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बच्चों को समझायें असली-नकली

।। आमिरखान ।। – आमतौर पर मीडिया कहते ही सबसे पहले अखबार और समाचार चैनलों का ख्याल आता है. मगर, आजकल के बच्चों पर सिनेमा और टेलीविजन कार्यक्रमों का व्यापक असर देखा जा रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि इनकी वजह से बच्चों की मनोवृत्ति बदल रही है और उनमें हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही […]

।। आमिरखान ।।

– आमतौर पर मीडिया कहते ही सबसे पहले अखबार और समाचार चैनलों का ख्याल आता है. मगर, आजकल के बच्चों पर सिनेमा और टेलीविजन कार्यक्रमों का व्यापक असर देखा जा रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि इनकी वजह से बच्चों की मनोवृत्ति बदल रही है और उनमें हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही है. ये बच्चों को समय से पहले वयस्क बना देते हैं. यह एक गंभीर मसला बन कर सामने आया है. इस मुद्दे पर हमने फिल्म और टेलीविजन कलाकारों, निर्मातानिर्देशकों से यह जानने की कोशिश की कि वह इन चीजों को कैसे देखते हैं. प्रभात खबर के 30वें स्थापना दिवस पर यह विशेष प्रस्तुति.

एक तो बच्चों पर फिल्में ही कम बनती हैं और जो बनती भी हैं उनका सही तरीके से प्रचारप्रसार नहीं हो पा रहा है. ऐसे में बच्चों के पास विकल्प कम होते हैं. वे बड़ों की फिल्में अधिक देखते हैं. हालांकि मैं यह नहीं कहूंगा कि बच्चों को बिगाड़ने में फिल्म या टीवी का हाथ है. टीवी की दुनिया में कई अच्छी चीजें भी हुई हैं. आप देखें. हमने सत्यमेव जयतेजैसे शो बनाये. उसमें हमने गंभीर मुद्दे उठाये. एक पूरे एपिसोड में हमने बच्चों के लिए वर्कशॉप किया. ताकि बच्चे खुद को यौन उत्पीड़न से बचा सकें.

मुझे लगता है कि अगर बच्चे इसे देखते ही नहीं, तो फिर कैसे समझ पाते कि उन्हें ऐसी परिस्थिति में क्या करना है, क्या नहीं. हां, यह बात स्पष्ट है कि हमें बच्चों के लिए किसी भी तरह के कार्यक्रम का निर्माण करते वक्त इस बात का ख्याल रखना होगा कि वे बच्चों को किसी तरह से नुकसान पहुंचाएं.

जहां तक बात है बच्चों पर असर की, तो ऐसे कई चैनल हैं जो बच्चों को ज्ञानवर्धक चीजें देते हैं और मेरा मानना है कि उन चीजों को तो देखना ही चाहिए. इससे अच्छा क्या होगा कि आप उन चीजों को घर बैठेबैठे सीख पा रहे हैं. मैं तो कई बार बच्चों से ही सीखता हूं. वे जितने जागरूक हैं, मुझे नहीं लगता कि मैं हूं. वे जितना गैजेट्स के बारे में जानते हैं, तकनीक के बारे में जानते हैं, शायद हम नहीं जानते. मैं जब तारे जमीन परका निर्माण कर रहा था. उस वक्त मैंने काफी रिसर्च की थी और वैसे बच्चों से जाकर मिला भी था. बाद में जब मेरी फिल्म पूरी हुई, तो कितने अभिभावकों ने मुझसे आकर कहा कि हम अपने बच्चों को वक्त नहीं देते थे. समझ नहीं पाते थे. अब समझ पाते हैं.

आपकी फिल्म की वजह से. तो खुशी होती है कि आपकी फिल्म समाज में कुछ सकारात्मक प्रभाव डाल पा रही है. यह सकारात्मक पहलू है किसी सिनेमा का. कितने लोगों को फिल्म के बाद जानकारी मिली कि आखिर डिसलेक्सियाजैसी बीमारी क्या है. कई मातापिता ऐसे थे, जिनके बच्चों को यह बीमारी थी, लेकिन वे इस पर ध्यान नहीं देते थे. ऐसे मांबाप को आईना दिखाती है यह फिल्म.

मेरा मानना है कि बच्चों के लिए जब कोई धारावाहिक या सिनेमा बने, तो उस पर रिसर्च हो और हर पहलू को सोच कर प्रस्तुत किया जाये. सिनेमा और टीवी बेहतरीन माध्यम हैं. इनका विस्तार होना चाहिए. यह मांबाप के हाथों में है कि वे किस तरह बच्चों तक अच्छी चीजें पहुंचाएं. किस तरह बच्चों को नकल से रोकें. बच्चों को समझायें कि जो टीवी में दिखाया जा रहा है, वह नकली दुनिया है. वैसा आप करें.

मुझे लगता है कि भारत में बच्चों के कई विषय हैं, जिन पर फिल्में बननी चाहिए. अगर बच्चों पर फिल्में बनेंगी, तो निश्चित तौर पर इसके सकारात्मक प्रभाव होंगे. मैं जोकोमोनजैसी फिल्मों की भी सराहना करता हूं. उसमें जिस तरह तकनीक को दिखाया गया है, उसे देख कर बच्चे नयी चीजें, नयी तकनीकें जान पाते हैं. सीख पाते हैं. बच्चों के लिए हर तरह की फिल्में बननी चाहिए.

कॉमेडी फिल्में भी बनें. संजीदा और संवेदनशील फिल्में भी बनें. दूसरी तरफ मांबाप को यह समझना होगा कि वे फिल्मों या टीवी पर आरोप मढ़ें कि वो बच्चों को बिगाड़ रहे हैं. इन्हें एक माध्यम समझें. और इससे बेहतर और कहूं तो इसे ट्यूटर समझें. बस आप अपनी जवाबदेही लें कि किस तरह की चीजें उन्हें देखनीदिखानी हैं और क्या नहीं दिखाना है.

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