।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
दुमका के काठीकुंड के पास (वहां घने जंगल हैं) नक्सलियों ने दो जुलाई को पाकुड़ के एसपी अमरजीत बलिहार पर हमला कर उन्हें मार डाला. कुछ पुलिसकर्मी भी मारे गये. हथियार लूट लिये गये. उसी दिन राजधानी रांची में चुटिया थाना (जो बीच शहर में है) के सामने पीएलएफआइ के उग्रवादियों ने एक ठेकेदार को मार डाला. 21 जून को जमशेदपुर में अपराधियों ने थोक व्यवसायी की हत्या कर दी थी.
ये तीनों घटनाएं ये बताती हैं कि झारखंड के हालात क्या हैं? यहां कानून-व्यवस्था कैसे ध्वस्त हो गयी है? पुलिस खुद सुरक्षित नहीं है, तो जनता की सुरक्षा कैसे करेगी? राज्य में चुनी गयी सरकार हो या राष्ट्रपति शासन, नक्सलियों या अपराधियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. जब चाहा, जिसे चाहा, जहां चाहा, वहां मारा. सत्ता को दी सीधी चुनौती.
एसपी को मारा, डीएसपी को मारा, सांसद-विधायक को मारा. जो जनता उसकी बात नहीं सुनती, बात नहीं मानती, उसे भी मार देते हैं. राज्य में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है. सरकार इसे स्वीकार नहीं करती हो, पर है तो यह सोलह आने सच. चार दिन पहले की एक घटना याद कीजिए. नक्सली बंदी थी.
पुलिस ने रात में सुदेश महतो (जिनके साथ बड़ी संख्या में कमांडों रहते हैं) को भी जमशेदपुर से रांची नहीं आने दिया. डर और आतंक का यह है आलम. किसी डीसी-एसपी या अन्य बड़े अधिकारियों की मजाल की वह रात में जिला मुख्यालय से बाहर चले जायें, वहां रुक जायें. गलती उनकी नहीं, बल्कि माहौल की है. उस माहौल की, जिसे सुधारने की जिम्मेवारी भी तो इन्हीं अधिकारियों की है.
हालत को देखिए-समझिए. अधिकारी मजबूर हैं. पुलिस लाचार है. राजनेता कोई जोखिम नहीं लेना नहीं चाहते. बोलते नहीं हैं. कार्रवाई की बात तो छोड़ ही दीजिए. रात में अधिकांश सड़कों पर वाहन नहीं चलते. कोई घटना घट जाये, पुलिस को सूचना मिल भी जाये, तो रात में वह मूव नहीं करती. हमले के डर/आशंका से. जिस राज्य में पुलिस अधीक्षक सुरक्षित नहीं हैं, उस राज्य की जनता को कैसे विश्वास दिलाया जाये कि वह सुरक्षित है. जनता भयभीत है. उसे अब पुलिस पर भरोसा नहीं रहा.
एसपी का मारा जाना कोई मामूली घटना नहीं है. इससे पुलिस के मनोबल पर फर्क पड़ता है. पुलिस का इतना बड़ा खुफिया तंत्र है, पर हमला हो गया. क्या सूचना तंत्र ध्वस्त हो गया है? कैसे नक्सलियों के सूचना तंत्र पुलिस के खुफिया तंत्र से ज्यादा सटीक हैं. जिस गाड़ी से एसपी जा रहे थे, उस पर लाल बत्ती नहीं लगी थी. बिना नंबर की स्कॉरपियो थी. बोलेरो पर पुलिस थी. हमला हुआ इन्हीं गाड़ियों पर. यानी नक्सलियों को पल-पल की सूचना थी.
यह हमला मिनटों की योजना पर नहीं ही हुआ होगा. इतने बड़े हमले के लिए जरूर नक्सलियों ने योजना बनायी होगी, पर राज्य सरकार के खुफिया विभाग को इसकी भनक तक नहीं लगी. पुलिस के मूवमेंट की खबर कैसे बाहर आ जाती है, कौन लीक करता है, यह एक गंभीर सवाल उभरा है.
राज्य के बड़े हिस्सों पर नक्सलियों का राज चलता है. उनका शासन है. बगैर उनकी मर्जी के कोई योजना नहीं शुरू हो सकती. प्रशासन पंगु है, लाचार है. दूरदराज के इलाकों में अधिकारी-कर्मचारी या आम जनता नक्सलियों के रहमो-करम पर जिंदा हैं. अब शहर भी बचा नहीं रहा. बीच राजधानी में पीएलएफआइ के उग्रवादी आकर थाना के सामने ठेकेदार की हत्या कर चल देते हैं. पुलिस कुछ नहीं कर पाती. ये सारी घटनाएं रात में नहीं, बल्कि दिन में घट रही हैं. कहीं न कहीं सिस्टम में दोष है. अधिकारियों के काम करने के तरीके में दोष है.
जमशेदपुर में व्यवसायी की हत्या होती है, शहर बंद होता है, पर पुलिस अपराधियों को पकड़ नहीं सकती. यह विभाग बना ही है अपराध पर नियंत्रण के लिए. मूल काम ही नहीं होता. बाहर की बात छोड़ दीजिए. खुद पुलिस विभाग के बड़े अफसर अपने मातहत अफसरों से परेशान हैं. हाल ही में एक आइपीएस अफसर (एएसपी) ने राज्यपाल के सलाहकार को बीच बैठक में लगभग रोते हुए कहा था कि कैसे एक दारोगा उसे परेशान कर रहा है.
अगर एएसपी, एसपी, डीआइजी, आइजी को दारोगा-सिपाही तबाह करने लगे, तो अराजकता का पता चलता है. कोई जूनियर अफसर अगर अपने सीनियर अफसरों के खिलाफ इस तरह खड़ा होता है, तो कहीं न कहीं उसे बड़े अधिकारियों या राजनीतिज्ञों का सहयोग मिला होगा. ऐसे हस्तक्षेप अगर होते रहें, तो पुलिस विभाग अपना काम नहीं कर पायेगा. वही अभी हो रहा है. पुलिस को अपनी छवि सुधारनी होगी. एक घटना के बाद सैकड़ों निर्दोष लोगों को पुलिस पकड़ लेती है. पीटती है, जेल में भर देती है. असली अपराधी पकड़ा नहीं जाता. इसका नतीजा यह होता है कि ग्रामीण पुलिस के खिलाफ खड़ा हो जाते हैं, नक्सलियों को इसका लाभ मिलता है.
रोज सुनता हूं कि अगर अपराध हुआ तो यह कार्रवाई होगी. अगर देवघर की घटना को छोड़ दिया जाये, तो कहां होती है कार्रवाई? देवघर मामले में बड़े अफसर हटाये गये. ऐसी ही कार्रवाई और रोज-रोज के कामों में हस्तक्षेप बंद करने की जरूरत है. अब समय आ गया है, जब पुलिस विभाग को नये सिरे से चुस्त-दुरुस्त किया जाये. विभागों के पास अगर साधन नहीं है, तो साधन दिया जाये, पर पुलिसकर्मियों को अपने दायित्व का निर्वाह करना होगा.
दरअसल भ्रष्टाचार/वसूली ने अधिकांश पुलिसकर्मियों के काम करने के जुनून पर जंग लगा दिया है. जो कुछ अच्छे अधिकारी हैं, उन्हें विभाग से ही प्रताड़ित किया जाता है. जब तक यह सब बंद नहीं होगा, कानून-व्यवस्था नहीं सुधरेगी. सही जगह पर सही लोगों को बैठाना होगा. जो काम नहीं करनेवाले अफसर हैं, उनके बारे में सरकार को सोचना होगा. सिर्फ बोलने और धमकाने से काम नहीं चलेगा, कार्रवाई करनी होगी. जनता को सुरक्षा देने की जिम्मेवारी सरकार की है और सरकार अपने दायित्व से भाग नहीं सकती.