कवर स्टोरी:शिवेंद्र कुमार सिंह
इंडियन बैडमिंटन लीग की शुरुआत को बदलाव की एक मुकम्मल दस्तक माना जा सकता है. यह बदलाव आया है भारत में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों के प्रति सोच को लेकर. ओलिंपिक में मेडल की सूची ही नहीं, मुक्केबाजी, बैडमिंटन, शूटिंग जैसे खेलों के मैदान से लगातार आ रही जीत की खबर इस बात की ओर इशारा कर रही है कि क्रिकेट की दीवानगी में डूबे हुए देश में धीरे-धीरे ही सही दूसरे खेल भी अपने लिए जगह बना रहे हैं. भारतीय खेल की दुनिया में बदलाव की इस बयार पर खास रिपोर्ट..
टेलीविजन पर इन दिनों एक विज्ञापन खूब चल रहा है. इसमें एक बच्चा दूसरे बच्चे से कह रहा है, ‘जगह छीनी नहीं जाती, बनायी जाती है.’ बात सोलह आने खरी है. क्षेत्र कोई भी हो और मुकाबला चाहे किसी से भी क्यों न हो, जगह बनाने से ही बनती है. यह ठीक वैसे ही है जैसे बॉलीवुड शाहरूख खान को किंग खान बुलाता तो है लेकिन ऐसा नहीं कि पूरी इंडस्ट्री पर उन्हीं का राज है. शाहरूख खान के अलावा सलमान खान भी हैं. आमिर खान हैं.
और भी तमाम दूसरे अभिनेता हैं. हर किसी की अपनी अपनी जगह है. भारतीय खेलों की दुनिया को भी आज इसी सोच की जरूरत है. उन्हें क्रिकेट के ‘हौव्वे’ से निकलने की जरूरत है. इस बात पर चर्चा करने की जरूरत है कि हर वक्त क्रिकेट के साथ तुलना करने के बजाय क्यों न लोकप्रियता और लोगों के दिलों पर असर के मामले में क्रिकेट के आसपास पहुंचने के बारे में सोचा जाये. अगर पिछले वर्षो में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में भारत के प्रदर्शन पर ही नहीं, जमीन पर हो रही सुगबुगाहटों पर गौर करें, तो ऐसा लगता है कि बाकी खेल भी फैन फॉलोविंग पर अपना हक जताने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं.
भारतीय खेल जगत इन दिनों बदलाव की एक बयार को महसूस कर रहा है. मीडिया में दूसरे खेलों की कामयाबियों पर जिक्र हो रहा है. हालांकि इसमें शक नहीं कि रास्ता बहुत लंबा है, लेकिन ‘हर लंबे सफर की शुरुआत एक छोटे से कदम से होती है’ की तर्ज पर यह कदम न सिर्फ उठाया जा चुका है, बल्कि सफर का शुरुआती हिस्सा भी तय कर लिया गया है.
कोई खेल तभी लोकप्रिय होता है, जब वह समाज के भीतर अपनी जगह बनाता है, जब वह बच्चों-युवाओं के सपने का हिस्सा बन जाता है. क्रिकेट भारत में इसलिए इतना बड़ा खेल है, क्योंकि यह करोड़ों भारतीयों के सपने में पलता है. इस पर आश्चर्च किया जा सकता है, लेकिन देश की नन्ही-मुन्नी आंखों में अब सिर्फ क्रिकेट का सपना नहीं है, धीरे-धीरे ही सही दूसरे खेलों ने भी सपनों की इस दुनिया में जगह बनाना शुरू कर दिया है. देश के विभिन्न शहरों में अलग-अलग खेलों की एकेडमी में जीतने का हुनर सीखने वाले बच्चों-युवाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है. स्थिति इस मायने में भी नयी है कि मुमकिन है कि अब उनके साथ कोई ओलिंपिक या एशियाड मेडलिस्ट खिलाड़ी भी प्रैक्टिस कर रहा हो. ऐसे में बात और ‘खास’ हो जाती है. ज्यादा सही यह कहना होगा कि उनके सपनों को हौसलों के पंख मिल जाते हैं. देहरी पर ठिठकाये रखनेवाली एक झिझक समाप्त हो जाती है.
पिछले एक दशक में देश की तमाम एकेडमियों की फिजा जिस तरह बदली है, उसकी तुलना ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ और ‘कलर’ टीवी के बीच के अंतर से की जा सकती है. अब भारत के पास खेलों के नाम पर सिर्फ क्रिकेट नहीं है. अब हमारे पास तीरंदाजी, शूटिंग, मुक्केबाजी, कुश्ती, बैडमिंटन जैसे खेलों के स्टार हैं. गर्व करने लायक ओलिंपिक मेडल हैं. हर दूसरे हफ्ते कहीं न कहीं से आती जीत की खबर है. शिव थापा, पीवी सिंधु जैसे उगते सितारे हैं. भारत में दूसरे खेल जिस तरह से लगातार अपने लिए छोटी ही सही एक मुकम्मल जगह बना रहे हैं, उसमें बदलाव की एक बड़ी इबारत को पढ़ा जा सकता है.
भारत जैसे क्रिकेट क्रेजी देश में इस बात पर आश्चर्य किया जा सकता है कि पिछले वर्षो में दूसरे खेलों के खिलाड़ियों ने भी काफी सुर्खियां बटोरी हैं. वे अब विज्ञापनों में भी दिखते हैं. भारतीय क्रिकेट टीम के पास विश्व कप, चैंपियंस ट्रॉफी या टी-20 वल्र्ड कप है, तो उसके जवाब में दूसरे खेलों के पास ओलिंपिक मेडल हैं. अभिनव बिंद्रा के पास चमकता गोल्ड है और सुशील कुमार, राज्यवर्धन सिंह राठौर और विजय कुमार के पास सिल्वर है. इनके अलावा योगेश्वर दत्त, सायना नेहवाल और मेरीकॉम जैसे खिलाड़ियों ने भारत को दूसरे खेलों की महाशक्ति नहीं तो कम से कम गंभीर प्रतियोगी बनने के रास्ते पर लाकर खड़ा तो कर ही दिया है. एक बड़े बदलाव की बानगी है कि अब ओलिंपिक में मेडल के लिए सिर्फ 2-3 खिलाड़ियों की तरफ ललचाई आंखे नहीं उठतीं. अब एक दर्जन से ज्यादा खिलाड़ी हैं जो अपने खेल में ‘फेवरेट’ के तमगे के साथ मुकाबले में उतरते हैं. ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक रूप से मन में उठता है कि क्या भारत क्रिकेट के जुनून से बाहर आने को तैयार है!
पूर्व क्रिकेटर मनोज प्रभाकर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि भारत में कोई दूसरा खेल क्रिकेट के आसपास भी पहुंच पाया है. उन्हें लगता है कि अब भी अगर देश में लोकप्रिय खेलों की लिस्ट बनायी जाये, तो उसमें पहले से पांचवें नंबर तक क्रिकेट ही होगा. इसकी वजह मनोज ये बताते हैं कि क्रिकेट में ‘एक्सपोजर’ जबरदस्त है. कोई भी स्पोर्ट्स चैनल लगा लीजिए क्रिकेट खेलते खिलाड़ी दिख जायेंगे. दूसरे खेलों के मुकाबले क्रिकेट में मेहनत कम है और पैसा ज्यादा. हर गली में क्रिकेट एकेडमी है जबकि अगर कोई बैडमिंटन, मुक्केबाजी, टेनिस या शूटिंग या तीरंदाजी सीखना चाहे तो उसे अच्छा कोच ढूंढ़ने के लिए ही खासी मेहनत करनी होगी. ऐसे कई सरइंतजाम जुटाने होंगे, जो आज भी बड़े-बड़े शहरों में भी उपलब्ध नहीं हैं.
मुक्केबाज अखिल कुमार को लगता है कि क्रिकेट में स्टार बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता. जिम्बाब्वे के खिलाफ पहले वनडे मैच में हाफसेंचुरी लगाते ही अंबाती रायडू स्टार बन गये, जबकि हाल ही में दीपिका कुमारी के वल्र्ड चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीतने और शिव थापा के एशियन चैंपियन बनने की खबरें गुमशुदा ही रहीं. इन दोनों इवेंट्स का कहीं किसी भी खेल चैनल पर प्रसारण नहीं हुआ. दरअसल, क्रिकेट के अलावा बाकी खेलों के सामने यह चुनौती लगातार बनी हुई है कि इवेंट्स के प्रसारण का इंतजाम कैसे करें. साथ ही खेलों को समझाने वाला भी चाहिए.
हर सफर अपने अंदर कई मुश्किलों को समेटे होता है. भारत में भी क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों की लोकप्रियता के सामने कई चुनौतियां हैं. वैसे उस सफर का मजा ही क्या जिसमें चुनौतियां न हों! निस्संदेह यह एक लंबी बहस का मुद्दा है और कई स्तरों पर यह बेमानी भी है, क्योंकि सपनों पर कहां किसी ने पहरेदारी की है. इतना जरूर है कि हालात तेजी से बदल रहे हैं. व्यावहारिक सोच और प्रोफेशनल तरीके से चलाये जा रहे खेलों में पहले के मुकाबले बड़ा फर्क दिखता है. सवाल क्रिकेट बनाम दूसरे खेलों का नहीं है. फिलहाल सवाल क्रिकेट से जमीन आसमान जैसी दूरी को कम करने का है. इस बदलाव की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है, हां लेकिन जैसा कि किसी शाइर ने कहा है, लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता ही है.
बदलाव का दृश्य-1
बदलाव का दृश्य-2
बदलाव का दृश्य-3
"क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में दिखायी पड़ रही सुगबुगाहट एक मजबूत आवाज बन सकती है, बशर्ते इस दिशा में पूरा ध्यान दिया जाये. क्रिकेट जितना आसान और मनोरंजक है, दूसरे खेलों को भी आम लोगों के लिए उतना ही मनोरंजक बनाया जाये. ऐसा खेल के बारे में जागरूकता पैदा करके होगा. क्रिकेट में एक नियम बदलता है तो हर किसी को पता चल जाता है. यहां बॉक्सिंग या शूटिंग में कोई नियम बदले तो किसी को नहीं मालूम होता. क्रिकेट की जीत भी खबर है और हार भी. शाहरूख खान की फिल्म बाजीगर का एक डॉयलॉग बेहद मशहूर है, ‘जो हार कर भी जीत जाये उसे बाजीगर कहते हैं.’ क्रिकेटर बाजीगर ही है. लेकिन ये वो बाजीगर नहीं है कि उनकी कलाकारी समझी नहीं जा सकती. या वे कोई हाथ की सफाई करते हैं. क्रिकेट चलानेवालों ने ऐसा इन्फ्रास्ट्ररखड़ा कर दिया है कि वहां सबकुछ दुरुस्त है. अगर क्रिकेट की अच्छी बातों को सीखा जाये और दूसरे खेलों में कामयाबी का ग्राफ ऐसे ही बढ़ता रहे, तो लोग क्रिकेट के ‘क्रेज’ से बाहर निकल सकते हैं."