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लोकतंत्र में शक्ति का केंद्र

।। नंद चतुव्रेदी ।। (वरिष्ठ साहित्यकार) – गांधी ‘लोक’ को ही शक्ति का केंद्र मानते हैं और ‘तंत्र’ लोक को धता बता कर शक्तिशाली न बन जाये, इसका ध्यान रखते हुए एक वैकल्पिक व्यवस्था का ‘ब्लू प्रिंट’ तैयार करते हैं.. – ‘लोकतंत्र’ की शब्द रचना को देखें तो संदेह नहीं रहता कि तंत्र पीछे और […]

।। नंद चतुव्रेदी ।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

– गांधी लोकको ही शक्ति का केंद्र मानते हैं और तंत्रलोक को धता बता कर शक्तिशाली बन जाये, इसका ध्यान रखते हुए एक वैकल्पिक व्यवस्था का ब्लू प्रिंटतैयार करते हैं..

लोकतंत्रकी शब्द रचना को देखें तो संदेह नहीं रहता कि तंत्र पीछे और लोक पहले है. लोक की समृद्धि, सौंदर्य और गरिमा की सुरक्षा करना तंत्र का काम है. अंगरेजी में लोकतंत्र का अनुवाद डेमोक्रेसीहै, जिसकी विस्तार से परिभाषा जन का, जन के द्वारा, जन के लिएकह कर की गयी है. ध्यान से देखें तो यह राजनीति का सवाल ही नहीं है, एक नैतिकसवाल भी है. यह स्वामित्व का सवाल है. तंत्र का स्वामी कौन है? किसकी निगरानी में दिया जाये स्वामित्व’.

राजनीति से किंचित दूर हटें तो साहित्य में भी यह सवाल तुलसीदासजी ने उत्तरकांडमें पूरे विस्तार से उठाया है. राजतंत्र की विशद जिम्मेवारियों को दैहिक, दैविक, भौतिकमें बांट कर उन्होंने रामराज्य का यूटोपियारचा है और कहा है कि रामराज्य ने इन तीनों की सुरक्षा का जिम्मा लिया था. तुलसीदासजी ने उस राजतंत्र की कठोर शब्दों में निंदा की है. जो अपनी प्रजा के क्लेशों का निवारण नहीं कर पाता. उस तंत्र का अधिपति (स्वामी) वह राजा नरकभोगता है.

सामंत काल में तंत्र अकूत शक्ति का धारक है. यह शक्ति उसे ईश्वरीय वरदान के रूप में मिली है. राजा का वंशमूल भी देवता है. यह जनता पर अलौकिक ईश्वरीय दबावबनाता है, इस तरह राज की शक्ति प्रश्नातीत होती है. राजस्थान में मेवाड़ के महाराणा सूर्यवंशके हैं, एक अन्य राजवंश का उद्गम चंद्रमा से माना जाता है. वे चंद्रवंशी हैं.

सारांश यह कि सामंतकाल में तंत्र का शक्तिकेंद्र ईश्वर की अलौकिकता से जुड़ा है. राजा ईश्वरीयशक्ति का प्रतिनिधि है. राज तंत्र हो या अधिनायक तंत्र या कि लोकतंत्र, यह बारबार पूछा जाता है कि तंत्र का शक्ति केंद्र कहां है? तंत्र को शक्ति कौन देता है? शक्ति स्थानांतरण की प्रक्रिया साधन क्या हैं?

इन प्रश्नों के उत्तर कुछ आगे चल कर देंगे. फिलहाल अराजकतावादियों के इस दावे पर विचार करें कि क्या तंत्र आवश्यक बुराई (नेसेसरी ईविल) है? तंत्र की आवश्यकता इसलिए है कि जैस हॉव्स ने कहा है कि व्यक्ति दुष्ट, दुबरुद्धि और कमजोरहै. लेकिन वे जो मनुष्य को नैतिक शक्तियों का धारक मानते हैं और जटिल परिस्थितियों में आत्मनिर्णयया आत्मा की आवाजपर विश्वास करते हैं अपनी इस बात पर अटल नजर आते हैं कि लोक और तंत्र की संगत बैठती ही नहीं है. उनकी आपसी खींचतान बुनियादी रूप से स्वतंत्रता और उसके निषेधकी पेचीदा और मनोवैज्ञानिक परिणति है. व्यक्ति अपनी स्वतंत्रताऔर तंत्र अपनी प्रभुताको बचाने के लिए इन्हें विरोधी दिशाओं में प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से खींचते नजर आते हैं.

आत्मा की आवाजके प्रबल समर्थक गांधीजी तंत्र के अपार शक्तिशाली हो जाने की संभावना से भयभीत नजर आते हैं. उनके प्रिय संत कवि तुलसीदासजी भी प्रभुता के मदकी बात करते हैंसुन खगेश अस को जग मॉंही, प्रभुता पाहि जाहि मद नाहीं.गांधी ही नहीं, दुनिया के कई चिंतकों को प्रभुता का नशाका अंदाजा है. एक्टन का यह कथन तो अमूमन उद्धृत होता हैपावर करप्ट्स एंड एवसोल्यूट पावर करप्ट्स एवसोल्यूटलीयानी प्रभुता भ्रष्ट करती है और संपूर्ण प्रभुसत्ता संपूर्णतया. प्रभुसत्ता के नशे से डरे कार्ल मार्क् भी राज्य तिरोहण’ (विटरिंग अवे ऑफ दि स्टेट) का पक्ष लेते हैं.

गांधी व्यक्ति और तंत्र के इस नैतिक और बुनियादी विवाद के राजनीतिक घमासान के बीचबचाव के सिलसिले में ग्राम स्वराज्यका विकल्प रखते हैं. यह विकल्प सत्ता का विकेंद्रीकरण प्रस्तावित करता है. केवल गांधी ही नहीं, बल्कि एक सजग समाजवादी कार्यकर्ताओं की मंडली, जिसमें सर्वश्री जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, मधुलिमये, जार्ज फर्नाडीज, किशन पटनायक जैसे प्रबुद्धजन शामिल हैं, भी सत्ता के विकेंद्रीकरण का प्रबल समर्थन करते हैं.

ध्यान से देखें तो यह सिद्धांत तंत्र की निरंकुशता से बचाने का प्रयत्न है. मार्क् भी सामूहिकताके प्रयोगों का समर्थन करते हैं, जिससे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व का दायरा सिमट जाता है और समूह के पास निर्णायक शक्ति जाती है.

यदि हम इस सवाल का उत्तर देना चाहें कि तंत्र का सत्ताकेंद्र कहां है, तो हम इस विवेचन के आधार पर विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि जनसमूह या जनता में है और तंत्र उसका संवाहक है जो जनता के सुख और हितों की रक्षा करता है, उन्हें संभव बनाता है और उन्हें बढ़ाता है. तंत्र का काम जनहितों को अर्थवत्ता देने के सिवा कुछ नहीं है. तंत्र की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता, हुकूमत या स्वायत्तता नहीं है और उसके पास स्वनिर्मित कोई शक्तिस्त्रोत है.

शक्ति दरअसल बंदूक की नलीमें नहीं, लोक में निहित है. वे दिन दुर्भाग्य के और विकट विनाश के होते हैं जब तंत्र शक्ति के स्वनिर्मित प्रतिमान निश्चित करने लगता है और जनता को उन्हें स्वीकार करने पर यातनाएं देता है. तंत्र और जन के बीच चलनेवाले अनिश्चय, अविश्वास और टक राव के दिन अच्छे नहीं होते.

इस परिप्रेक्ष्य में भारत की तरफ लौटें. इस संदर्भ में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बुनियादी आधारों पर विचार करना अनुचित नहीं है. इस विमर्श के अच्छे परिणाम भी निकल सकते हैं और एक सुदृढ़ लोकतंत्र की निर्मिति में सहायता मिल सकती है. एक बड़े संग्राम में अनेक इरादेवाले सैनिक लड़ते और प्राण देते हैं.

गांधी ने ठीक ही कहा था कि आजादी का संघर्ष केवल शासकों के रंग की हेराफेरी नहीं है, गोरे रंग के शासकों और हाकिमों की जगह काले रंग के शासकों और हाकिमों को स्थापित करने की नहीं है, बल्कि उस व्यवस्था तंत्र को बदलने का है जो शोषण और लूट पर आधारित है. दुर्भाग्य से गांधी की व्यक्तिवादी जिदों पर अनावश्यक ध्यान केंद्रित किया गया, जबकि विचार उन व्यापक अवधारणाओं पर होना चाहिए था जो देश से शोषण मुक्ति का आग्रह करते हैं. ध्यान से पढ़ें तो गांधी का सभ्यताविमर्शशोषण मुक्ति का विमर्श ही है, जिसका प्रमुख लक्ष्य लोकशक्तिको जागरूक रखना है.

लोक और शक्तिकी अवधारणा को अमूर्त और भाववादी बहस से बचाने के लिए गांधी लगातार दरिद्र नारायणके उत्कर्ष और आखिर आदमीके अभ्युत्थान की बात करते हैं, जो अंगरेजी साम्राज्यवाद की लूट का केंद्र रहा है. इस चिंतन में गांधी तंत्रको एक लापरवाह नजरियेसे देखने लगते हैं.

लोक चेतना को जगाना, लोक विवेक की गुणवत्ता और शक्ति को सजग और स्फूर्त रखना उनका आधारभूत सामाजिक दर्शन है. सारांश यह कि गांधी लोकको ही शक्ति का केंद्र मानते हैं और तंत्रलोक को धता बता कर शक्तिशाली बन जाये, इसका ध्यान रखते हुए एक वैकल्पिक व्यवस्था का ब्लू प्रिंटतैयार करते हैं. इस ब्लू प्रिंटका आधार गांव की पुनर्रचना ही है. यह ब्लू प्रिंटगांव को स्वावलंबी बनाता है और अपने संसाधनों का मालिक.

(अगले अंक में जारी)

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