।। मनोज सिंह ।।
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लगातार कम होता गया वाम दलों का जनाधार
।। मनोज सिंह ।। रांची : झारखंड गठन से पहले के विधानसभा चुनाव में बिहार में वाम दलों की अपनी पहचान थी. एकीकृत बिहार में सदन में वाम दलों के 14 विधायक हुआ करते थे. राज्य बंटवारे के पूर्व के चुनाव (2000) में माले के छह, सीपीएम के दो, सीपीआइ के पांच विधायक चुने गये […]
रांची : झारखंड गठन से पहले के विधानसभा चुनाव में बिहार में वाम दलों की अपनी पहचान थी. एकीकृत बिहार में सदन में वाम दलों के 14 विधायक हुआ करते थे. राज्य बंटवारे के पूर्व के चुनाव (2000) में माले के छह, सीपीएम के दो, सीपीआइ के पांच विधायक चुने गये थे. निरसा से मासस के विधायक गुरुदास चटर्जी थे. राज्य गठन के पहले ही उनकी हत्या हो गयी थी. इसके बाद उप चुनाव में उनके पुत्र अरूप चटर्जी जीते थे.
झारखंड राज्य के पहले सदन में वाम दलों के विधायकों की संख्या पांच थी. इसमें माले के महेंद्र सिंह बगोदर का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. भाकपा के भुवनेश्वर प्रसाद मेहता बरकट्टा, नाला से विशेश्वर खान और शब्बीर अहमद रामगढ़ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. विशेश्वर खान राज्य के पहले प्रोटेम स्पीकर बनाये गये थे. पांच-पांच विधायकों के साथ सदन में रहनेवाले वाम दलों की ताकत धीरे-धीरे घटती गयी.
राज्य गठन के बाद (2005) और दूसरे चुनाव (2009) में वाम दलों का जनाधार घटता चला गया. 2000 के चुनाव में झारखंड वाले इलाके में तीन सीट जीतने वाली भाकपा का पूरी तरह सफाया हो गया. 2005 के विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले तक महेंद्र सिंह हमेशा की तरह झारखंड में सशक्त विपक्ष की भूमिका में नजर आये. पूरा सदन उनकी वाकपटूता का कायल था. 2005 के चुनावी प्रक्रिया के दौरान ही उनकी हत्या हो गयी. इसके बाद बगोदर की जनता ने श्री सिंह के पुत्र विनोद सिंह को बगोदर सीट से सदन में भेजा.
2009 में वह वाम दलों से जीतनेवाले दूसरे विधायक थे. उनके साथ गुरुदास चटर्जी के पुत्र अरूप चटर्जी भी मासस की टिकट से निरसा से जीत कर आये. इसके बाद से वाम दलों का झारखंड की राजनीति में कद बढ़ाने का प्रयास जारी है, लेकिन सफलता नहीं मिली है. इस बार फिर वाम दलों ने करीब-करीब सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारा है. कई सीटों पर एक-दूसरे का समर्थन भी कर रहे हैं.
कुछ सीटों पर दोस्ताना संघर्ष भी है. 2009 के चुनाव में करीब आधे दर्जन सीटों पर वाम दलों के प्रत्याशी दूसरे या तीसरे स्थान पर रहे थे. इस बार सभी वाम दलों का मानना है कि 2015 के सदन में उनकी अलग भूमिका होगी. वे सशक्त विपक्ष के रूप में नजर आयेंगे. माकपा और भाकपा का विधानसभा के अंदर खाता 10 साल से नहीं खुला है.
भाकपा ने जहां-जहां प्रत्याशी उतारे थे, वहां उसे 2005 में 9.19 फीसदी मत मिले थे. 2009 में यह घट कर 7.97 हो गया. 2005 में पार्टी ने 15 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था. 2009 में यह घट कर आठ हो गया है. इस बार पार्टी ने 25 उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का निर्णय लिया है. यही स्थिति माकपा की भी है. 2005 की तुलना में मतों में 2009 में करीब दो फीसदी कमी आयी है.
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