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कैसे रुके राजनीति का अपराधीकरण?

* सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अवमानना अक्षम्य अपराध ।। शत्रुघ्न प्रसाद सिंह ।। (पूर्व सांसद) संसद का वर्षाकालीन सत्र पांच अगस्त से आहूत है. अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों में से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 50 में संशोधन विधेयक लाने के लिए राजनीतिक दलों में आम सहमति की खबरें आ रही हैं. 10 जुलाई के सुप्रीम कोर्ट के […]

* सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अवमानना अक्षम्य अपराध

।। शत्रुघ्न प्रसाद सिंह ।।

(पूर्व सांसद)

संसद का वर्षाकालीन सत्र पांच अगस्त से आहूत है. अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों में से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 50 में संशोधन विधेयक लाने के लिए राजनीतिक दलों में आम सहमति की खबरें रही हैं. 10 जुलाई के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और लखनऊ हाइकोर्ट के निर्देश ने देशदुनिया के जनतंत्र प्रेमियों को झकझोरा है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्व दर्जनों आयोगों, समितियों और निर्वाचन आयोग की चुनाव सुधार संबंधी सिफारिशों को नजरअंदाज करनेवालों के लिए यह आवश्यक था. न्यायपालिका के धमाके से संसदीय गरिमा को बेशर्मी से बरबाद करनेवालों की छटपटाहट बढ़ रही है.

41 पृष्ठों के निर्णय में न्यायमूर्ति द्वय की मूल चिंता राजनीति के अपराधीकरण को रोकना है. लेकिन, इसके लिए सिर्फ लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (4) को ही निरस्त करना काफी नहीं होगा. भले ही इसमें आंशिक चुनाव सुधार की प्रक्रिया प्रारंभ करने की विवशता हो, लेकिन मौलिक सुधार संभव नहीं है. इसके लिए भारतीय संविधान, लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, भारतीय दंड विधान संहिता और प्रक्रिया में आवश्यक संशोधन करना होगा, तभी अपराधी, राजनेता और पुलिस का नापाक गंठजोड़ टूटेगा, अन्यथा फिर बैताल उसी डाल पर जा बैठेगा. संसद की सर्वोच्चता की रक्षा स्वच्छ और ईमानदार चरित्र के ही सांसद कर सकते हैं. दागियों के दाग से लोकतंत्र का मंदिर अपवित्र होता रहेगा.

सुप्रीम कोर्ट ने लिलि थामस और लोक प्रहरी की याचिका संख्या 231/05 पर अपना निर्णय 10 जुलाई, 2013 को दिया है, जो संसदीय गरिमा के नित क्षरण के क्षणों में देशदुनिया को झकझोरनेवाला निर्णय है. माननीय न्यायमूर्ति द्वय एके पटनायक और सुधांशु ज्योति मुखोपाध्याय ने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (4) को असंवैधानिक करार दिया है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 में संसद सदस्यों के लिए और 191 में विधानमंडल सदस्यों के लिए निर्हताएं उपबंधित हैं. अनुच्छेद 103 में उपबंध है कि यदि यह प्रश्न उठता है कि संसद के किसी सदन का कोई सदस्य अनुच्छेद 102 के खंड (1) में वर्णित किसी निर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं, तो यह प्रश्न राष्ट्रपति को विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जायेगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा.

उसी प्रकार विधानमंडल के सदस्यों के लिए अनुच्छेद 192 में यह शक्ति राज्यपाल में निहित है. लेकिन, ऐसे किसी प्रश्न पर विनिश्चय करने से पहले राष्ट्रपति अथवा राज्य निर्वाचन आयोग से प्राप्त राय के अनुसार ही कार्य करेंगे. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति द्वय ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धाराआठ उपधाराचार को असंवैधानिक करार करते हुए सजायफ्ता संसद अथवा विधानमंडल सदस्यों के पदों को रिक्त कर देने की बात कहीं है. संविधान के अनुच्छेद 101 में निर्हता के कारण सदस्यों के स्थानों का रिक्त कर देने की बात कही है.

संविधान के अनुच्छेद 101 में निर्हता के कारण सदस्यों के स्थानों का रिक्त होना इस बात पर निर्भर करेगा कि वे संसद द्वारा निर्मित विधि द्वारा ही स्थान रिक्त करेंगे. संसद ने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 यथा संशोधित 2008 तक कोई ऐसा प्रावधान नहीं किया है, जिससे किसी दागी की उम्मीदवारी अथवा निर्वाचन के बाद भी पद से हटाये जाने का प्रावधान हो. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 8 (3) को निरस्त नहीं कर सजायफ्ता को लगातार छह वर्षो के बाद चुनाव लड़ने की छूट से कोई परहेज नहीं किया है. क्या छह वर्षो के बाद कोई दुष्कर्मी, हत्यारा, अपहरणकर्ता बेदाग हो जाता है? हृदय परिवर्तन की शपथ लेने और दिलानेवाले भी दिवंगत हो गये.

चुनावी सभा में कतिपय राजनेताओं ने दागी उम्मीदवारों को महर्षि वाल्मीकि बना दिया और ताज्जुब यह है कि महान जनता ने उस महर्षि की संसद के लिए ताजपोशी कर दी. क्या इसके लिए दलों के चुनावी समीकरण अथवा दागियों को महिमामंडित करने की संसदीय मर्यादा को नष्ट करनेवालों को गुनाहगार माना जाये अथवा महान मतदाताओं को. यह भी एक यक्ष प्रश्न है.

सुप्रीम कोर्ट में केवल लोप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा आठ को ही चुनौती दी गयी थी. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 को अनुच्छेद 326 के जैसा संशोधित करने की तो याचिका में उल्लेख है और ही सुप्रीम कोर्ट में किसी अधिवक्ता ने न्यायालय का ध्यान आकृष्ट किया. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 में व्यस्क मताधिकार शीर्षकके अंतर्गत यह प्रावधान है कि अपराध, भ्रष्ट या अवैध आचरण के आधार पर मतदाता मताधिकार से वंचित रहेंगे. लेकिन, अनुच्छेद 102 अथवा 191 में भ्रष्ट, अपराध अथवा अवैध आचरण की शर्ते निर्हता के लिए उपबंधित नहीं हैं.

जब तक इस महत्वपूर्ण अनुच्छेद का यथास्थान संशोधन नहीं होगा, तब तक सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सही ढंग से लागू नहीं हो सकता. लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (4) के निरस्त होने के बावजूद अनुच्छेद 103 और 192 में राष्ट्रपति और राज्यपाल को निर्हता के सवाल पर अंतिम तौर पर विनिश्चय की प्रदत्त शक्ति से संबंधित प्रावधान को भी विलोपित करना होगा और इसके लिए संसद को संविधान में संशोधन करना होगा. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 राजनीतिक दलों का पंजीकरण भागचार () में भी निर्हताओं की इन शर्तो को उपबंधित करना होगा.

जब तक पंजीकृत राजनीतिक दल यह शपथपत्र दाखिल नहीं करेंगे कि उनका कोई पदाधिकारी सजायफ्ता नहीं होगा और ऐसे लोगों को संसद, विधानमंडल अथवा स्थानीय निकाय के चुनाव में उम्मीवार नहीं बनाया जायेगा. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म और इलेक्शन वाच के संयुक्त विश्लेषण के अनुसार राजनीतिक दलों ने 74 प्रतिशत अपराधी चरित्र के उम्मीदवारों को ही टिकट दिया. विश्लेषण बतलाता है कि चुनाव लड़नेवाले 4181 उम्मीदवारों में से 3173 उम्मीदवार की संपत्ति में काफी इजाफा हुआ. 2004 में इनकी संपत्ति 10 लाख से पांच करोड़ तक पहुंच गयी. ऐसे चुनाव जीतनेवालों की आमदनी 13 प्रतिशत की वृद्धि पांच वर्षो में हुई.

4181 उम्मीदवारों ने अपनी आमदनी में 200 प्रतिशत इजाफा किया है और 684 उम्मीदवारों ने 500 से 1000 प्रतिशत तक की वृद्धि कर ली. ऐसी वृद्धि बताती है कि अब केवल संदूक और बंदूक की ही राजनीति होगी. यह जनतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है. विश्लेषण यह भी बतलाता है कि ऐसे राजनीतिक दलों में अपराधियों का सर्वाधिक वर्चस्व शिवसेना में 75 प्रतिशत है, जबकि राजद 46, जदयू में 44, भाजपा में 31 और कांग्रेस में 22 प्रतिशत है.

क्या सुप्रीम कोर्ट लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 () की समीक्षा कर जब तक ऐसे राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द नहीं करेगा, तब तक संसद में अपराधी महिमामंडित होते रहेंगे. यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के मतदाताओं के लिए गंभीर चुनौती है. क्या संसद वर्षाकालीन सत्र में ऐसे उपबंधों का संशोधन कर राजनीति के अपराधीकरण को रोकने का दुस्साहस करेगा अथवा दागियों को महिमामंडित करते हुए देश के भाग्य भविष्य का निर्धारण करता रहेगा. संसद की सर्वोच्चता का धौंस दिखा कर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अवमानना करना अक्षम्य अपराध है.

उसी तरह धारा 29 () और () भी आज के संदर्भ में हास्यास्पद और अप्रासांगिक हो गये हैं, जिससे कंपनियों द्वारा दान स्वीकार करने और उसकी घोषणा करने का प्रावधान है. दान की सीमा मात्र 20 हजार रुपये है. जब महाराष्ट्र के महान नेता गोपीनाथ मुंडे अपने चुनाव में आठ करोड़ रुपये खर्च करने की बात सार्वजनिक तौर पर बेशर्मी के साथ स्वीकार करते हैं, तो निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित 40 लाख की सीमा हास्यास्पद हो जाती है. निर्वाचन आयोग को ऐसे लोगों को दंडित करने की शक्ति नहीं है.

धारा 125 () असत्य शपथपत्र आदि भरने के लिए सिर्फ छह माह तक सजा का प्रावधान है, लेकिन इससे उसकी सदस्यता पर कोई असर नहीं पड़ेगा. अनुभव यह बतलाता है कि ऐसे मामले पिछले आठ वर्षो से लंबित हैं. न्यायपालिका भी कच्छप गति से अनिच्छापूर्वक मामलों को लटकाये हुए हैं. 2004 की तुलना में 2009 के लोकसभा चुनाव में अपराधियों की संख्या 156 से 315 हो गयी है, जिनके विरुद्ध संगीन आपराधिक कांड दर्ज है.

भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 307, 376, 395, 420, 365, 506, 120 बी 403, 411 आदि धाराओं के अंतर्गत आरोपित संसद के गौरव स्तंभ हैं. ऐसे लोग राजनीति के अपराधीकरण रोकने की दिशा में हर ऐसे विधेयकों को पारित नहीं होने देंगे. सजायफ्ता और संगीन मामलों में आरोपित ही जिस सदन में कानून बनायेंगे, उस जनतंत्र की रक्षा केवल सुप्रीम कोर्ट के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. अपराधियों के अभयारण्य में बेखौफ विचरण कर रहे दबंग की मजबूत होती बांह और कानून से भी लंबे हाथों को जनता ही मरोड़ सकती है.

सुप्रीम कोर्ट ने जेल में निरुद्ध रहने के कारण चुनाव लड़ने के लिए ऐसे उम्मीदवारों को अयोग्य करार दिया है. जनतंत्र के राजनीतिक दलों, जन संगठनों और व्यक्ति विशेष को विरोध प्रकट करने का मौलिक अधिकार है. इन दिनों प्राय: देखा जाता है कि ऐसे प्रदर्शनों और धरनों में शामिल होनेवाले जननेताओं और कार्यकर्ताओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 353 के तहत अभियुक्त बना कर जेल भेज दिया जाता है, क्योंकि यह धारा गैर जमानतीय बना दी गयी है.

यदि उसी समय उन्हें किसी चुनाव में अपना नाम निर्देशन पत्र भरना है, तो सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह अपने मौलिक अधिकार से वंचित हो जायेगा. जनतंत्र को जिंदा रखने के लिए भी यह आवश्यक है. शांतिपूर्ण और अहिंसक जन आंदोलनों में भाग लेनेवाले यदि जेल जाते हैं, तो उन्हें अपने मताधिकार और मत प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता.

राजनीतिक द्वेष और विकृत मानसिकता की वजह से भी चुनाव के संभावित उम्मीदवारों को पुलिस, राजनीतिज्ञ और नौकरशाह के नापाक गंठबंधन के कारण अभियुक्त बना दिया जा सकता है. जनतंत्र के लिए यह खतरनाक प्रवृत्ति है. अत: सुप्रीम कोर्ट को इस महत्वपूर्ण बिंदु पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. यद्यपि जनप्रतिनिधित्व की धारा 62 में यह उपबंध है‘‘62 (5) कोई भी व्यक्ति किसी निर्वाचन में मत नहीं देगा, यह वह कारावास में परिरुद्ध हो, चाहे कारावास या निर्वासन या अन्यथा दंडादेश के अंतर्गत हो, या पुलिस की विधिपूर्ण अभिरक्षा में है, परंतु इस उपधारा में तत्समय किसी विधि के अंतर्गत निवारक निरोध के विषय व्यक्ति को लागू नहीं होगा.धारा 353 भा को जमानतीय और जनता के सवालों पर शांतिपूर्ण अहिंसक आंदोलनों में आरोपित अथवा कारा में परिरुद्ध को चुनाव लड़ने से नहीं रोका जाये. ऐसे महत्वपूर्ण सवाल पर भी संसद को फैसला करना होगा.

संसद को भूलना नहीं चाहिए कि उम्मीदवारों की चलअचल संपत्ति का ब्योरा, शैक्षणिक योग्यता और दर्ज मुकदमों की सूचना देने की बाध्यता अनिच्छा अस्वीकृति के बावजूद है. ऐसे लज्जित करनेवालों को अलगथलग करने के मुहिम को तेज करना चाहिए. सूचनाओं के विस्फोट के युग में कुंठित मानसिकता से उबरना चाहिए. जनतंत्र को जिंदा बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि धनपशुओं और दागियों को संसद पर कब्जा होने नहीं दें.

अब संसद को धार्मिक और जातीय उन्माद को अपराध की श्रेणी में तब्दील करने के लिए आगे आना होगा. सिर्फ जातीय रैलियों पर ही प्रतिबंध लगाने से काम नहीं चलेगा. धर्म के ध्वजवाहक की गर्वोक्ति से जनतंत्रीय धारा कुंद होती है. वैचारिक प्रतिबद्धता की लड़ाई को तेज करने के लिए धार्मिक और जातिवादी धज्जियां उड़ायी जाती रहेंगी. जब तक सभी जनवादी और पंथनिरपेक्ष तत्व एकताबद्ध प्रतिरोध नहीं करेंगे, तब तक आम अवाम की आवाज की अनुगूंज संसद की अभेद्य दीवारों को नहीं चीर सकती है. ..तो आएं नागार्जुन के शब्दों में संकल्प लें :

अविवेकी भीड़ की भेड़िया धंसान के खिलाफ…..

अन्यबधिर व्यक्तियोंको सही रात बतलाने के लिए

अपने आप को भी व्यामोहसे बारंबार उबारने की खातिर

प्रतिबद्ध हूं, जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं.

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