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गरीबी व असमानता में चोली-दामन का संबंध

– संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक दुनिया से गरीबी को पूरी तरह से खत्म करने का लक्ष्य रखा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी इतिहास का विषय बन जायेगी. पर कई विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया में जहां भी असमानता रहेगी, वहां गरीबी रहेगी. हां, गरीबी के मूल स्वरूप में बदलाव आ […]

– संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक दुनिया से गरीबी को पूरी तरह से खत्म करने का लक्ष्य रखा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी इतिहास का विषय बन जायेगी. पर कई विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया में जहां भी असमानता रहेगी, वहां गरीबी रहेगी. हां, गरीबी के मूल स्वरूप में बदलाव सकता है, पर इसे पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता. आज का यह आलेख उस बहस का हिस्सा है, जिसके जरिये गरीबी को बेहतर तरीके से समझने की कोशिश की गयी है.

संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित एक अंतरराष्ट्रीय पैनल (अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने की थी) ने अपनी अनुशंसा में गरीबी को 2030 तक खत्म करने की बात कही थी. इस पैनल में लाइबेरिया और इंडोनेशिया का भी प्रतिनिधित्व था.

पैनल में इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा हुई. तब ब्रिटिश सरकार के प्रवक्ता ओक्सफाम ने असमानता और गरीबी के बीच संबंधों को टटोला था. उनका मानना है कि भविष्य का कोई भी ऐसा लक्ष्य तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक आय का वितरण अधिक से अधिक समान नहीं होता है.

ब्रिटिश सरकार की सीनियर पॉलिसी एडवाइजर केटी राइट का मानना है कि दुनिया के किसी भी मुल्क के आर्थिक तरक्की का एक पहलू यह है कि कुछ आगे बढ़ जाते हैं और कुछ पीछे छूट जाते हैं. संसाधन सीमित हैं, इसलिए धनी लोग दूसरों की शर्त पर ही आगे बढ़ते हैं. यही कारण है कि गरीबी निरंतर चलती रहती है.

* कल्चर ऑफ पावर्टी की अवधारणा : दुनिया के अलगअलग मुल्कों में गरीबी और गरीबी का स्वरूप अलग है. अर्थशास्त्री इसे कल्चर ऑफ पावर्टीकी संज्ञा देते हैं. अदर अमेरिकापुस्तक के लेखक माइकल हैरिंगटन ने लिखा है कि गरीबों की एक भाषा होती है, उनका अपना मनोविज्ञान होता है, गरीबों के प्रति विश्व का एक नजरिया होता है. वे हम सबों के बीच रहकर भी एलियन होते हैं.

कुल मिलाकर उनकी संस्कृति उन लोगों से भिन्न होती है, जो समाज में हावी रहते हैं. इसलिए अमेरिका जैसे देशों में पावर्टी (गरीबी) खत्म करने के बजाय कल्चर ऑफ पावर्टीखत्म करने पर जोर दिया गया. स्पष्ट है कि ऐसी अवधारणा का अभिप्राय यह है कि कल्चर ऑफ पावर्टी के नाम पर गरीबों को उनकी औकात बतायी जाती है. दुनिया भर में कॉरपोरेट शक्तियां अपनी शाख बनाये रखने के लिए जो हथकंडे अपनाती हैं, यह उसी का भाग है.

* विकसित देशों की गरीबी : ब्रिटेन यूरोप के सर्वाधिक विकसित देशों में है. पर वहां भी आय के असमान वितरण का परिणाम देखने को मिल रहा है. बेरोजगारी बढ़ी है और सरकार आउट ऑफ वर्क बेनिफिट्सदेकर अपनी लाज बचा रही है. सच्चई यह है कि देश के कई हिस्सों में स्लम इलाके विकसित हो रहे हैं. इससे साफ पता चलता है कि अगर एकबारगी गरीबी को खत्म भी कर लिया गया, तो यह दूसरे रूप में फिर से सामने जायेगा. जिस तरह से यूरोप की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है, उससे एक नया संकट उत्पन्न होने के आसार बन रहे हैं. इसका असर यह होगा कि मिडिल क्लास के कुछ लोग गरीबों की सूची में चले जायेंगे और यह क्रम बढ़ता जायेगा.

* भारत और अफ्रीका में भिन्न स्थिति : संयुक्त राष्ट्र के पैनल ने भी यह माना है कि भारत और अफ्रीका की स्थिति भिन्न है. भारत में तो गरीबी ने एक व्यवसाय का रूप ले लिया है. पहले यह धारणा थी कि राजनीतिज्ञ जान बूझ कर गरीबों को उनकी हालत में रखना चाहते हैं, ताकि इसका फायदा लिया जा सके. लेकिन अब इसी राजनीतिक फायदे के लिए यह जबरन बताया जा रहा है कि इतने गरीबों की संख्या में कमी आयी है. यह धारणा बनाना कि 32 रुपये कमाने वाला गरीब नहीं है, इससे क्या सचमुच भारत से गरीबी खत्म हो जायेगी.

क्या यह इस बात का पैमाना है कि वे इतने रुपये में ही सम्मानजनक जीवन जी सकेंगे या धनी लोगों के अंशमात्र भी सुविधाओं का भोग कर पायेंगे. इसी तरह अफ्रीका में बारे में विद्वानों की स्पष्ट राय है. अफ्रीका के कई मुल्क (खासकर उन मुल्कों में जहां गृह युद्ध चल रहे हैं या ऐसी स्थिति है) ऐसे हैं जो 2030 क्या, उसके अगले 50 सालों में भी इस स्थिति में नहीं पहुंच पायेंगे कि वे 1.25 प्रति डॉलर प्रतिदिन की कमाई से ऊपर उठ सकें.

केवल भारत और अफ्रीका के मुल्क ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देश हैं, जहां सरकार दमनकारी नीति अपना रही है और यह सारा हथकंडा एक खास वर्ग को लाभ पहुंचाने के लिए है. ऐसे में यह उम्मीद करना कि अगले दो दशकों में दुनिया से गरीबी खत्म हो जायेगी, जिसे पैनल ने जीरो पावर्टीकहा है, महज कल्पना ही लगती है.

(गाजिर्यन और इकोनॉमिस्ट से इनपुट)

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