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आदिवासी समाज को पुर्नसगठित होने की जरूरत

नौ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है. इस दिन दुनिया भर के आदिवासी अपने अस्तित्व और मानवाधिकारों से संबंधित मुद्दों को लेकर समारोह आयोजित करते हैं. यूनाइटेड नेशंस की जेनरल असेंबली में इसकी घोषणा पहली बार दिसंबर 1994 में की गयी थी. विश्व आदिवासी दिवस का लोगो (सिंबल) बांग्लादेश के चकमा आदिवासी समुदाय […]

नौ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है. इस दिन दुनिया भर के आदिवासी अपने अस्तित्व और मानवाधिकारों से संबंधित मुद्दों को लेकर समारोह आयोजित करते हैं. यूनाइटेड नेशंस की जेनरल असेंबली में इसकी घोषणा पहली बार दिसंबर 1994 में की गयी थी. विश्व आदिवासी दिवस का लोगो (सिंबल) बांग्लादेश के चकमा आदिवासी समुदाय के युवा रेबांग देव दीवान ने तैयार किया है. लोगो में एक ग्लोब की पृष्ठभूमि में दो हाथों को जुड़ा हुआ दिखाया गया है. ग्लोब के दोनों ओर हरी पत्तियों की श्रृंखला दिखायी गयी है. यूनाइटेड नेशंस ने आदिवासी अधिकार घोषणा पत्र को मान्यता दी है, जिसमें विश्व के जिन देशों ने भी हस्ताक्षर किये हैं, उन्हें इसका पालन करना अनिवार्य है. झारखंड में कई सालों से विश्व आदिवासी दिवस पर कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं. इनमें मानवाधिकार, बराबरी, सम्मान व अस्तित्व से जुड़े सवाल सहित अन्य मुद्दे शामिल किये जा रहे हैं. इस बार भी कई अलग-अलग संगठनों द्वारा कार्यक्रम किये जा रहे हैं. इस बार झारखंड इंडिजीनस पीपुल्स फोरम ने संत जोसेफ सभागार में समारोह आयोजित कर भाषा को प्रमुख मुद्दा बनाया है.

आज पूरे झारखंड के ग्रामीण-किसानों के ऊपर विस्थापन की तलवार लटक रही है. न सिर्फ किसानों का अस्तित्व संकट में है, बल्कि झारखंड के पर्यावरण, जैविक विविधता, सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना, भौगोलिक संरचना सभी के ऊपर विनाश के बादल मंडरा रहे हैं. राज्य में 13 साल के भीतर करीब 104 देसी और विदेशी कंपनियों के साथ यहां उद्योग लगाने के लिए राज्य सरकार ने एकरारनामा किया. इन कंपनियों में से 98 प्रतिशत कंपनियां सिर्फ स्टील उत्पादक हैं. सभी कंपनियों को अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए सैकड़ों एकड़ जमीन चाहिए. नदियों-झरनों और धरती के नीचे का पानी भी कंपनियों को चाहिए. जंगल-झाड़ सभी उन्हें चाहिए. तब यहां सवाल उठता है कि क्या झारखंड का अस्तित्व बच पायेगा? आदिवासी-मूलवासी किसान बच पायेंगे? क्या आदिवासी समाज की सांस्कृतिक विरासत बच पायेगी? यहां का पर्यावरण बच पायेगा? क्या यहां की कृषि भूमि रहेगी? यह एक अहम सवाल है.

आजादी के बाद गुजरे 65 सालों में विकास के नाम पर स्थापित विभिन्न परियोजनाओं की वजह से दो करोड़ से अधिक झारखंडी आदिवासी-मूलवासी विस्थापित हो चुके हैं. इन विस्थापितों में से मात्र पांच से छह प्रतिशत को ही किसी तरह पुनर्वासित किया जा सका है. शेष विस्थापित आज अपनी भूमि से बेदखल होकर एक वेला की रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं. इनके पेट में अनाज नहीं है. इनके सिर पर छत नहीं है. इसके बदन पर कपड़े नहीं हैं. इलाज के अभाव में बेमौत मर रहे हैं. कभी जमीन के खूंटकटीदार रहे विस्थापित आज कुली-रेजा और बंधुआ मजदूर बन गये हैं. खेत-खलिहान से उजड़ने के बाद बहू-बेटियां महानगरों में जूठन धोने को मजबूर हैं. पहले जहां आदिवासियों की संख्या 70 प्रतिशत थी, 2001 की जनगणना में मात्र 26 प्रतिशत में सिमट गयी है. इन विस्थापितों में आज 80 प्रतिशत आदिवासी-दलित महिलाएं एनीमिया (खून की कमी) की शिकार हैं. 85 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. आखिर विस्थापित आदिवासी-मूलवासियों को क्या मिला? 80 प्रतिशत विस्थापित युवा वर्ग बेरोजगार हैं, आखिर क्यों?

विकास के नाम पर उजड़े विस्थापितों की पीड़ा ने राज्य और देश के सामने कई अहम सवाल खड़ा किये हैं. यह सर्वविदित है कि इन सवालों के प्रति राजनेता, सरकारी तंत्र, राजकीय व्यवस्था तथा देश की कानून व्यवस्था भी निरुत्तर हैं. विकास में योगदान देने के लिए झारखंड के किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों ने अपने पूर्वजों द्वारा आबाद जल-जंगल-जमीन, घर-द्वार, खेत-खलिहान सभी न्योछावर कर दिये. इनकी जमीन पर एचइसी, बोकारो थर्मल पावर, तेनुघाट, चंद्रपुरा, ललपनिया डैम, सीसीएल, बीसीसीएल, इसीएल, चांडिल डैम, टाटा स्टील प्लांट, यूसीएल यूरेनियम माइंस, चिड़िया माइंस, बॉक्साइट खदान, पतरातू थर्मल पावर प्लांट, कोहिनूर स्टील, वर्मा माइंस, राखा माइंस, करमपदा, किरीबुरू, बदुहुरांग, महुलडीह जैसे सैकड़ों खदान और कारखाने बैठाये गये. सवाल है कि इससे किसका विकास हुआ? यहां के विस्थापितों की जिंदगी नजदीक से जरूर देखनी चाहिए. पिछले सप्ताह चांडिल के विस्थापितों को मुआवजा देने की मांग पर की गयी पीआइएल की सुनवाई करते हुए हाइकोर्ट ने कहा कि विस्थापन के 35 वर्ष बाद भी आज तक विस्थापितों को मुआवजा नहीं मिला है. यह टिप्पणी करते हुए सरकार को एक माह के भीतर मुआवजा भुगतान करने की बात कही.

2005 में विश्व बैंक ने केंद्र सरकार के पास प्रस्ताव दिया था शहरी विकास योजना का. इसके तहत यह समझौता किया गया कि शहरी विकास के लिए शहर में बड़े पूंजीपतियों को जगह देनी होगी. शहर को आकर्षक बनाना होगा. इसके लिए छोटे मकानों, झुग्गी-झोपड़ियों को साफ करना होगा. शहर को साथ-सुथरा रखने में, नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं देने में सरकार विफल है. इसलिए यह काम पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) को दिया जाए. गौरतलब है कि इसके लिए भी जमीन चाहिए.

2005 के जेएनयूआरयूएम के तहत शहरों में अतिक्रमण हटाने के नाम पर गरीबों को साफ किया गया. इस कानून का एक्सटेंशन-2011 सुप्रीम कोर्ट का फैसला है. इसके तहत देश के सभी राज्यों में हाइकोर्ट ने आदेश दिया है कि ग्रामीण इलाकों में पंचायत स्तर पर जितनी भी गैरमजरूआ आम, गैरमजरूआ खास, परती जमीन, सामुदायिक जमीन, बंजर भूमि है, उसे पंचायतों के अधिकार में दिया जाये. इसी के आधार पर पूरे झारखंड के जिला प्रशासन, अंचल अधिकारियों को नोटिस जारी कर दिया गया है. कार्रवाई भी शुरू कर दी गयी. गांव के किसानों को पता भी नहीं है कि उनकी जमीन पर सरकारी अधिकारी क्यों घेराबंदी कर रहे हैं? जिस जमीन पर किसान सदियों से खेती-बारी करते आ रहे थे, आज उस जमीन पर किसानों को मालगुजारी देने पर रोक लगायी जा रही है.

एक तरफ सरकार की जनविरोधी नीति, कॉरपोरेट घराने, जमीन माफिया, ठेकेदार, पुलिस माफिया की गंठजोड़ की बंदूकें आदिवासी-मूलवासी किसानों के जल-जंगल-जमीन छीनने के लिए गरज रही हैं, वहीं दूसरी ओर अपना वर्चस्व कायम करने में लगी उग्रवादी गतिविधियों ने भी ग्रामीण समाज को बहुत हद तक प्रभावित कर दिया हे. दोनों ताकतें मिल कर ग्रामीण समाज को आतंक में कैद कर ले रही हैं. जंगल-झाड़, नदी-झरना, खेत-खलिहान पहले गाय, भैंस बकरी चरानेवाले युवकों की बांसुरी की तान और गीतों से रसमय और रोमांचित हो उठते थे. खेत-खलिहान, जंगल-झाड़ में काम कर रहे लोगों को पता चल जाता था कि फलां आदमी कहां है. गीत और बांसुरी की मधुर धुन से ही व्यक्ति की पहचान करते थे कि उस दिशा में कौन भैंस, गाय चराने गया है. साथी अपने मवेशियों को उसी ओर ले जाते थे और सभी साथी साथ चरवाही करते थे. अब समूचा ग्रामीण इलाका बंदूक और आधुनिक हथियारों की गोलियों की आवाज से थर्रा रहा है. मांदर और नगाड़ा भय से चुप हो गये हैं. वर्चस्व स्थापित करने के लिए उग्रवादी संगठनों के संघर्ष से लाल होती धरती के आतंक से अखड़ा भी अब सन्नाटा में तब्दील हो गये हैं. खेत-खलिहान में दिन भर मेहनत करने के बाद शाम को निश्चिंत होकर गली-कूचे में झुंड बना कर गांव की समस्याओं पर युवक चर्चा करते थे. मनोरंजन करते थे. गांव के बुजुर्गो की टोली एक अलग जगह में बैठती थी. परिवार और सामाजिक दुख-दर्द एक-दूसरे से बांटते थे. अब सभी जगह आतंक में तब्दील हो गयी है. अब हल्का अंधकार होते ही घरों के दरवाजे बंद हो जाते हैं. सभी कोशिश करते हैं कि जितना जल्दी हो, खाना खाकर ढिबरी-लालटेन बुझा कर लेदरा-पटिया में चले जायें.

बरसात के दिनों में कादो खेत रोपा-डोभा, गाय, भैंस, बकरी से काम निपटा कर घर वापस आते थे. महिलाएं चूल्हा-चौका, लकड़ी-झुरी में जुट जाती थीं. युवा वर्ग घर के भीतर ही मांदर टांग कर बजाने लगते थे. बांसुरी में माहिर लोग बांसुरी बजाते थे. मांदर और बांसुरी सुन कर गांव के सभी लोगों की थकान दूर होने लगती थी. सप्ताह के एक-एक दिन का महत्व होता था. पूरा सप्ताह एक दिन इस गांव में, दूसरे दिन कहीं दूसरे गांव में बाजार लगता था. लोग गांव के सामाजिक कार्यो को इसी के आधार पर निश्चित करते थे.

आदिवासी समाज की जीवनशैली-भाषा-संस्कृति, आर्थिक-सामाजिक अस्तित्व पूरी तरह से प्रकृति के साथ जुड़ा हुए हैं. हर मौसम में समाज धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों को कई रीति-रिवाजों में संपन्न करता है. सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषाई और ऐतिहासिक शक्ति को मजबूत करने के लिए मौसम आधारित परब-त्योहार, जतरा आदि लगाते थे. जतरा-गर्मी के शुरुआत में और अगहन महिना में कहीं डाईर जतरा, बुरू जतरा के रूप में संपन्न करते थे. वहीं अगहन महीना में दसइं और डाईर जतरा होता था. सरहुल-करमा सहित दर्जनों त्योहार मनाये जाते थे. कोई एैसा गांव नहीं था-जिस गांव में दर्जनों मंदर, बांसुरी, नगाड़ा, ढोल नहीं हो. परब-त्योहार को छोड़ सप्ताह में दो-तीन रात तय होता था-जिस रात को पूरा गांव नाचते थे. गांव-गांव मांदर-नगाड़ा के आवाज से गूंज उठता था.

आदिवासी समाज में सेन गी सुसुन-कजी गी दुरंग, दुख: में भी गाते-नाचते हैं-यही जीवंत संस्कृति आदिवासी सामाजिक एकता-सामूहिकता की ताकत है. यह सच है जब तक आदिवासी समाज गाते-नाचते रहेगा-उनकी सामुदायिक ताकत को कोई तोड़ नहीं सकता. लेकिन विकास के बवंडर ने आदिवासी समाज की इस सांस्कृतिक विरासत को झकझोर कर रख दिया है. आज हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत कमजोर लगने लगी है-पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति हमें ताकतवर महसूस होने लगा है. हमारी इस मानसिक कमजोरी की देन है- कि आज हम अपनी सामूहिक ताकत को तोड़ कर व्यक्तिवादी ताकत को मजबूत करने में लगे हैं. आज हमारे बीच घरेलू हिंसा जबरदस्त घर करती जा रही है. धर्म के नाम पर ईसाई और सरना की राजनीति हो रही है. एक समुदाय दूसरे समुदाय के खिलाफ सोच रहा है. एक सामाजिक अगुवा दूसरे अगुवे को खींच रहा है. हर कोई एक दूसरे को नीचा दिखाने में पूरी ताकत लगा दे रहे हैं. आपको दुश्मनों ने चारों ओर से घेर रखा है. राजतंत्र, पुलिसतंत्र, माफियातंत्र, पूंजीपति और बाजारवाद, आप पर हावी होते जा रहे हैं. आदिवासी समाज को हर हाल में आदिवासी-मूलवासी सामाजिक एकता-सामूहिकता की ताकत को पुर्नसगठित करने की जरूरत है.

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