पिछले पांच दशक से रचनारत वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना के नाम महज दो कविता संग्रह ही दर्ज हैं, लेकिन उनकी कविताओं की पहुंच बहुत व्यापक और कहीं गहरे तक है. उनकी कविताएं समय की लहरों से मिटती नहीं हैं, बल्कि मन की स्लेट पर अंकित रह जाती हैं. पिछले साल प्रकाशित उनके कविता संग्रह ‘सुनो चारुशिला’ को मिली सराहना इसका प्रमाण है. नरेश सक्सेना का सृजन संसार उन्हीं के शब्दों में.
सृजनसंवाद:नरेश सक्सेना
कविता की शुरुआत मैंने मुक्तक से की. फिर मुझे लगा कि गीत लिखूं, तो मैंने गीत लिखे. मेरे सारे गीत प्रेम कविताएं हैं. लेकिन मुझे यह एहसास था कि गीत का समय जा चुका है. यह ज्ञान के विस्फोट का समय है. इस समय को छंद में बांधना लगभग असंभव है. हालांकि आज भी मैं कभी-कभी छंद में लिखता हूं, लेकिन मौजूदा समय की संवेदना को छंद के स्वर में रखना लगभग असंभव है.
कविता को कविता होना पड़ता है. छंद होना कविता की शर्त नहीं है. कविता छंद के बाहर भी होती है और छंद में भी. कविता को मैं साहित्य की सबसे ऊंची विधा मानता हूं. अन्य सभी सहायक विधाएं हैं. मैंने नाटक भी लिखे हैं. फिल्में और सीरियल भी बनाये हैं. अपनी कविताओं पर ‘संबंध’ नाम से फिल्म बनायी है. लेकिन कविता सिर्फ अपने समय को ही नही, इतिहास, अतीत और वर्तमान सबको लेकर काम कर रही होती है. मनुष्य के पास सबसे पहले लय आयी. लय के बाद ताल आयी. फिर चित्र आया. प्राचीन गुफाओं में ये चित्र मिलते हैं. इनसे भी पहले अभिनय था. अभिव्यक्ति की इन सारी कलाओं के बाद भाषा आयी. इसलिए भाषा लय, ताल, बिंब, संगीत, चित्र और अभिनय सबका उपयोग करती है. इन सारी कलाओं का उपयोग कविता ने भी किया. इसके बाद सिनेमा का आविष्कार हुआ. उसमें भी यही सारी कलाएं हैं. मैं सारी कलाओं को सीखता चला गया. बचपन से फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं.
सभी को होती हैं. लेकिन मेरे अंदर हमेशा से एक जिज्ञासा रही है कि इसे कैसे बनाया जा रहा है? मैंने हर भाषा की फिल्में देखीं. फिल्में देखते हुए समझ में आने लगा कि वह कैसे रची जा रही हैं. और मुझे फिल्म बनाने का पहला मौका अनायास ही मिला. मैंने ‘संबंध’ बनायी. गिरीराज किशोर के उपन्यास ‘जुगलबंदी’ पर सीरियल बनाया. बुंदेली भाषा में ‘पत्थर और पानी’ शीर्षक से भोपाल दूरदर्शन के लिए सीरियल लिखा और बनाया. हर विधा अपनी तरह से प्रभावित करती है. हम जब सिनेमा हॉल में बैठे होते हैं, तब सिनेमा पूरी ताकत के साथ हम पर हावी होता है. लेकिन कविता की मात्र में नहीं. कविता की अगर एक पंक्ति भी हमारे दिल-दिमाग में बस जाती है, तो उसका दूरगामी प्रभाव रहता है. कविता की मूल प्रतिज्ञा है ‘बहुत थोड़े से शब्दों में बहुत सारी बात कह देना’. यह गुण हर कला में होना चाहिए.
कम सामग्री, कम समय और कम एफर्ट में ज्यादा काम कर देने का गुण.
कविता की रचना प्रक्रिया बताना असंभव है. लेकिन मेरी बहुत सी कविताएं इंजीनियरिंग के अनुभवों से आयी हैं. हम चीजों को कैसे देखते और अनुभव करते हैं, इस पर ही सारी कलाएं निर्भर करती हैं. आम दृष्टिकोण होता है कि चीजें जगह घेरती हैं. लेकिन मैंने देखा कि चीजें आपस में खाली जगह छोड़ती हैं. फूलों के एक गुच्छे में सटी हुई कलियां जब खिलती हैं, तो सब एक दूसरे के लिए जगह छोड़ देती हैं. मनुष्य एक दूसरे के लिए अगर खाली जगह नहीं छोड़ेंगे और दूसरे पर अधिकार करना चाहेंगे पूरी तरह, तो रिश्ता मजबूत नहीं बनेगा. इस तरह के तमाम अनुभव कविता को जन्म देते हैं. कविता जीवन से बनती है.
कविता, कविता है या नहीं, यह तो साहित्यिक पैमाने से ही तय होगा. लेकिन कोई कविता, महान कविता है कि नहीं, इसके लिए साहित्य से बाहर के पैमाने काम करते हैं. कविता की महानता इस पर निर्भर है कि वह ज्यादा से ज्यादा मनुष्यों तक पहुंचे और उन्हें उद्वेलित करे. कविता में कल्पना और यथार्थ दोनों एक साथ काम करते हैं. यदि आप कल्पनाशील नहीं हैं तो कविता नहीं कर सकते. और अगर आप यर्थाथ को नहीं लेकर चलेंगे, तो भी आप कविता नहीं कर पायेंगे.
मुझे मेरी सभी कविताएं एक जैसी प्रिय नहीं हैं. समय-समय पर पसंद में परिवर्तन भी आता-जाता है. शुरू-शुरू में मैं ‘एक वृक्ष भी बचा रहे’ कविता पढ़ता था तो मेरा गला रुंध जाता था. इसी तरह ‘इस बारिश में’ कविता मुझे भावुक कर देती थी. इधर मैंने ‘चंबल एक नदी का नाम’ शीर्षक से एक कविता लिखी है. नदियों के नामों और लड़कियों को लेकर लिखी गयी यह कविता भी मुझे संवेदित करती है.
निश्चित रूप से कविता का अंतिम लक्ष्य संवेदित करना ही होता है. अगर कवि खुद अपनी कविता से संवेदित नहीं हो रहा है, तो दूसरे से कैसे उम्मीद करेगा कि वह संवेदित हो जाये. यह जरूर संभव है कि आप जिस कविता से संवेदति हों, दूसरे न हों. लेकिन यह संभव नहीं कि आप संवेदित न हों और दूसरे हो जायें. लेखकीय पुरस्कार उत्साह बढ़ाते हैं, लेकिन आज संकट पाठकों के न होने का है. पाठक नहीं होंगे तो जाहिर है हम अपनी पहचान के लिए पुरस्कारों के मोहताज हो जायेंगे. साहित्य में आलोचक की बड़ी भूमिका होती है लेकिन कोई पाठक आलोचना पढ़कर आपकी कविता पढ़े या पसंद करने लगे, ऐसा नहीं होता.
आज की कविता अभिशप्त है. हम जिस भाषा में कविता लिख रहे हैं, वह हिंदी हो या अन्य भारतीय भाषाएं, सब गरीब और गरीबों की भाषाएं बन कर रह गयी हैं. इन भाषाओं में किसी को रोजगार नहीं मिलता. इज्जत नहीं मिलती. अंगरेजी को शीर्ष पर रख दिया गया है. लेकिन दुनिया के सारे उन्नत राष्ट्र, जिसमें एशिया के भी कुछ देश चीन, जापान, कोरिया शामिल हैं, हमसे बहुत आगे हैं. ये सभी अपनी मातृभाषा में काम करते हैं. हम पीछे हैं, क्योंकि हम अंगरेजी में काम करते, जो हमारी बहुसंख्यक आबादी की समझ में ही नहीं आती. हम भाषा में ही उलझ कर रह जाते हैं, विषय हमारी समझ में ही नहीं आता. अंगरेजी की गुलामी ने भारतीय भाषाओं की हैसियत घटिया बना कर रख दी है. दुर्भाग्य से इस बात को हमारे साहित्यकार भी नहीं समझ रहे हैं. लेखन के साथ मुझे सारी कलाएं पसंद हैं. मैं बांसुरी बजाता हूं. माउथ आर्गन बजाता हूं. बच्चों के साथ खेलता हूं.
इन दिनों मैं ‘चंबल एक नदी का नाम’ शीर्षक से एक कविता पूरी कर रहा हूं. कुछ और कविताएं दुरुस्त करने में लगा हूं. मैं अकसर देर रात काम करता हूं और सुबह देर से उठता हूं. दरअसल, इंजीनियरिंग की नौकरी में सुबह से लेकर शाम तक मुझे काम करना पड़ता था. इसके बाद परिवार और बच्चों को समय देना पड़ता था. जब सब सो जाते, तभी तो मुझे थोड़ा समय मिलता था कि मैं कुछ लिख-पढ़ सकूं. इस तरह रात में लिखने की आदत बन गयी.
यह सवाल स्वाभाविक है कि मैं पांच दशक से लिख रहा हूं लेकिन अभी तक सिर्फ दो संग्रह आये. दरअसल, संग्रह के प्रकाशन को लेकर मेरे स्वाभाव में उदासीनता रही है. मुझे प्रकाशकों की कभी कमी नहीं रहीं. लेकिन मैं किसी न किसी दूसरे काम लगा रहा. जैसे कभी फिल्म बना रहा हूं, कभी नाटक लिख रहा हूं, कभी कुछ और कर रहा हूं. फुरसत ही नहीं होती थी कि कविताओं को एक जगह इकट्ठा करूं. दूसरा, मैं आसानी से कविता को कविता नहीं मानता.मेरी कविता बहुत- बहुत दिनों तक रखी रहती हैं मेरे पास,जब तक मुझे लगता नहीं कि ये कविता है. इधर लगने लगा है कि मुझे इतनी देर तक कविता को ऐसे नहीं रखना चाहिए. अभी मेरे पास इतनी कविताएं हैं कि मेरे दस-पंद्रह संग्रह प्रकाशित हो सकते हैं . नया संग्रह ‘चंबल एक नदी का नाम’ तैयार है और प्रेम कविताओं की एक किताब भी आ सकती है.
बातचीत : प्रीति सिंह परिहार