलिम भाई सलाम करते थे. खैर, खटकड़ कलां स्टेशन पर हम सभी को उतार कर सलाम और प्रणाम करने की वजह बताते हुए उन्होंने हमें कहा था, ‘इसी पिंड विच भगत सिंह जन्म्यासी (इसी गांव में भगत सिंह जन्मे थे).’ फिर वह हमें भगत सिंह की कहानी सुनाते. यही वजह है कि मैं अपने खून में भगत सिंह को महसूस करता हूं.

मैंने संगीत के जरिये ही आजादी की लड़ाई लड़ी है और जीती है. मैं आज भी खुद को भगत सिंह मानता हूं और यही कहता हूं कि मैं कभी अपने संगीत को नीचा होने नहीं दूंगा. मैं अपनी मातृभूमि के दामन पर कोई धब्बा लगने नहीं दूंगा. अपने पूरे फिल्मी कैरियर में मैंने कभी कोई घटिया गाना नहीं दिया. फिल्मी, गैर फिल्मी सभी को मिलाकर 600 से भी अधिक गाने मैंने बनाये, लेकिन कोई गीत किसी का कॉपी नहीं किया. सभी अपने आपमें अनोखे हैं. खैर, जालंधर पहुंच कर हम सिनेमा देखते. हम केएल सहगल की फिल्में देखना खूब पसंद करते थे. उनकी एक्टिंग इतनी नेचुरल होती थी कि लगता ही नहीं था कि वह एक्टिंग कर रहे हैं. उन्हें देख कर मुङो लगता था कि अरे इसमें कौन-सी बड़ी बात है! ऐसी एक्टिंग तो हम भी कर सकते हैं. उनकी गायकी का भी मैं इतना कायल हो गया था कि बचपन में ही तय कर लिया कि चाहे जो हो जाये केएल सहगल जैसा नायक बनना है. इसके लिए मैं दस साल की उम्र में घर से भाग कर दिल्ली चला आया था, फिर जैसे-तैसे घरवाले मुङो घर ले गये.

हमारे मुसलिम समाज में उन दिनों कोई भी संगीत को प्रोफेशन नहीं बनाता था, क्योंकि लाखों में कोई एक ही बुलंदी पर पहुंच पाता था और बाकी लोग भूखे मरते थे. गानेवाले-बजानेवालों के अलावा शायरों को भी हेय दृष्टि से देखा जाता था. उनकी माली हालत अच्छी नहीं होती थी. यही वजह थी कि घरवाले बच्चों को संगीत के प्रति हतोत्साहित करने के साथ साथ सजा भी देते थे. जहां तक मेरे परिवार की बात है तो मेरे परिवार का माहौल काफी साहित्यिक था. हमारे घर में बहुत बड़ी लाइब्रेरी थी. कहानी, कविताओं के अलावा कमोबेश सभी शायरों की किताबें थीं. किताबों की तरह ही बड़े-बड़े कलाकारों के ग्रामोफोन रिकॉर्डस भी आते रहते थे. उन सभी रिकॉर्डस को सुन कर बाकायदा हमारे यहां उस पर चर्चा होती. तब तो हम बच्चे थे, लेकिन उन चर्चाओं को सुन कर हमें बहुत अच्छा लगता. मुसलिम माहौल होने के बावजूद हमारे यहां भजनों के भी रिकॉर्डस आते जो बड़े चाव से सुने जाते.

मैंने कभी मीडिया से अपने लिए न किसी सकारात्मक आर्टिकल की फरियाद की और न ही किसी अवॉर्ड की. मैंने पूरी लगन से सिर्फऔर सिर्फअपना काम किया. यही वजह है कि मेरे गीतों को बच्चे-बच्चे ने गाया. ऐसा नहीं है कि मेरे जीवन में कभी कोई परेशानी नहीं आयी. फिर भी अपने कैरियर में मैंने हर वो चीज पायी, जिसकी मैंने तमन्ना की थी. मैंने शुरू से क्वांटिटी की बजाय क्वालिटी में विश्वास किया है. मैंने भले ही 60 फिल्में और 9 सीरियल किये हों, लेकिन मैंने अपने राष्ट्र को नौ रत्न दिये हैं जिनमें गजल, गीत, शबद, नाद, कीर्तन शामिल हैं.

खय्याम का एक स्टाइल है, जो किसी संगीतकार में नहीं मिलता. खय्याम सिर्फखय्याम में ही मिलेंगे. मैं समझता हूं जहां-जहां भी मेरे भजनों की, मेरी गजलों की और मेरे गीतों की झलक मिली उस संगीतकार ने मुङो इज्जत बख्शी. मैंने अधिकतर कवियों और शायरों के साथ काम किया. मुङो खुशी है कि जिस तरह का साहित्यिक माहौल मुङो घर पर मिला, वही माहौल मुङो फिल्मों में भी मिला. रिकॉर्डिग के दौरान माहौल ऐसा होता था, जैसे हम खुदा की इबादत कर रहे हों. दरअसल, हमारी रिहर्सल इतनी जबरदस्त होती थी कि वन गो में हमारी रिकॉर्डिग हो जाती थी.

संगीत के मद्देनजर इस माहौल को मैं बहुत अच्छा तो नहीं कहूंगा, लेकिन जिस तरह फिल्मों में इन दिनों सूफी कलाम लिये जा रहे हैं, उनसे मुङो आशा की किरण नजर आयी है. हालांकि मैं यह भी कहता हूं कि पुराने गानों में जो मेलोडी हुआ करती थी वह आज नदारद है. फिर भी मैं उम्मीद करता हूं कि कुछ प्रोड्यूसर और संगीतकारों की वजह से वह मेलोडी वापस आ जाये. आज गानें सुनने की बजाय देखने की चीज बन चुके हैं, इसलिए अब मैं ज्यादा गाने नहीं सुनता.

अपने लोगों से मैं यह कहना चाहूंगा कि आप चाहे जो भी करें, लेकिन अपनी तहजीब न छोड़ें. मैं यह भी पूछना चाहता हूं कि क्या हमारी हिंदुस्तानी नारियां जब हिंदुस्तानी लिबास पहनती हैं तो सुन्दर नहीं लगती? अगर यकीन न हो, तो देवियों को देखिये. मैं यह नहीं कहता कि वह देवी बन जाएं, लेकिन उनका अंदाज ऐसा हो कि वह खूबसूरत भी लगें और भद्र भी. मैं ऐसे लिबास में यकीन नहीं करता, जो लोगों को जानवर बना दें. जमाना बदल रहा है और बदलना भी चाहिए, लेकिन यह बदलाव सकारात्मक होना चाहिए.

प्रस्तुति: उर्मिला कोरी

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