राज्यसभा द्वारा कंपनी बिल 2012 को पारित कर देने के बाद आखिरकार 57 साल पुराने कंपनी कानून की जगह नये कंपनी कानून-2013 का रास्ता साफ हो गया है. इस कानून को अब राष्ट्रपति की मुहर का इंतजार है. उदारीकरण के बाद भारतीय कॉरपोरेट जगत में हुए तीव्र बदलावों के मद्देनजर ज्यादा प्रभावी और युगीन चुनौतियों से निबटनेवाले कंपनी कानून की जरूरत काफी समय से महसूस की जा रही थी. क्या खास है नये कंपनी कानून में, क्या हैं इसमें खामियां और क्या हैं इससे जुड़े सवाल, बता रहा है आज का नॉलेज..
कंपनी अधिनियम, 1956 को बदल कर एक नया कंपनी कानून बनाने की कवायद पिछले करीब दो दशकों से चल रही थी. बीते 8 अगस्त को राज्यसभा द्वारा पारित किये जाने के बाद कंपनी अधिनियम, 2013 का रास्ता साफ हो गया है. कहा जा रहा है कि बदले राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देश की अर्थव्यवस्था के विस्तार एवं विकास की दृष्टि से यह नया कानून बनाया जा रहा है. इस दृष्टि से अगस्त, 2009 में यह विधेयक लोकसभा में पेश किया गया था, लेकिन इस पर गहन विचार हेतु इसे संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया. सरकार के अनुसार स्थायी समिति द्वारा अगस्त, 2010 में इस पर अपनी रपट देने के बाद इस बिल को सरकार द्वारा वापस लेते हुए, स्थायी समिति की सिफारिशों और अन्य हितधारकों के सुझावों को समाहित करते हुए एक नया कंपनी विधेयक बनाया गया. इसे कंपनी विधेयक, 2011 कहा गया.
संयुक्त पूंजी कंपनियों के विनिमयन, संचालन एवं नियंत्रण हेतु भारतीय कंपनी अधिनियम, 1956 में संसद द्वारा बनाया गया था. विदेशी शासन समाप्त होने के बाद कंपनियों के विनियमन से संबंद्ध विविध कानूनों को मजबूत करने और उनमें संशोधन की दृष्टि से यह कानून बना था. समय की जरूरत के मुताबिक 1956 से अब तक कई बार इस कानून में संशोधन भी किया गया. लेकिन 1956 के बाद पहली बार इस अधिनियम के स्थान पर एक नया कंपनी अधिनियम संसद में लाया गया है.
कई नये प्रावधान
नये कंपनी कानून में अन्य बातों के अतिरिक्त सामाजिक दायित्व संबंधी प्रावधान, अंकेक्षक को हर पांच साल में बदलने का प्रावधान, सरकार को अधिसूचना के माध्यम से कानून बनाने का अधिकार, स्वतंत्र निदेशकों संबंधी प्रावधानों में बदलाव, एक व्यक्ति की कंपनी का प्रावधान इत्यादि प्रमुखता से शामिल किये गये हैं. जाहिर है जब भी कोई नया कानून बनता है, उससे यह अपेक्षा होती है कि पुराने कानून की समस्याओं का निदान हो पायेगा.
क्या समस्याओं से निजात दिलायेगा कानून?
कंपनी कानून के संदर्भ में आम जनता को उससे होनेवाली मुसीबतों या समस्याओं का जायजा लेने पर पता चलता है कि धोखाधड़ी कर बनायी गयी नयी कंपनियां और उनके प्रोमोटर लोगों की कमाई का 16 हजार करोड़ रुपये लेकर रफूचक्कर हो गये, लेकिन सरकार का कंपनी विभाग उन कंपनियों और उनके प्रामोटरों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. हालांकि पुराने कानून में भी गलत बैलेंसशीट अथवा खाते बनाने के संबंध में कानूनी कार्रवाई करने हेतु व्यापक प्रावधान हैं, लेकिन छोटे-मोटे जुर्माने के अलावा, कोई बड़ा दंड अब तक कंपनियों के प्रमोटरों अथवा निदेशकों को नहीं दिया गया है.
सत्यम कंप्यूटर नामक कंपनी के मालिक रामलिंगा राजू द्वारा अपनी कंपनी में आठ हजार करोड़ रुपये के गबन की बात स्वीकार करने के बाद भी, कुछ समय जेल में रखने के बाद उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया है, लेकिन उसके द्वारा गबन की गयी राशि का अभी कोई अता-पता नहीं है. यह भी कहा जाता है कि राजू के सत्ता के गलियारों से बहुत घनिष्ट संबंध हैं. उस कंपनी के अंकेक्षकों के कुछ कर्मचारियों/ अफसरों को जेल भेजने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया गया और अंकेक्षक कंपनी तमाम कानूनों की धज्जियां उड़ाने के बाद भी अब भी इस देश में कार्यरत है. आये दिन इनसाइडर ट्रेडिंग की बात सुनने में आती है. बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक अपनी ही कंपनियों के शेयरों की बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त करते हैं और आम निवेशकों को भारी नुकसान पहुंचता है. इनसाइडर ट्रेडिंग के पुख्ता सबूत मिलने के बाद भी उन पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं लग पाता है. कुछ मामलों में शिकायतकर्ताओं द्वारा भारी मशक्कत करने के बाद कभी-कभी उन पर जुर्माना जरूर लगा दिया जाता है.
इन मामलों के अतिरिक्त भी कंपनी कानूनों का उल्लंघन करने के कई मामले समय-समय पर प्रकाश में आते रहे हैं. ऐसा नहीं है कि पुराने कंपनी कानून में इन समस्याओं से निपटने का कोई रास्ता नहीं है. समय-समय पर बदलती परिस्थितियों में पुराने कंपनी कानून में संशोधन भी होते रहे हैं. इसलिए कहा जा सकता है कि समस्या कानून में नहीं है, क्योंकि इसमें पर्याप्त प्रावधान हैं. समस्या वास्तव में कानूनों को लागू करने की है, क्योंकि कानूनों को लागू करने के प्रति सरकार मे इच्छाशक्ति की कमी है.
निकासी (एक्जिट) का सुविधा
नये कंपनी विधेयक में निवेशकों की ज्यादातर समस्याओं का कोई विषेष समाधान दिखाई नहीं देता है. हालांकि प्रबंध निदेशक और पूर्णकालिक डायरेक्टरों को धोखाधड़ी की स्थिति में निजी तौर पर जिम्मेवार ठहराने का प्रावधान नये विधेयक में शामिल किया गया है. एक अन्य प्रावधान है, जो आम शेयरधारकों के हित में दिखाई देता है. हम जानते हैं कि सामान्य शेयरहोल्डर अल्पमत में होते हैं. कंपनी की निर्णय प्रक्रियाओं में उनका कोई योगदान नहीं होता है और न ही वे प्रोमटरों द्वारा किये गये अपने हितों के विपरीत निर्णयों को रोक सकते हैं. नये कंपनी विधेयक में भी उन निर्णयों को रोके जाने का अधिकार तो आम शेयरधारकों को नहीं दिया जा रहा है, लेकिन उन्हें ‘निकासी’ का अधिकार जरूर दिया जायेगा. यानी यदि वे प्रबंधन द्वारा किये गये निर्णय से संतुष्ट नहीं है तो वे अपने शेयर एक निश्चित फॉमरूले पर आधारित मूल्य पर प्रबंधन को बेच कर निकल सकते हैं. लेकिन इस प्रावधान में भी एक समस्या हो सकती है. वर्तमान कानूनों के हिसाब से किसी भी कंपनी (पब्लिक लिमिटेड) के प्रमोटरों द्वारा 75 प्रतिशत से ज्यादा शेयर नहीं रखे जा सकते. ऐसे में शेयर होल्डरों की निकासी के कारण उन प्रमोटरों के शेयर 75 प्रतिशत से अधिक हो जायेंगे. इस समस्या से निपटने का कोई रास्ता वर्तमान बिल में नहीं सुझाया गया है.
विदेशियों पर मेहरबानी
वर्तमान बिल में एक ऐसा प्रावधान जोड़ा गया है, जिसका संबंध कंपनियों के विलयन एवं अधिग्रहण से है. अब तक कोई विदेशी कंपनी भारतीय कंपनी को खरीद कर उसे अपनी शाखा बना सकती थी, लेकिन भारतीय कंपनी का अधिग्रहण कर उसे विदेशी कंपनी में मिलाया नहीं जा सकता था. यानी विदेश में स्थापित किसी ‘विदेशी कंपनी’ द्वारा भारतीय कंपनी को स्वयं में जोड़ा नहीं जा सकता था. लेकिन अब इस प्रावधान को बदला जा रहा है. अब विदेश में बनी विदेशी कंपनी में भारतीय कंपनी का अथवा भारतीय कंपनी द्वारा विदेश में बनी कंपनी के साथ एकीकरण हो सकेगा. इस प्रावधान का लाभ उठा कर कितनी भारतीय कंपनियां विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण कर पायेगी, यह तो समय ही बता पायेगा, लेकिन वर्तमान में विदेशी कंपनियों के साथ चल रहे संयुक्त उपक्रमों को विदेशी कंपनियों द्वारा अधिग्रहित करने का रास्ता अवश्य साफ हो जायेगा और भारतीय कंपनियां विदेशी हाथों में चली जायेंगी.
साथ ही साथ वर्तमान में विदेशी संस्थागत निवेशकों के हाथों में भारतीय कंपनियों के शेयर यदि कोई विदेशी कंपनी खरीद लेगी, तो लगभग सभी भारतीय कंपनियों पर विदेशी अधिग्रहण का खतरा मंडराने लगेगा. हालांकि विधेयक में कहा गया है कि सीमा पार अधिग्रहणों को विनियमित करने के लिए प्रावधान बनाये जायेंगे, लेकिन कुल मिला कर नया कंपनी कानून भारतीय निवेशकों पर कम और विदेशी निवेशकों पर ज्यादा मेहरबान दिखाई देता है.
इतिहास के आईने में कंपनी बिल
-1956 में पारित किया गया था, कंपनी कानून. यानी उदारीकरण के बाद भी दशकों पुराने कंपनी कानून से काम चलाया जा रहा था.
-2009 में संसद में पेश किया गया था नया कंपनी बिल. विचार-विमर्श के लिए इसे संसद की स्थायी समिति को भेजा गया.
-2010 में स्थायी समिति ने इस पर अपनी रपट सौंप दी. जिसके बाद इसे वापस ले लिया गया और एक नया बिल- कंपनी बिल, 2011 के नाम से बनाया गया.
-2012 के शीतकालीन सत्र में कंपनीज बिल-2012 को पारित किया गया.
-2013 संसद के मॉनसून सत्र में राज्यसभा द्वारा कंपनी बिल को मंजूरी.