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हिम्मत : तानाशाही के विरोध का प्रतीक

।। रविदत्तबाजपेयी ।। – प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की 10 वीं कड़ी में पेश है समाचारपत्र ‘हिम्मत’ की यात्रा. 1964 में मित्रों के सहयोग से राजमोहन गांधी ने इस साप्ताहिक समाचारपत्र की स्थापना की. आपातकाल के दौरान तमाम अवरोधों के बावजूद भी ‘हिम्मत’ ने हिम्मत नहीं हारी. वैसे भी इसका मूल मंत्र था– ‘हिम्मत’ के […]

।। रविदत्तबाजपेयी ।।

– प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की 10 वीं कड़ी में पेश है समाचारपत्र हिम्मतकी यात्रा. 1964 में मित्रों के सहयोग से राजमोहन गांधी ने इस साप्ताहिक समाचारपत्र की स्थापना की. आपातकाल के दौरान तमाम अवरोधों के बावजूद भी हिम्मतने हिम्मत नहीं हारी. वैसे भी इसका मूल मंत्र थाहिम्मतके पास कुछ कहने को है और वह कहने की हिम्मत’. 27 वर्ष के जीवन काल में यह समाचारपत्र कभी भी इससे पीछे नहीं हटा.

वर्ष 1975 में इलाहाबाद हाइकोर्ट द्वारा भारतीय संसद की सदस्यता से अयोग्य घोषित होने के बाद ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरे देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा की थी. घोषणा के साथ ही राजनैतिक विरोधियों को जेल भेजने समाचार माध्यमों पर सेंसरशिप लागू करने जैसे कठोर कदम भी उठाये गये थे.

सामान्यत: यह माना जाता है कि श्रीमती गांधी ने भारतीय राजसत्ता पर अपना पारिवारिक एकाधिकार बनाये रखने के लिए ही यह कदम उठाया था, लेकिन गांधीपरिवार के राजनीतिक वर्चस्व को बनाये रखने के इस प्रायोजित अभियान में एक अन्य और महानतम गांधी परिवार के सदस्य तो शामिल किये गये थे और ही वे शामिल होने को इच्छुक ही थे.

महात्मा गांधी के पौत्र और भारत के पहले गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी के दौहित्र, राजमोहन गांधी, गांधीपरिवार के उन सदस्यों में से थे, जिन्होंने आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप का खुल कर विरोध किया.

राजमोहन गांधी ने अपने समाचारपत्र हिम्मतको उसके नाम के अनुरूप ही, पूरे हौसले के साथ सरकारी दमन तानाशाही के विरोध का एक मुखर निडर प्रतीक बना दिया था. महात्मा गांधी के पुत्र देवदास गांधी और चक्र वर्ती राजगोपालाचारी की पुत्री लक्ष्मी के पहले पुत्र राजमोहन गांधी का जन्म वर्ष 1935 में हुआ था.

अपनी पढ़ाई के उपरांत राजमोहन गांधी विश्व में आक्रामक शस्त्रों के स्थान पर नैतिक आध्यात्मिक सशस्त्रीकरण के लिए चलाये गये अभियान के सदस्य बने. वर्ष 1967 में राजमोहन गांधी के नेतृत्व में इसी अभियान के नये स्वरूप परिवर्तन की पहल’ (इनिशिएटिव्स ऑफ चेंज) का एक केंद्र पुणे से 150 किलोमीटर दूर पंचगनी में स्थापित किया गया.

वर्ष 1964 में अपने कुछ मित्रों के सहयोग से राजमोहन गांधी ने हिम्मतनामक एक साप्ताहिक समाचारपत्र स्थापित किया. प्रख्यात लेखक आरएम लाला इस समाचारपत्र के संस्थापक संपादक थे. बंबई (अब मुंबई) से प्रकाशित हिम्मतसाप्ताहिक केवल भारतीय नहीं बल्कि विश्व भर की समसामयिक घटनाओं और समाचारों के विश्‍लेषण के लिए जाना जाता था, वैश्वीकरण के बहुत पहले से ही 73 विभिन्न देशों में इस समाचारपत्र के नियमित ग्राहक मौजूद थे. वर्ष 1974 में आरएम लाला के टाटा समूह में नयी जिम्मेदारी लेने के बाद राजमोहन गांधी ने हिम्मतके संपादक का कार्यभार संभाला.

आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप की घोषणा के बाद एक संपादकप्रकाशक के रूप में राजमोहन गांधी ने इसके विरोध का निर्णय लिया और हिम्मतके पन्नों पर सरकार विरोधी सामग्री का प्रकाशन जारी रखा. दो अक्तूबर 1975 को गांधी जयंती के दिन राजमोहन गांधी ने राजघाट पर एक सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन किया, प्रार्थना के बाद जैसे ही आचार्य कृपलानी ने अपना संबोधन शुरू किया वैसे ही बड़ी संख्या में पुलिस बल ने प्रार्थना सभा स्थल पर धावा बोल कर उपस्थित लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया.

महात्मा गांधी की चिकित्सक डॉ सुशीला नायर, जो इस सभा में आयीं थी, ने पुलिस को बहुत सख्त हिदायत देते हुए कहा किमैं एक डॉक्टर के रूप में कह रही हूं, इस वृद्ध पुरुष (आचार्य कृपलानी) को छुएं तक नहीं, इन्हें कुछ भी हो सकता है और यदि कृपलानी के स्वास्थ्य को कुछ भी हुआ तो इसकी पूरी जिम्मेदारी पुलिस पर ही होगी. राजमोहन गांधी को पुलिस हिरासत में राजघाट से एक समीपवर्ती थाने लाया गया, लेकिन कुछ ही देर बाद देश के सर्वोच्च प्रशासनिक पदाधिकारियों के निर्देश पर राजमोहन गांधी को रिहा कर दिया गया.

राजमोहन गांधी की इस प्रार्थना सभा से गिरफ्तार किये गये अन्य बहुत से लोगों की अगले 17 महीनों के लिए कारावास में रखा गया. अपनी इस त्वरित रिहाई पर राजमोहन गांधी ने कहा था किगांधी जयंती के दिन, गांधी के समाधि स्थल से, गांधी के अपने पौत्र को, गांधीवादी शैली का विरोध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जाना देश के सर्वोच्च प्रशासकों को अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए बहुत चिंताजनक लगा होगा.

हिम्मत राजमोहन गांधी, दोनों के लिए आपातकाल का मुखर विरोध गंभीर परिणाम लेकर आया. भारत की शासकीय विमान सेवा, एयर इंडिया, जिसने हिम्मतको 1964 के पहले अंक में विज्ञापन दिये थे ने अचानक इस समाचारपत्र को विज्ञापन देना बंद कर दिया. इसी प्रकार अनेक राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भी हिम्मतको अपने विज्ञापन देना बंद कर दिये. हिम्मतके पुराने प्रिंटिंग प्रेस ने सरकारी दबाव के कारण इस समाचारपत्र को छापने से मना कर दिया. अपने समाचारपत्र के प्रकाशन को जारी रखने के लिए राजमोहन गांधी को बहुत थोड़े समय में ही छह प्रिंटिंग प्रेस तलाशने पड़े.

सेंसरशिप की अवहेलना करने के कारण राजमोहन गांधी पर भारी जुर्माना लगाया गया, लेकिन राजमोहन गांधी ने इस आर्थिक दंड के खिलाफ न्यायालय में एक याचिका दायर की. सारे अवरोधों और सरकारी दमन के बावजूद भी आपातकाल के दौरान राजमोहन गांधी ने हिम्मतका नियमित प्रकाशन बनाये रखा. राजमोहन गांधी के अनुसार जब भी कोई विदेशी मेहमान श्रीमती गांधी से भारत में सेंसरशिप का जिक्र करता था, तो प्रधानमंत्री उन्हें हिम्मतके कुछ अंक पढ़ने को देती थीं, जिसके द्वारा यह साबित किया जा सके कि भारत में सरकार विरोधी प्रकाशन पूरी स्वतंत्रता से अपना काम कर रहे थे.

आपातकाल के बाद भारत में नयी और आकर्षक पत्रपत्रिकाओं की बाढ़ गयी, इस नये परिवेश में एक छोटेसे प्रकाशन के रूप में इस पत्रिका को चलाये रखना बेहद कठिन हो गया. वर्ष 1981 में हिम्मतका प्रकाशन बंद हो गया. राजमोहन गांधी आज भारत के एक प्रमुख गांधीवादी चिंतक हैं, महात्मा गांधी सहित भारत के कुछ प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनी के लेखक हैं और मानवाधिकारों विश्व शांति के अग्रणी कार्यकर्ता भी हैं.

राजमोहन गांधी के अनुसार, भारत में आज तो आपातकाल है और ही सेंसरशिप है, लेकिन भारतीय मीडिया में धन कमाने के तिकड़म, तड़कभड़क पूर्ण विलासी जीवन शैली, बॉलीवुड, मनोरंजन की निर्थक सूचना ने वास्तविक समाचारों को पूरी तरह से अदृश्य बना रखा है.

इस समाचारपत्र का मूल मंत्र थाहिम्मतके पास कुछ कहने को है और वह कहने की हिम्मतहै. अपने 27 वर्ष के जीवन काल में हिम्मतकभी भी अपनी इस प्रतिज्ञा से पीछे नहीं हटा.

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