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मोदी को चर्चा में रखने में सबका स्वार्थ!

।। ब्रजेश कुमार सिंह ।। (संपादक–गुजरात, एबीपी न्यूज) वर्ष 1999 में मेरा गुजरात आना हुआ था. 2001 के अक्तूबर में नरेंद्र मोदीमुख्यमंत्रीबने. तब से लगातार गुजरात के सीएम हैं. मोदी की राजनीति को परवान चढ़ते देखा है मैंने. पत्रकारिता की जितनी समझ है, उसके मुताबिक रिपोर्टिग भी करता रहा. हालांकि, अखबारों में मोदी को लेकर […]

।। ब्रजेश कुमार सिंह ।।

(संपादकगुजरात, एबीपी न्यूज)

वर्ष 1999 में मेरा गुजरात आना हुआ था. 2001 के अक्तूबर में नरेंद्र मोदीमुख्यमंत्रीबने. तब से लगातार गुजरात के सीएम हैं. मोदी की राजनीति को परवान चढ़ते देखा है मैंने. पत्रकारिता की जितनी समझ है, उसके मुताबिक रिपोर्टिग भी करता रहा. हालांकि, अखबारों में मोदी को लेकर कुछ लिखने से सामान्य तौर पर बचता रहा. मोदी की राजनीति इतनी अजीब है कि सामान्य तर्क लागू नहीं पड़ते, उसका विश्‍लेषण करने में. खैर, अभी मोदी की चर्चा का कारण कुछ अलग है.

पिछले 10 दिनों में मैं अपने एक पत्रकार मित्र के ब्लॉग को देख रहा हूं. रोजाना लिख रहे हैं. जो लिख रहे हैं, उसका करीब नब्बे फीसदी हिस्सा नरेंद्र मोदी या फिर उनसे जुड़े मुद्दे या विवाद हैं. पत्रकार मित्र के बारे में बता दूं कि तो वे कभी मोदी से मिले हैं, करीब से मोदी को समझने का मौका मिला है उन्हें. ज्यादातर डेस्क पर ही रहे हैं. मैं यह कहने की कोशिश नहीं कर रहा कि मोदी पर लिखने के लिए मोदी को नजदीक से देखना या समझना जरूरी है.

देश में सैकड़ों क्या हजारों लोग मोदी पर लिख रहे हैं. दर्जनों मोदी एक्सपर्ट हैं, जो कभी मोदी के करीब भी नहीं फटके होंगे, लेकिन पूरे आत्मविश्वास के साथ या तो उनकी आलोचना या फिर उनके समर्थन में आवाज बुलंद कर रहे हैं.

बहरहाल, मैंने जिज्ञासावश अपने मित्र से पूछा कि आखिर मोदी पर इतना लिख क्यों रहे हैं. खासतौर से तब, जबकि देश में रोजाना बड़ी घटनाएं हो रही हैं, सीमा पर भारतीय सैनिकों को पाकिस्तानी फौज के जवान या आतंकवादी मार रहे हैं, संसद के अंदरबाहर हंगामा हो रहा है, उत्तर प्रदेश में दुर्गाशक्ति नागपाल के मुद्दे पर बवाल चल रहा है.

मित्र ने बड़े आराम से जवाब दिया कि मोदी बिकते हैं. इसलिए लिख रहा हूं, जो मुझे समझ आती है. बिकने का मतलब! उन्होंने बताया कि साइबर वल्र्ड में सबसे अधिक हिट्स अमूमन उन लेखों पर मिलते हैं, जो या तो मोदी के समर्थन में लिखे जाते हैं या विरोध में. जाहिर है, बाजार की अर्थव्यवस्था में ज्यादा हिट्स का मतलब है ज्यादा कमाई, अगर आप इंटरनेट जैसे गैरपारंपरिक, वैकल्पिक मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं.

सवाल है कि क्या ये ट्रेंड सिर्फ साइबर वर्ल्‍ड में है. ऐसा क्यों देखने को मिलता है कि हर दूसरे दिन, शाम छह बजे के करीब ज्यादातर टीवी न्यूज चैनलों पर बहस मोदी से जुड़े किसी मुद्दे पर होती है. मोदी पर किसी नेता का बयान, किसी किस्म का अदालती मसला या और नहीं तो मोदी का कोई ट्वीट ही बहस का विषय बन जाता है. और घंटे भर तक इस बहस में भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों के अलावा क्षेत्रीय पार्टियां, एनजीओ ब्रिगेड के सदस्य या फिर मोदी विशेषज्ञ अपना ज्ञान, अपने तर्क परोसने में लगे रहते हैं.

बहस अमूमन आक्रामक हो जाती है. जितनी आक्रामक बहस, उतना ही दर्शकों का ध्यान बटोर पाते हैं टीवी चैनल. जाहिर है, अगर मोदी से जुड़ी बहस दर्शकों को बोर करे, तो फिर कोई चैनल बारबार इस तरह की बहस करने की जहमत उठाये. सवाल यह भी है कि बहस में मोदी ही क्यों? मोदी जैसे भाजपा के कई मुख्यमंत्री हैं, बाकी दल हैं, कई बड़े नेता हैं राष्ट्रीय स्तर के.

हर दिन कोई कोई बड़ा नेता, कहीं कहीं बोलता ही रहता है. लेकिन तुलनात्मक तौर पर मोदी पर फोकस सबसे अधिक रहता है. टीवी चैनलों के लिए मोदी सबसे सेलेबल आइटम हैं, यह आम धारणा है. यह धारणा भ्रामक भी नहीं, क्योंकि 2002 दंगों के बाद से ही मोदी चर्चा के केंद्र में हैं. सवाल है कि क्या मोदी सिर्फ दंगों के कारण ही चर्चा में हैं. जवाब इतना आसान नहीं होगा.

कभी हम मोदी के विकास मॉडल की चर्चा करने में लग जाते हैं, तो कभी मोदी के तीखे बयानों पर, मोदी की चर्चा कभी एफडीआइ को लेकर होती है, तो कभी इलाहाबाद के महाकुंभ में उनके जाने को लेकर. जाहिर है, दंगे अकेले कारण नहीं हैं मोदी के चर्चा में रहने के. शुरु आती कारण आप जरूर कह सकते हैं.

सवाल है कि क्या अखबार या पत्रिकाएं मोदी के मसले में संतुलन साध कर बैठी हैं या फिर वे भी हैं अतिशय चर्चा की शिकार. बहस इस बात पर हो सकती है. हां, ये पैमाना जरूर बन सकता है कि आखिर 12 वर्षो में देश के किसी भी अन्य नेता की तुलना में मोदी या उनसे जुड़े विषय पर अखबारों और पत्रिकाओं ने कितने कॉलम खर्च किये हैं.

कितने कवर समर्पित किये हैं. किसी ने इस पर औपचारिक तौर पर शोध किया हो, ध्यान में नहीं आता, लेकिन सामान्य धारणा है कि पिंट्र मीडिया भी मोदी मोह से अछूता नहीं है. मोदी के कुर्ते से लेकर मोदी का पीआर प्लान तक, सब कुछ चर्चा का विषय है, लेखन का विषय है.

सियासी तौर पर देखें, तो नेताओं का एक पूरा वर्ग है, जो सुबह से कुर्ता पहन कर बैठ जाता है. इन्हें इंतजार रहता है कि कब मोदी से जुड़ा कोई मुद्दा सामने जाये या ऐसे किसी विषय को वे खुद खड़ा कर सकें. दोनों ही मामलों में टीवी पर दिखने और अखबार में जगह मिलने की गुंजाइश तो रहती ही है. दशक भर में टीवी छाप बयान बहादुर नेताओं की तादाद लगातार बढ़ी ही है. कोई मोदी को गिरा रहा होता है, तो कोई उठा रहा होता है. किसी नेता को मोदी में देश को तोड़नेवाला शख्स दिखाई पड़ता है, तो किसी को विकास पुरुष और मजबूत नेतृत्व. यही हाल एनजीओ सेक्टर से जुड़े कई बड़े चेहरों का है, नाम लेने की जरूरत नहीं है. आप विचार कर लें कि वर्ष 2002 से पहले उन चेहरों को कितने लोग जानते थे और आज वे किस मुकाम पर हैं. आज हालत है कि वामपंथ या गैर वामपंथ नहीं, दक्षिणपंथ या गैर दक्षिणपंथ नहीं, धर्मनिरपेक्षता और गैरधर्मनिरपेक्षता नहीं, बल्कि मोदी समर्थन या मोदी विरोध सियासी विचारधारा को बांटने का आधार है.

भाजपा तो ठीक, कांग्रेस के नेता भी मोदी को चर्चा के दायरे में लाने से नहीं चूकते. दिग्विजय सिंह से लेकर राज बब्बर और शकील अहमद से लेकर कपिल सिब्बल जैसे नेताओं की लिस्ट काफी लंबी है. सूचना प्रसारण मंत्री के नाते मनीष तिवारी तो मोदी पर हमले की औपचारिक भूमिका में हैं ही. लेकिन मोदी पर हमले कर चर्चा के दायरे में लाना, क्या कांग्रेस के लिए फायदेमंद है, इस पर पार्टी के अंदर ही अब विचार चल रहा है.

शायद घाटे की आशंका ज्यादा हो, इसलिए पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को फरमान जारी करना पड़ा कि बिना क्लियरेंस कांग्रेस के नेता मोदी के बारे में चर्चा करने से बचें. लेकिन, युवराज की बात भी भला कौन सुन रहा है, कांग्रेस जैसी अति लोकतांत्रिक पार्टी में. रजा मुराद, जो चुनावी सीजन में ही कांग्रेस के नेता के तौर पर अपनी पहचान बना पाते हैं, इस बार ईद के दिन चर्चा में गये.

भोपाल की मसजिद में नमाज अदा कर निकल जाते, कोई नोटिस भी नहीं लेता. लेकिन कैमरा देखा, तो अपने को रोक नहीं पाये. मोदी का नाम लिये बिना भी ऐसी संवाद अदायगी की कि किसी को शंका नहीं रही कि वे मोदी की चर्चा कर रहे हैं. शुरू हो गयी बहस. मौलाना से लेकर नेता तक, सब पक्षविपक्ष में लग गये और ईद की छुट्टीवाले दिन समाचार माध्यमों को बहस का विषय मिल गया.

सवाल उठता है कि मोदी चर्चा के दायरे में कब तक बने रहेंगे. भाजपा की चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष और संभावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाते 2014 आम चुनावों तक तो किसी को कोई शंका नहीं. आगे का रुझान चुनाव परिणाम तय करेंगे. यह जानना भी रोचक होगा कि आखिर मोदी के लिए चर्चा में बने रहना फायदे का सौदा है या घाटे का, वह भी तब, जब ज्यादातर समय चर्चा मोदी की सियासत या फिर उनके व्यक्तित्व के नकारात्मक पहलुओं को लेकर ही होती है.

जवाब आसानसा है, मोदी भारतीय राजनीति में हाल के दशक में उभरे उस राजनीतिक सिद्धांत के जन्मदाता बने हैं, जिसके तहत अगर आप नकारात्मक वजहों से भी चर्चा में बने रहें, तो आप उसका फायदा उठा सकते हैं. उठाने की बाजीगरी और सलीका होना चाहिए. देखना रोचक होगा कि भारतीय राजनीति का यह नया सिद्धांत मजबूत होता है या अल्पकालिक. चर्चा इस पर भी हो सकती है मोदी के नाम पर. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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