अमिताभ कुमार को कई रूपों में जाना जाता है – अंगरेजी के प्रोफेसर, लिटरेरी क्रिटिक, पत्रकार, कवि और उपन्यासकार. अभी उनकी एक किताब रिलीज हुई ए मैटर ऑफ रैट्स : ए ब्रीफ बायोग्राफी ऑफ पटना. पिछले दिनों वह अपनी इसी किताब के विमोचन के लिए पटना आये हुए थे. मुझे नहीं पता था कि ये अमिताभ कुमार वही हैं जिन्होंने हसबैंड ऑफ ए फैनेटिक लिखी है. कारण, यह किताब अंगरेजी में है और अंगरेजी में उनके नाम की स्पेलिंग कुछ ऐसी है कि उच्चारण अमिताव हो. खैर, जिज्ञासावश मैंने पटना पर किताब की खोज अमेजन पर की और फिर गूगल पर. यहां से मुझे पता चला कि हसबैंड आफ ए फैनेटिक वाले अमिताव कुमार और ये अमिताभ कुमार एक ही हैं. अपने पाठकों को बताते चलें कि करीब 14 साल पहले जब कारिगल युद्ध चल रहा था, अमिताभ कुमार ने पाकिस्तानी मुसलिम महिला से शादी की. इसके बाद ही अमिताभ ने यह किताब लिखी. भारतीय-पाकिस्तानी, कट्टरपंथी-सेकुलर, हिंदू-मुसलमान, संवेदनशील मनुष्य व दंगाइयों को जोड़ने वाली घृणा और नजदीकियों की पहचान और पड़ताल की प्रक्रिया से गुजरती हुई किस्सागोई. जी हां, अमिताभ जबरदस्त किस्सागो हैं. वह हर बात किस्सों के जरिये ही बयान करते हैं.
अपनी इस यात्र में अमिताभ कुमार अपने पिता आइसी कुमार के साथ झारखंड के जादूगोड़ा और खूंटी की यात्र पर भी गये. उनकी यह यात्रा अपने बचपन की स्मृतियों की ओर लौटने की यात्र थी, जो उनके पिता ने प्लान की थी. खूंटी में उन्होंने चलना-बोलना सीखा और जादूगोड़ा में साइकिल चलाना. 13 जुलाई को रांची में प्रभात खबर के कार्यालय आये और अपने अनुभव शेयर किये. वहीं हमने उनसे बातचीत के लिए समय मांगा. वह सहज तैयार हो गये. सोमवार को पटना में उनसे मिला, उनके घर पर. खिलंदड़ेपन से भरे-पूरे अमिताभ ने कहा कि भाई जी, पहले इ बताइए कि आप किस चीज पर बात करना चाहते हैं. हमने उन्हें बताया और फिर तीन दिन के दौरान कई हिस्सों में बातचीत हुई. इस बातचीत में भी उन्होंने किस्सों-कहानियों के जरिये ही सबकुछ कहा. हर विषय पर उनके पास एक कहानी है- जादूगोड़ा, खूंटी, रांची और पटना के अनुभवों पर वह किस्सों के जरिये ही अपनी बात कहते हैं. साहित्य, शिक्षा, बिहार में आ रहे बदलाव आदि, सबकुछ कहानियों के जरिये बहुत सहजता से बताते हैं वे.
– पढ़िए पहली किस्त
मैं ने अमिताभ से कहा कि पहले आप झारखंड व बिहार में जहां–जहां गये, वहां के अनुभव और आब्जर्वेशन शेयर कीजिए. आपको वहां क्या बदलाव नजर आता है? मेरे यह पूछते ही वह कहते हैं कि भाई जी, आप किस–किस विषय पर बात करियेगा, ये बता दीजिए. मैं उनको बताता हूं और वह पटना में पहुंचने से शुरु आत करते हैं – पटना पहुंचा मैं. प्लेन रु का. मोबाइल ऑन किया. न्यूयॉर्क टाइम्स का मेसेज मिला कि आज सुबह–सुबह बोधगया में ब्लास्ट हुआ. हालांकि मैं दिल्ली में एयरपोर्ट पर ही टीवी पर देख चुका था कि बोधगया में ब्लास्ट हुआ है. लेकिन मैं मां–बाप से बड़े दिन बाद मिल रहा था. मैं चिंतित हूं उनके स्वास्थ्य के बारे में. मेरी किताब में इस बात का जिक्र भी है. इसलिए सोचा कि आज गलत होगा वहां जाना. उन लोगों (न्यूयॉर्क टाइम्स) ने कहा कि आज तो हम वायर से खबर छाप देते हैं लेकिन आप बोधगया चले जाइए और वहां से एक नॉन फिक्शन पीस लिख दें. बोधगया वाला पीस आपने प्रभात खबर में छाप ही दिया है. बोधगया के बाद मैं रांची गया. मेरे पिताजी शायद मेरे पीस पढ़ रहें हैं. उन्होंने खुद तय कर लिया (मैंने कहा नहीं) कि झारखंड में जहां मैं बच्चा था, वहां जायें. उन्होंने पूरा कार्यक्रम खुद बना लिया था. तो हम रांची पहुंचे और वहां से चाईबासा और फिर जादूगोड़ा.
वह बोले, टू बी क्वाइट ऑनेस्ट, मैं सोच रहा था कि यहां से लोग जाते हैं अमेरिका और वे मिलते हैं प्रोफेसर्स से जो थोड़े से लेफ्ट टेंडेंसी के होते हैं. लिबरल आर्ट्स एजुकेशन में अमेरिकन यूनिवर्सिटीज में या तो लेफ्टिस्ट या लिबरल प्रोफेसर होते हैं. जेएनयू का 1000 गुना…तो मैं सोच रहा था कि उपन्यास या कहानी में एक देसी यहां से अमेरिका जाता है तो वहां उसकी मुलाकात होती है एक चीनी लड़की से. चीनी लड़की यह जानती है कि जब यह लड़का बड़ा हो रहा था रांची में तो उसके घर के बाहर सड़कों पर लिखा रहता था सत्तर के दशक में, चेयरमैन माओ इज आवर चेयरमैन. उसे बड़ा अजूबा–सा लगता है और वह झारखंड आती है अपने पीएचडी थीसिस वर्क के सिलसिले में. यह जानने के लिए आइिडयोलॉजी एक जगह से दूसरी जगह जाते–जाते कैसे ट्रांसलेट होती है और उसमें कैसे परवर्जन आते हैं. इसीलिए मेरी चाह थी कि रांची में जरा नक्सल बेल्ट में जायें.
आप जादूगोड़ा भी तो गये थे, मैं उन्हें इंटरप्ट करता हूं. वह जादूगोड़ा पर आ जाते हैं. कहते हैं– जादूगोड़ा वह जगह है, जहां मैंने साइकिल चलाना सीखा. मैं 40 बाद साल वहां लौटा. यह एक नॉस्टैलजिया ट्रिप है. लेकिन मेरी नॉस्टैलजिया को किसने बरबाद कर दिया. जो कुछ देखा हिल गया. मुझे एक लड़का मिला, जो साइकिल की रिपेयर शॉप चलाता है. उसके पांव डिफॉम्र्ड थे. उसके पिता ने बताया कि 14 बार पांव टूट चुके हैं. यदि इसके पैर पर हवा भरने का पंप भी गिर जाये, तो फ्रैक्चर हो जायेगा. यूरेनियम का असर है. रेडिएशन से उसके पांव ऐसे हो गये. आज उसे डिसएबिलिटी पेंशन मिलती है 200 रु पये की. लेकिन किसी कंपनी की वजह से, पर्यावरण प्रदूषण की वजह से अमेरिका में ऐसा होता तो जनता खड़ी हो जाती लेकिन यहां.. मैंने अपने पिताजी पूछा. उन्होंने बताया, लोगों का कहना है कि यह फैक्ट्री से हुआ है, लेकिनक्या हो सकता है.
वह याद करते हैं, काफी पहले मैंने आनंद पटवर्धन की फिल्म में एक छोटा–सा दृश्य देखा था, जिससे पता चला कि यूरेनियम प्वाइजनिंग कोई चीज होती है. अभी कुछ दिन पहले शायद कोई रिपोर्ट या कोई तसवीर देखी थी जिससे मुझे महसूस हुआ कि कुछ लोगों ने यह प्रश्न उठाया था. लेकिन सालों बीत गये, कुछ हुआ नहीं. तो मैंने भी सोचा कि जरा जादूगोड़ा जाकर देखूं. ऐसे तो कोई भी यह सोचेगा कि भाई यूरेनियम प्वाइजनिंग को रोकना चाहिए. लेकिन मैंने वहां जो देखा, वह विचलित करने वाला था– 24 साल की उम्र की एक लड़की से मैं मिला, जिसके दो छोटे भाई–बहन हैं, जो यूरेनियम प्वाइजनिंग से पीड़ित थे और वह उनकी देखभाल करती है. वह स्वाभाविक खुलेपन के साथ बोली कि यदि मैं कहीं भाग गयी, मुझे किसी से प्यार हो गया और मैं कहीं चली गयी, तो इन लोगों का क्या होगा. मुझे बड़ा प्रैक्टिकल–सा सवाल लगा. तो हम लोग जाकर डिवीजनल कमिश्नर से मिले कि इनके लिये क्या हो सकता है. उन्होंने (डिवीजनल कमिश्नर) कहा कि वे देखेंगे क्या हो सकता है. उनका बीपीएल कार्ड जारी करवा देंगे. लेकिन मैं सोचता हूं कि कितने ऐसे लोग होंगे..
वह कहते हैं, वो जो पुरानी कहानियां 70 के दशक में या बाद में भी देखने को मिलती थीं.. महाश्वेता देवी की. कि आदिवासी हैं, कांट्रैक्टर हैं.. दिकू पुलिस अफसर है.. उससे शायद हम दूर आ गये हैं. आदिवासी पावर में हैं, इसलिए पहले वाला माहौल तो बदल गया शायद, लेकिन बेसिक स्ट्रक्चर में कुछ बदला या नहीं, मैं नहीं जानता. जादूगोड़ा में जब मैं जा रहा था, मेरे साथ एक आदिवासी था. एक महिला कपड़े धो रही थी, उसने पूछा ये लोग कौन हैं. वह आदिवासी बोला, मेहमान हैं. वह बोली, तो इन्हें धूप में क्यों ले जा रहे हो, अंदर ले जाओ, चाय पिलाओ. हमने वहां चाय पी. यह ग्रेस, सामान्य सभ्यता का ग्रेस. एक जगह हमने दुकान पर चाय पी. उसने पैसा नहीं लिया. उसने कहा कि आप मेहमान हैं, आपसे पैसा कैसे ले सकते हैं.
फिर अमिताभ कुमार आ जाते हैं खूंटी पर- खूंटी में मैं मिला डिप्टी कमिश्नर से. वह मैथमैटिशियन था. यंग, स्मार्ट एंड आइडियलिस्ट. उसका नाम था मुकेश कुमार या ऐसे ही कुछ. हमने उससे पूछा कि यहां क्या चुनौती है, आप क्या करना चाहते हैं. वह बोला, यहां की सबसे बड़ी चुनौती है डिलेवरी मैकेनिज्म. लोगों तक एक्सेस नहीं है.. तो जिस जगह के बारे में हम इतना ही सब जानते थे कि जब हम एक महीने के थे, तब मुझे लाया गया था. मेरी दादी जी भी थीं. कितना मैं रोता था. मेरे दादा जी मुझे घुमाते थे. मेरे पिता जी एसडीओ थे और उसी घर में रहते थे, जहां वो डिप्टी कमिश्नर रहता है. उस घर से अब कुछ और मेमोरी जुड़ गयी. उस ऑफिसर का.. कि उसकी कोशिश क्या है, वह क्या कर रहा है. लोग कहते हैं कि फलां जगह मत जाइयेगा डेंजरस है, लेकिन वह जाता है. कितने लोग आते हैं, वह ऑफिसर बहुत ओपन है, सबसे मिलता है. लोग भी बहुत ओपन हैं. वे अपनी जरूरत बताते हैं कि उनको क्या चाहिए. बहुत उम्मीद का माहौल लगता है.
अब अमिताभ बोधगया की चर्चा करते हैं- हर जगह के बारे में चुनौती है न! इसके बारे में लिखा कैसे जाये. मैं जब बोधगया गया, तो एक चीज देखी कि सब लोग.. मेरे साथ एक जर्नलिस्ट था. उसने मेरे लिये पराठा खरीदा और चाट खायी. उसने कहा कि यह टेरर टूरिज्म है. सोनिया गांधी जब आयेंगी तो खिंचा हुआ चेहरा दिखायेंगी. बिल्कुल नहीं मुस्करायेगी. क्योंकि वह टेरर टूरिज्म के तहत आ रही हैं. मैंने सोचा कि मुस्करा कौन रहा है? बुद्ध भगवान मुस्करा रहे थे. मुझे एक थीम मिली. मंदिर कमेटी के बौद्धिस्ट सेक्र ेटरी जो थे, वह भी मुस्करा रहे थे. वह कह रहे हैं कि नौ ब्लास्ट हुए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. एक बम तो डीजल टैंक के नीचे था फिर भी कोई नुकसान नहीं हुआ. वह मुस्करा रहे थे. वहां डॉक्टर जो था, उसके पास गया. वह भी मुस्करा रहा था. मैंने पूछा कि आपने क्या ट्रीटमेंट किया. वह बोला कि हमने स्लाइन वाटर से धोया और फिर सिल्वर डायफायाजीन (ऐसा ही कुछ नाम था) वो लगा दिया. एक हफ्ते में निकल जायेंगे. ये लोग बहुत खुश हुए. हमने कहा कैसे, वह बोला हम मैगी नूडल सबको खिलाये. काफी लोग मुस्करा रहे थे. एक दो लोग नहीं मुस्करा रहे थे..सोनिया गांधी नहीं मुस्करा रही थीं. मैने देखा एक कुत्ता है लैब्राडोर जिसे लाल फीता पहना कर घुमाया जा रहा था. मैं उस पुलिसवाले के पास गया और पूछा..ऐ भाईजी कुतवा का नाम क्या है..डिम्पी..डिम्पी, लवली, जॉनी. खैर.. बुद्ध की दूसरी मूर्ति के पास एक बच्चा गुजर रहा था. उससे पूछा, उसने कहा कि पाकिस्तान ने किया है जी. और मुस्करा दिया.
बातचीत में अमिताभ बार–बार अपनी किताब पर आ जाते हैं. शायद उनको यह बात कचोटती है कि उनके अपने शहर पटना ने मैटर आफ रैट्स (पटना पर उनकी पुस्तक) के विमोचन में रुचि नहीं ली. वह साफ–साफ कहते हैं– मैं यह बात आपके पाठकों से कहना चाहूंगा कि मेरे पब्लिशर ने दिल्ली, बेंगलुरु व मुंबई में रिलीज का इंतजाम किया, लेकिन पटना में नहीं. जबकि किताब पटना पर है. मैं इस बात का इसलिए जिक्र नहीं कर रहा कि मुझे पब्लिशर से कोई शिकायत है, लेकिन इसलिए कि वे लोग
पटना को ऐसे रीडिंग या कल्चरल सेंटर के रूप में नहीं देखते होंगे. मुझे इस बात का खेद है. शायद वह यह बात बिहार के लोगों से कहना चाहते हैं कि पटना के लेखक और आर्टिस्ट कहां हैं ..पटना अपनी पहचान खोता जा रहा है. (जारी)
अमिताभ कुमार
जन्म
17 मार्च, 1963 को बिहार के आरा में
पिता
आइसी कुमार (पूर्व आइएएस)
स्कूली शिक्षा
पटना के सेंट माइकल्स हाइस्कूल में
उच्च शिक्षा
हिंदू कालेज (दिल्ली विवि) से पॉलिटिकल साइंस में बीए
दिल्ली विवि से भाषा विज्ञान में और सायराकस विवि से साहित्य में मास्टर्स डिग्री. मिनिसोटा विवि से पीएचडी.
पुस्तकें
ए फारेनर कैरीइंग इन द क्रुक ऑफ हिज आर्म ए टाइनी बम (आतंक के खिलाफ युद्ध पर नान-फिक्शन)
होम प्रोडक्टस,
हसबैंड ऑफ ए फैनेटिक
बांबे-लंदन-न्यूयॉर्क (इंडियन फिक्शन पर आलोचनात्मक रिपोर्ट व संस्मरण),
पासपोर्ट फोटोज,
नो टीयर्स फार द एनआरआइ (कविताएं),
ए मैटर ऑफ रैट्स (ए ब्रीफ बायोग्राफी ऑफ पटना)
फेलोशिप व पुरस्कार
साउथ एशियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन का पुरस्कार लगातार तीन वर्ष तक.
नार्मन मेलर रायटर्स कालोनी के फिक्शन फेलो.
येल विवि, डार्टमाउथ कॉलेज व कैलीफोर्निया विवि (रिवरसाइड) की रिसर्च फेलोशिप.
एशियन अमेरिकन लिटरेरी अवार्ड.
संप्रति
न्यूयॉर्क के वासार कॉलेज में अंगरेजी के प्रोफेसर.