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धुआं-धुआं होती जिंदगी

एक वक्त था, जब बीड़ी पीने के शौकीन भी थे और बनानेवाले कारीगर भी. बीड़ी बनानेवाले हाथों में गजब की फुर्ती होती थी और काम में नफासत भी. बीड़ियों की किस्में भी थीं. छोटी बीड़ी, बड़ी बीड़ी, नाखुनी बीड़ी, चक्कू बीड़ी वगैरह. उनकी मांग भी थी. नाखुनी बीड़ी बनानेवाले कारीगर अपनी कला में ज्यादा माहिर […]

एक वक्त था, जब बीड़ी पीने के शौकीन भी थे और बनानेवाले कारीगर भी. बीड़ी बनानेवाले हाथों में गजब की फुर्ती होती थी और काम में नफासत भी. बीड़ियों की किस्में भी थीं. छोटी बीड़ी, बड़ी बीड़ी, नाखुनी बीड़ी, चक्कू बीड़ी वगैरह. उनकी मांग भी थी.

नाखुनी बीड़ी बनानेवाले कारीगर अपनी कला में ज्यादा माहिर होते थे. उंगली में लोहे का लंबा नख पहन कर बीड़ी के सिरे को कलात्मक ढंग से महीन मोड़ देते थे. ऐसी बीड़ी में कसाव होता था. चक्कू बीड़ी उसके मुकाबले कम कलात्मक होती थी. मेहनत के मुकाबले मजदूरी तो पहले भी नहीं मिलती थी, लेकिन उनकी पूछ थी. समय के साथ बीड़ी की मांग घटी. रोजगार के अवसर घटे. सरकार की उदासीनता और धंधे के जोखिम ने नयी पीढी का रास्ता बदल दिया है. वे रिक्शा चला कर खुश हैं, लेकिन बीड़ी बनाने के पुश्तैनी धंधे से तोबा कर रहे हैं. जो लोग इस पेशे में लगे हैं, वे अपनी मजबूरी गिना रहे हैं. बीड़ी कामगार कल्याण निधि अधिनियम, 1976 के तहत संचालित कल्याण योजनाओं का लाभ भी इन्हें नहीं मिल रहा. पेश है बीड़ी मजदूरों की हालत पर गया से कंचन की रिपोर्ट.

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