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जिंदगी के थपेड़ों का डट कर मुकाबला किया सीता रानी जैन ने, कहती हैं लता रानी रांची : कपड़े की कतरनों से भगवान की मूर्तियां बनाने की अनूठी कला में माहिर हैं रांची की 73 वर्षीय सीता रानी जैन. इन मूर्तियों को वो बेचती नहीं, बल्कि लोगों को मुफ्त में भेंट करती हैं. उनका मानना […]

जिंदगी के थपेड़ों का डट कर मुकाबला किया सीता रानी जैन ने, कहती हैं

लता रानी

रांची : कपड़े की कतरनों से भगवान की मूर्तियां बनाने की अनूठी कला में माहिर हैं रांची की 73 वर्षीय सीता रानी जैन. इन मूर्तियों को वो बेचती नहीं, बल्कि लोगों को मुफ्त में भेंट करती हैं. उनका मानना है कि इससे उनकी भगवान के प्रति आस्था और विश्वास बढ़ता है. आस्था के साथ वह महिलाओं को स्वावलंबी और सशक्त बनाने का काम भी करती हैं. सीता अपने घर पर बच्चों को नि: शुल्क शिक्षा व महिलाओं को पेंटिंग भी सिखलाती हैं.

मिर्जापुर विंध्याचल में जन्मीं सीता रानी जैन की परवरिश चेन्नई में हुई. विवाह के बाद 1969 में उनका रांची आना हुआ. सीता ने चेन्नई में लोगों की भगवान के प्रति गहरी आस्था देखी थी. वहां लोगों में कपड़े की मूर्तियों के प्रति भी खास श्रद्धा थी. सीता ने वहां कपड़े की मूर्तियां बना कर प्रदर्शन किया था, जिसके प्रति लोगों ने काफी पसंद किया. अब वर्षो बाद अपने उम्र के इन खाली दिनों में सीता फिर से कपड़े की कतरनों की मूर्तियां बनाती हैं. वह भगवान का श्रृंगार घर पर ही उपलब्ध सामग्रियों से करती हैं.

उनकी इस कला खूबी यह है कि बाजार से खरीद कर कोई चीज इसमें नहीं लगातीं. घर के चीजों से ही तैयार आकर्षक मूर्तियां अपने हाथ से बना कर लोंगों को नि: शुल्क भेंट करती हैं. सीता का मानना है कि भगवान को कोई खरीद ही नहीं सकता.

ब्वॉयज कॉलेज में कैंटीन चलाया

शादी के छह वर्षो बाद पति की नौकरी चली गयी, चार बच्चों की जिम्मेवारी भी थी. तब सीता ने ठान लिया कि बच्चों को पढ़ा-लिखा कर उन्हें सक्षम बनाना है. तब रांची में उनका अपना घर भी नहीं था. किराये के मकान में रह कर वह गवर्मेट गल्र्स स्कूल के पेड़ के नीचे चाट और पकौड़ी बनाकर बिक्री करने लगी. वहीं बेटी को भी पढ़ाया. उसी दौरान मारवाड़ी ब्वॉयज कॉलेज में कैंटीन चलाने का अवसर मिला. सीता के स्पेशल चाट और व्यंजन बहुत पसंद किये जाते थे. कुछ दिनों बाद फिरायालाल चौक स्थित बैंक ऑफ इंडिया के नीचे नार्थ पॉल होटल को चलाने का अवसर मिला.

मद्रास से होने के कारण साउथ इंडियन खाना बनाना आता ही था. तब सीता दो रुपये में डोसा और 10 रुपये में खाने की थाली परोसती थीं. सीता के हाथ का स्वाद दूर-दूर तक चर्चित था. होटल का कमीशन आदि देकर 10 नया पैसा बचता था. इन्हीं पैसों को जमा कर सीता ने बर्धमान कंपाउंड में जमीन खरीद कर धीरे-धीरे अपना घर बना लिया. साथ ही, चारों बच्चों को पढ़ा-लिखा कर तैयार भी किया. फिरायालाल प्रतिष्ठान के बंटवारे में सीता को वहां से अपनी दुकान हटानी पड़ी. अभी जहां पर प्याऊ स्थित है, उन दिनों वहीं पर सीता की दुकान हुआ करती थी.

झारखंड आंदोलन में सहयोगी

सीता गरीब, असहाय व आम महिलाओं को भी अपने होटल का खाना खिलाया करती थीं और उनकी समस्याओं का समाधान भी करती थीं. इसलिए महिलाएं उन्हें पसंद भी करती थीं. वह अतिक्रमण हटाओ अभियान के विरुद्ध धरने पर बैठती थीं, तो महिलाओं का सहयोग भी उन्हें मिलता था. सीता बताती हैं कि उस समय झारखंड आंदोलन जोरों पर था. गुरुजी ने उनके काम की सराहना की थी. उस समय पार्टी की जिला अध्यक्ष भी रहीं.

हमेशा कुछ-कुछ करती रहीं

परिवार को बिखरते देख कर सीता सारे काम-काज छोड़ कर अपने परिवार को समय देने लगीं. सीता ने प्रयाग विश्वविद्यालय से संगीत की पढ़ाई भी की है, जहां से उन्होंने हारमोनियम और तबला बजाना सीखा. उन्हें कभी खाली बैठना गवारा नहीं रहा. कभी उन्होंने घर पर सिलाई का काम किया, कभी छोटे बच्चों को नि: शुल्क शिक्षा देने लगीं, तो कभी बच्चों को संगीत भी सिखाया.

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