मिस्र की जनता ने 2011 में काहिरा के तहरीर चौक पर एक क्रांति की शुरुआत इस उम्मीद के साथ की थी कि देश को होस्नी मुबारक के अधिकनायकत्व से मुक्ति मिलेगी और एक उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना होगी.
उसकी पहली उम्मीद तो पूरी हो गयी, लेकिन नयी सरकार के गठन के एक साल बाद भी दूसरी उम्मीद पूरी न हो सकी. नये राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी के कुर्सी संभालने के एक साल पूरे होने के मौके पर आखिर जनता के सब्र का बांध फिर टूट गया और उसी तहरीर चौक से एक नयी क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया है, जिसके अंजाम पर पूरी दुनिया की नजर है. मिस्र के हालात पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
वर्ष 2011 में काहिरा के तहरीर चौक पर संपन्न हुई क्रांति ने होस्नी मुबारक के अधिकनायकत्व को इस उम्मीद के साथ समाप्त किया था कि उनके बाद एक उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना होगी. प्रक्रिया आगे बढ़ी और देश में लोकतांत्रिक ढंग से मोहम्मद मुर्सी को देश का नया राष्ट्रपति चुना गया.
लेकिन मुर्सी क्रांति की अपेक्षाओं को पूरा करने की बजाय अधिनायकत्व की दिशा में ही चल पड़े. उन्होंने भले ही 30 जून, 2012 को कोर्ट ऑफ जजेज के समक्ष राष्ट्रपति पद की शपथ लेते समय एक नये मिस्र और दूसरे गणतंत्र का दावा किया हो, लेकिन कुछ दिन बाद ही एक आदेश निर्गत कर ऐसी शक्तियां धारण करने की कोशिश की, जिससे कि वे फराओ (शहंशाह) की हैसियत में पहुंच सकें.
प्रतिक्रियास्वरूप तुरंत ही स्वर उभरे कि मुर्सी मुबारक ही हैं, इन इसलामवादियों पर विश्वास नहीं किया जा सकता और हमें लोकतंत्र चाहिए. मुर्सी अपने निर्णयों पर दृढ़ रहे और मिस्रवासियों में असंतोष का ज्वार बढ़ता गया, जो अंतत: 30 जून, 2013 को तहरीर चौक पर एक बार फिर एक ‘नयी क्रांति’ के रूप में प्रस्फुटित हुआ.
अगले दिन, यानी 1 जुलाई, 2013 को सरकार विरोधी ‘तमारूद आंदोलन’ ने मुर्सी को सत्ता से हटने और सरकारी संस्थानों को समय पूर्व राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी की अनुमति देने तथा नया संविधान लिखे जाने के लिए अल्टीमेटम दे दिया. तमारूद ने अपने बयान में कहा है कि अगर मुर्सी सत्ता छोड़ कर चुनाव करवाने की घोषणा नहीं करते हैं तो उन्हें सविनय अवज्ञा का सामना करना होगा.
इस स्थिति को देखते हुए सेना की तरफ से एक टीवी चैनल पर बयान दिया गया कि देश खतरे में है. इस स्थिति में राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी के पास सत्ता में उदारवादियों के साथ साझेदारी और समझौता करने के लिए 48 घंटे का समय है. यदि इस अवधि में उनकी सरकार कोई फैसला नहीं करती है, तो सेना देश पर अपने नियम लागू करेगी.
हालांकि, सेना की तरफ से स्पष्ट किया गया कि वह तख्तापलट करने नहीं जा रही है, लेकिन यदि राजनीतिक नेतृत्व नाकाम हुआ तो देश की जिम्मेदारी सेना अपने हाथ में ले सकती है और अपने हिसाब से भविष्य का खाका तैयार कर सकती है.
चूंकि 1952 से मिस्र की राजनीति में सेना की अहम भूमिका रही है, इसलिए सेना प्रमुख जनरल आब्देल फत्ताह अल सीसी की सभी राजनेताओं को दी गयी यह हिदायत, कि वे लोगों की सुनें और उनकी मांग पूरी करें, ऐसी किसी ताकत को माफ नहीं किया जाएगा जो अपनी जिम्मेदारी लेने से इनकार करती हो, देश में भ्रम की स्थिति पैदा करने वाली है.
राष्ट्रपति मुर्सी के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शनों की ताकत से लगभग सभी पक्ष हैरान हैं और इस बात की संभावना अधिक बन रही है कि कोई निर्णायक सियासी उथल-पुथल हो. वैसे राष्ट्रपति मुर्सी ने सेना के अल्टीमेटम को खारिज करते हुए कहा है कि वे राष्ट्रीय सुलह की अपनी योजना पर ही आगे बढ़ते रहेंगे.
जबकि तमारूद आंदोलन आधे-अधूरे कदमों को स्वीकार नहीं करना चाहता, बल्कि उसका मानना है कि मुसलिम ब्रदरहुड और उसके नुमाइंदे मुर्सी की सत्ता के शांतिपूर्वक खात्मे के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
इस आंदोलन की ताकत को देखते हुए एक पूर्व जनरल सामेह साएफ एल यजल का भी मानना है कि अब राष्ट्रपति मुर्सी के लिए एक ही रास्ता बचा है कि वे मिस्र की जनता की इच्छा का सम्मान करें. अगर मुर्सी कुर्सी छोड़ देते हैं तो इसके बाद सेना कार्रवाई कर सकती है. अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया जा सकता है.
नये आंदोलन के कई आयाम
दरअसल यह नया आंदोलन जितना सीधा और सपाट दिख रहा है, उतना है नहीं, बल्कि इसके कई आयाम हैं, जिन्हें एक साथ देखना चाहिए. इसका एक कारण तो धार्मिक है. प्रदर्शनकारी इसलामपंथी राष्ट्रपति और उनके दल मुसलिम ब्रदरहुड के लोगों की नीतियों से नाराज हैं.
इसलिए लड़ाई का एक आयाम यह भी है कि मिस्र सेक्युलर राष्ट्र के रूप में आगे बढ़े या इसलामी राष्ट्र के रूप में. मुसलिम ब्रदरहुड के मुसलिम समर्थकों और विरोधियों के बीच से एक आवाज यह भी उठी है कि अब लड़ाई देश की पहचान को लेकर है. जब से क्रांति हुई है, तब से सेक्युलर कही जानेवाली सेनाएं इस बात के लिए लड़ रही हैं कि मिस्र की पहचान इसलामिक नहीं होनी चाहिए. मगर इस दूसरे पक्ष का जोर इस बात पर है कि मिस्र की पहचान इसलामिक ही होनी चाहिए.
तहरीर चौक क्रांति की खामी
दरअसल तहरीर चौक पर 2011 में हुई क्रांति की सबसे बड़ी खामी यह रही कि इसका अपना कोई नेता नहीं था और न ही वह कोई स्वाभाविक नेता पैदा कर पायी थी. इसी का फायदा मुसलिम ब्रदरहुड जैसा कट्टरपंथी संगठन उठा ले गया.
इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि तानाशाही को समाप्त करनेवाली क्रांति के पश्चात देश को आगे ले जाने के लिए जो दो चेहरे अंतिम तौर पर सामने आए थे, उनमें एक चेहरा उसी तानाशाही वाली व्यवस्था का अंग था, जिसे क्रांति सुपुर्दे खाक कर चुकी थी और दूसरा चेहरा मुसलिम ब्रदरहुड के प्रत्याशी के रूप में मोहम्मद मुर्सी का था. मुर्सी मिस्र को मुहम्मद साहब के युग में ले जाने की मंशा रखते हैं या यूं कहें कि वे देश को रूढ़ीवादी विचारों और संस्थाओं के जरिये 1700 साल पीछे ले जाने की मंशा रखते हंै.
वास्तविकता तो यह है कि मोहम्मद मुर्सी इसलामी फासीवादी हैं, जिनका आरंभ से ही उद्देश्य रहा है मिस्र की क्रांति पर कब्जा कर उसे अपने अनुरूप ढालना. इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही शायद उन्होंने स्वयं को मिस्र के नये फराओ (शहंशाह) के रूप में स्थापित करने की कोशिश की और आदेश जारी किए कि मुबारक शासन के खिलाफ वर्ष 2011 के विद्रोह के दौरान प्रदर्शनकारियों की हत्या में शामिल अधिकारियों पर फिर से मुकदमा चलाया जायेगा, बरी हो चुके आरोपी पुन: गिरफ्तार किए जाएंगे.
उनकी सत्ता ग्रहण के बाद से की गयी सभी संवैधानिक घोषणाओं, कानूनों और शासनादेशों के खिलाफ अपील नहीं की जा सकेगी और उनके आदेश को कोई भी व्यक्ति, राजनीतिक या सरकारी निकाय रद्द नहीं कर सकेगा. यह आदेश भी दिया गया कि क्रांति, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में राष्ट्रपति को ऐसा कोई भी कदम उठाने का अधिकार होगा जो वह उचित समझे.
नागरिक असंतोष के एक साल
दूसरा पक्ष यह है कि 2011 में हुई क्रांति के परिणामस्वरूप पिछले साल हुए चुनावों के बाद मोहम्मद मुर्सी को राष्ट्रपति पद संभाले एक वर्ष पूरा हो चुका है लेकिन वे न ही राजनीतिक असंतोष को दूर कर पाये और न देश की अर्थव्यवस्था को सही रास्ते पर ला पाये.
आरंभ में उन्होंने मिस्र में स्वतंत्र चुनाव व्यवस्था को स्थापित करने, कॉप्टिक ईसाइयों और धर्मनिरपेक्ष उदारवादियों को आश्वस्त करने, मिस्र को सशस्त्र बलों के लौह कवच से निकाल कर बाहर लाने तथा उसे फिर से विकास की ओर ले जाने की रूपरेखा सुनिश्चित करने के लिए आश्वस्त किया था.
लेकिन इसके लिए यह जरूरी था कि वे स्वयं द्वारा या फिर अमेरिका समर्थित जनरलों के सहयोग व कौशल से कुछ युवा वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा पूर्व अधिनायकवाद के पोषकों (फराओनिक गार्डस) को हटा दें.
पर सच तो यह है कि वे, मुसलिम ब्रदरहुड और फ्रीडम एंड जस्टिस पार्टी होस्नी मुबारक के दौर के उस कॉकटेल को नहीं तोड़ सके, जो नौकरशाही, न्यायपालिका, पुलिस, सेना, शिक्षा, मीडिया और राजनयिक संगठनों के मध्य कामय था. मुबारक काल का अभिजात्य तंत्र उनके इर्दगिर्द एक ‘डीप गवर्नमेंट’ की तरह तो कार्य करता ही रहा, साथ ही मिस्र में कट्टरपंथी इसलामवाद का प्रभाव भी बढ़ा. इसलिए प्रतिक्रिया तो होनी ही थी.
मिस्र की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था
क्रांति के बाद मिस्र की अर्थव्यवस्था काफी लड़खड़ायी. 2010 तक मिस्र का विदेशी विनिमय रिजर्व 36 बिलियन डॉलर था, पर जनवरी, 2012 में 16.3 बिलियन डॉलर पर पहुंच गया. फरवरी, 2012 में रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने मिस्र की क्रेडिट रेटिंग को घटा कर बी प्लस से बी कर दिया था, जबकि 2013 में इसके लांग टर्म क्रेडिट को घटा कर बी माइनस से सीसीसी प्लस कर दिया गया और शॉर्ट टर्म क्रेडिट को बी से घटा कर सी कर दिया गया.
यह वास्तव में इस चिंता को व्यक्त करता है कि होस्नी मुबारक को हटाने के दो वर्ष बाद भी मिस्र अपने वित्तीय लक्ष्यों और सामाजिक शांति को बनाये रख पाने में असफल रहा है.
मिस्र में जनसांख्यिकीय संरचना
मिस्र में सबसे बड़ा नृजातीय समूह इजिप्शियन ही है जो कुल जनसंख्या में 91 प्रतिशत की भागीदारी रखता है. इसके अतिरिक्त नृजातीय अल्पसंख्यक हैं जिनमें अबाजा, तुर्क, ग्रीक, पूर्वी रेगिस्तान तथा सिनाई प्रायद्वीप में रहने वाले बद्दू अरब जनजाति के लोग और बर्बर भाषा बोलने वाले सिवि (अमाजिग) आते हैं.
धार्मिक रूप से मिस्र में सुन्नी मुसलमान अधिसंख्यक हैं. लेकिन कुल मिला कर देश में 90 प्रतिशत मुसलिम जनता है, नौ प्रतिशत कॉप्टिक ईसाई तथा एक प्रतिशत अन्य ईसाई हैं. कॉप्टिक ईसाई यह कदापि नहीं चाहते कि मिस्र में कट्टरपंथी व्यवस्था आये और यही वह समुदाय है जो यूरोप व अमेरिका से मिस्र की राजनीतिक को सीधे जोड़ता है.
मिस्र की राजनीतिक संरचना
मिस्र अर्ध-अध्यक्षीय व्यवस्था के साथ रिपब्लिक आधारित राज्यव्यवस्था वाला राष्ट्र है. वहां की संसद द्विसदनीय है, जिसमें शूरा परिषद 6 वर्ष के लिए चुनी जाती है और प्रतिनिधि सभा पांच वर्ष के लिए. प्रतिनिधि सभा के लिए 2013 के आरंभ में चुनाव हुए थे, जबकि शूरा परिषद के लिए एक वर्ष के अंदर चुनाव होने हैं.
मार्च, 2011 के जनमत के बाद निर्मित नये रेग्यूलेशन के पश्चात राष्ट्रपति को चार-चार वर्ष की दो पदावधियों के लिए न्यायपालिका के पर्यवेक्षण में सम्पन्न हुए चुनाव द्वारा चुना जा सकता है.
मुसलिम ब्रदरहुड
मुसलिम ब्रदरहुड (अथवा द सोसाइटी ऑफ मुसलिम ब्रदर्स) अरब दुनिया का एक प्रभावी एवं बड़ा इसलामी कट्टरपंथी आंदोलन है जो अधिकांश अरब देशों में सबसे बड़ा विपक्षी संगठन भी है. इसकी स्थापना इसलामी स्कॉलरों एवं स्कूल टीचर असन-अल बन्ना द्वारा अखिल इसलामवादी (पैन इसलामिक), धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन के रूप में मिस्र में 1928 में की गयी.
द्वितीय विश्व युद्ध के समापन के बाद इसके सदस्यों की संख्या दो मिलियन के आसपास पहुंच गयी. यह आंदोलन अतीत की इसलामी दुनिया में जीता है. इसे राजनीतिक हिंसा, हमास की स्थापना में उत्तरदायित्व के लिए जाना जाता है. होस्नी मुबारक शासनकाल में यह पूरी तरह से प्रतिबंधित रहा, लेकिन अब यह पुन: अपना प्रभाव बढ़ाने में कामयाब हो रहा है.
भारत से मिस्र का ऐतिहासिक रिश्ता
भारत से मिस्र के ऐतिहासिक सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संबंध रहे हैं. ईसा से पूर्व और बाद की सदियों से लेकर आधुनिक काल तक भारत के आर्थिक, सांस्कृतिक एवं इतिहास के निर्माण में मिस्र किसी न किसी प्रकार से जुड़ा रहा.
अगर पेरिप्लस ऑफ इरीथ्रियन जैसे ग्रंथ दोनों के मध्य व्यापार की जानकारी देते हैं तो मुजरिस और अरकामेडु जैसे बंदरगाहों से मिली वस्तुएं सांस्कृतिक विरासत को पेश करती हैं. मध्यकाल में तो भारत मिस्र से सीधे जुड़ा रहा, क्योंकि लंबे समय तक भारत के सुल्तान मिस्र के खलीफा को संप्रभु मान कर शासन करते रहे.
1955 में भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मिस्र के गमेल अब्दुल नासिर के साथ मिल कर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की बुनियाद रखी और भारत की कूटनीति में एफ्रो-एशियाई ब्रदरहुड का अध्याय जुड़ा.
– डॉ रहीस सिंह –