मध्यकाल में सूफी और भक्ति परंपरा के संतों ने हिंदुस्तानी समाज, बल्कि पूरी हिंदुस्तानी तहजीब को ही एक बिल्कुल अनोखा रंग बख्श दिया. वे एक ऐसे मजहब की तसवीर पेश कर रहे थे जिसमें भक्ति की कोई शर्त नहीं थी और ना ही खुदा मसजिदों, मंदिरों या शिवालों कैद था. सूफियों की महफिलें और भक्तों की मंडलियां एक ही तरह से प्रेम रस में डूबी रहती थीं. बहरहाल, यह तसव्वुफ और भक्ति का ही फैज है कि खैबर से लेकर पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठवाड़ा के साथ दूसरे मुकामों तक ऐसे हजारों मजार और दरगाहें हैं. इन्हीं में एक मजार सूफी संत अशरफ खां का भी है जो अपने जमाने में मशहूर फिल्मी अदाकार और गायक थे.
अहमदाबाद-दिल्ली हाइवे पर गंज शोहदा नाम की जगह पर अशरफ खां वली का शानदार मजार है, जिसे उनके मानने वालों ने 1962 की ग्यारहवीं शरीफ के मौके पर हुए इंतकाल के बाद तामीर करवाया था. आज मजार पर रोजाना हजारों अकीदतमंद हाजिरी देते हैं. उनके सालाना उर्स पर देश-दुनिया से लाखों लोग शरीक होते हैं.
अशरफ खां 1901 में इंदौर में पैदा हुए. जब वह सात साल के हुए तो वालिद का इंतकाल हो गया. अब मां और एक छोटी बहन की देखभाल की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गयी. तब इंदौर पहलवानी के लिए मशहूर था. कमसिन अशरफ खां ने भी शुरू में इस पेशे को अपनाया. बाद में उन्होंने बकरियां चराने का काम अपना लिया. उनकी आवाज बड़ी सुरीली थी. एक दिन वह बकरियां चराते हुए ऊंचे सुर में गा रहे थे, तभी एक गुजराती ड्रामा कंपनी के मालिक का गुजर उस रास्ते से हुआ. उसने अशरफ खां को गाते हुए सुना तो उन्हें अपनी ड्रामा कंपनी में काम करने का ऑफर दिया. उन्हें एक ड्रामा में लड़की का पार्ट अदा करने की पेशकश की गयी, जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि वह सिर्फ लड़के का पार्ट अदा करेंगे. उन्हें एक छोटा-सा रोल मिला. आगे चल कर वह हीरो का रोल अदा करने लगे. जिसके लिए उन्हें कंपनी से 600 रुपये महीने तनख्वाह मिलती थी. वह पूरी तनख्वाह अपनी मां के हवाले कर देते थे. उन्हें पान खाने का शौक था, मां इसके लिए उन्हें रोजाना चार आने देती थी. जिसे वह शाम को मां के हाथ में वापस दे देते थे.
कंपनी के ड्रामों में वी शांताराम की बीवी संध्या के साथ उन्होंने पृथ्वीराज चौहान का किरदार दो हजार बार स्टेज पर निभाया. कहा जाता है कि वी शांताराम जब मुंबई में राजकमल स्टूडियो बनाना चाहते थे तो अशरफ खां ने अपने अकीदतमंद महबूब खां को शांताराम की आर्थिक मदद करने के लिए कहा था तभी इस स्टूडियो का निर्माण हो सका. अशरफ खां की स्टेज अदाकारी की धूम मची तो बंबई की फिल्मों में उन्हें काम मिलने लगा. वह 1931 में मुंबई आ गये. उन्होंने भरथरी, गुले बकावली और वीर कुणाल (तीनों 1932) नाम की फिल्मों में हीरो का रोल निभाया फिर कैरेक्टर रोल करने लगे. उन्होंने एक दर्जन से ज्यादा फिल्मों में काम किया और तकरीबन दस फिल्मी गाने गाये हैं. फिल्मी दुनिया में वह सितारा बने 1938 में आयी फिल्म बागबान से.
महबूब खां की मशहूर फिल्म रोटी (1942) में वह एक पागल प्रोफेसर के रोल में आये थे. रोटी में गाये उनके गाने ‘रहम न खाना, है मक्कार जमाना..’, ‘राम नाम क्या जपना..’ वगैरह बहुत मकबूल हुए. इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाकात पीरो मुर्शिद हजरत गुलाम सरवर से हुई, जो लाहौर में रहते थे और तब मुंबई में अपने मुरीदों से मिलने आये हुए थे. यहां से अशरफ खां की जिंदगी में जबरदस्त बदलाव आना शुरू होता है. वह गुलाम सरवर के करीबतरीन होते गये. अशरफ खां अपने मुरशिद के जूते उठाते थे. उनसे मिलने आनेवालों के जूते की देखभाल करते थे. गुलाम सरवर से मिलने आनेवालों में मशहूर फिल्मी हस्तियां भी होती थीं. अशरफ खां जो खुद भी एक बड़े मशहूर एक्टर और गायक थे वह सभी मेहमानों, जरूरतमंदों का बड़ी अकीदत से ध्यान रखते थे. उनकी इस अकीदत और नरमदिली से मुतास्सिर होकर गुलाम सरवर ने उन्हें अपना गद्दीनशीन नामजद कर दिया और वली का दर्जा बख्श दिया. यहीं से अशरफ खां एक पीर की हैसियत से सामने आते हैं.
फिल्मों में रहते हुए, और पीर बनने के बाद भी गुजराती स्टेज से उनका रिश्ता बना रहा. मुल्क के नामवर गानेवालों ने हजरत अशरफ खां के कसीदे रेकार्ड किये हैं जिनमें बेगम अख्तर, अमीर बाई कर्नाटकी के नाम शामिल हैं.
1962 में स्टेज पर अपना आखिरी शो करके राजकोट की उस दरगाह में वापस आये जहां मेहमानखाने में वह अपने परिवार के साथ रुके थे. ग्यारहवीं शरीफ थी, अशरफ खां की तबीयत खराब हुई, वह बिस्तर पर लेट गये और अपनी बीवी से दो चार बातें करके खामोश हो गये. उसी खामोश्ी में वह सारी रात कुछ पढ़ते रहे. उनके घर के लोग और मुरीद उस दरम्यान उनके बिस्तर के पास ही दरूद शरीफ, आयत शरीफ का विर्द कर रहे थे. सुबह उन्होंने आंखों खोलीं, अकीदतमंदों ने दरयाफ्त किया, बाबा आप कैसे हैं. उन्होंने कहा कि वह जहां भी हैं खैरियत से हैं. उनके मुरीद उन्हें उसी हालत में राजकोट हॉस्पिटल लेकर गये जहां ग्यारह बजे रात में उन्होंने आखिरी सांस ली. उनकी मैय्यत उनके अजीज दोस्त डॉ मलिक के घर लायी गयी जहां उनकी आखिरी रस्म अदा होनी थी. फैसला हुआ कि उनके सबसे ज्यादा माननेवाले गंज शोहदा में रहते हैं लिहाजा बाबा का मजार वहीं तामीर होगा.