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इंदिरा ने हिंदुस्तान को नया आयाम दिया

इंदिरा गांधी को बीसवीं सदी की विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली महिलाओं में गिना जाता है. एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश और देशवासियों को गर्व के कई मौके उपलब्ध कराये. हालांकि कुछ फैसलों को लेकर उनकी व्यापक आलोचना भी हुईं. आज जन्मदिन पर देश के लिए इंदिरा गांधी के योगदान को समझने की एक […]

इंदिरा गांधी को बीसवीं सदी की विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली महिलाओं में गिना जाता है. एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश और देशवासियों को गर्व के कई मौके उपलब्ध कराये. हालांकि कुछ फैसलों को लेकर उनकी व्यापक आलोचना भी हुईं. आज जन्मदिन पर देश के लिए इंदिरा गांधी के योगदान को समझने की एक कोशिश.

अगर राजनीतिक रूप से लिये गये इंदिरा गांधी के कुछ फैसलों को छोड़ दें तो उन्होंने भारत-निर्माण में अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत को बहुत अच्छी तरह से आगे बढ़ाने का काम किया. इंदिरा गांधी के समय में ही भारत में ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ. प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा के मौजूदा नजरिये से देखें, तो इस हरित क्रांति का बहुत महत्व है और यही वजह है कि हमारी पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश में फिर से हरित क्रांति की अलख जगाने की बात कर चुकी हैं.

भारत में सबसे पहले परमाणु परीक्षण का श्रेय भी उनके कार्यकाल को ही जाता है. 1974 में पहली बार इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही परमाणु परीक्षण हुआ और आधुनिक भारत के निर्माण के रूप में यह एक ऐसी परिघटना के रूप में दर्ज है, जिसने सामरिक रूप से हिंदुस्तान को एक नया आयाम दिया. हालांकि इसी कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने एक ऐसा कदम भी उठाया, जिसे देश की जनता ने कभी नहीं सराहा. 1975 में इमरजेंसी की घटना ने भारतीय लोकतंत्र को एक बड़ा झटका दिया और इंदिरा गांधी की छवि को एक तानाशाह के रूप में सामने ला दिया. इस घटना के नजरिये से हम यह कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने न सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों को नुकसान पहुंचाया, बल्कि अपने पिता पंडित नेहरू के जनतांत्रिक विचारों का सही-सही निर्वाह भी नहीं कर पायीं. लेकिन, ऐसा क्यों हुआ, इसे यदि इतिहास की कुछ मौजूं घटनाओं से समझते हैं, तो हम पाते हैं कि उस समय एक ऐसी राजनीतिक परिस्थिति बन गयी थी, जो इंदिरा गांधी की शख्सियत पर हावी हो गयी थी.

इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहे जाने को लेकर कई सारी ऐसी बातें हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है. पहला तो यह कि वहां पुरुष पूर्वाग्रह काम कर रहा था. कांग्रेस के बड़े नेताओं के मन में था कि इंदिरा अपने पिता जैसी भूमिका कभी नहीं निभा पायेगी. अभी यह नयी-नयी प्रधानमंत्री बनी है तो इतने सारे लोगों को साथ लेकर कैसे चलेगी? नीतियों पर फैसला करने को लेकर उसका रुख क्या होगा? लेकिन इन सबके बीच से जब इंदिरा गांधी बाहर निकलीं और बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने कड़े फैसले लेने शुरू किये, तब लोगों को लगने लगा कि यह तो गूंगी गुड़िया नहीं है.

इसे हम एक दूसरे नजरिये से देखें, तो पाते हैं कि उनके पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू उनको राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित कर रहे थे और यही वजह है कि इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू की बहुत सी नीतियों को आगे बढ़ाया और उन्हें प्राथमिकता दी. गुट निरपेक्ष आंदोलन (नॉन-एलायंस मूवमेंट) उनमें से एक है. अपनी मृत्यु से एक-डेढ़ साल पहले, 1983 में इंदिरा गांधी ने एक बड़े ‘नॉन एलायंस समिट’ का आयोजन कर यह जता दिया था कि पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन को कमजोर नहीं होने देना है, बल्कि इसे और भी आगे ले जाना है. यह उनकी सशक्त छवि का ही परिचायक माना जा सकता है.

अगर इंदिरा गांधी की विदेश नीति की बात करें, तो पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन को आधार बना कर जिस तरह से इंदिरा गांधी ने नेहरूवियन विरासत का विस्तार किया, उससे इस बात का अंदाजा लगाना आसान है कि वे हर हाल में अपने पिता के नक्श-ए-कदम पर चलना चाहती थीं. लेकिन अगर वे कहीं बहकीं, तो इसे उस वक्त की राजनीतिक परिस्थितियों की विडंबना मान कर उनकी राजनीतिक मजबूरियों को भी समझा जा सकता है. हालांकि, उनकी जिंदगी में ऐसे हालातों का वक्फा बहुत ही कम रहा है, इसलिए भी हमें उनकी हर अच्छी कोशिशों और अच्छी नीतियों पर ही ज्यादा विचार-विमर्श करना चाहिए. अपने शासनकाल में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना कर इंदिरा गांधी ने वामपंथी मिजाज रखनेवाले समाज वैज्ञानिकों और दूसरे तमाम बुद्धिजीवियों को एक जगह इकट्ठा कर दिया. यह भी उनकी एक बड़ी उपलब्धि थी.

हालांकि, इतिहास इस बात की तस्दीक करता है कि इंदिरा गांधी अपने पिता जैसी जनतांत्रिक नहीं थीं, लेकिन खुद के स्तर पर न सही, अपने पिता के विचारों के स्तर पर तो वे जनतांत्रिक सोच वाली महिला ही थीं. इस बात की तस्दीक इससे भी होती है कि उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. यह बात अलग है कि उनके बाद की सरकारों ने अब तक गरीबी हटाने को लेकर कोई कारगर नीति नहीं बनायी, जिस कारण आज भी भारत में ‘गरीबी हटाओ’ के उस नारे की प्रासंगिकता बनी हुई है. यह इंदिरा गांधी की ही देन है कि गरीबी को भारत की एक कड़वी जमीनी सच्चई के रूप में उनके बाद की सभी सरकारों ने माना है.

इंदिरा गांधी के शासनकाल में कांग्रेस में एक सिंडिकेट (‘कोटेरी’ यानी एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द काम करना) काम करता था, उस सिंडिकेट से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को बाहर निकाल कर इंदिरा ने भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा दी. हाल के वर्षो में हमने देखा है कि मौजूदा कांग्रेस कुछ वैसे ही सिंडिकेट से ग्रसित रही है, उसके मद्देनजर कांग्रेस में बहुत से बदलाव करने की जरूरत है.

विदेश नीति को लेकर भारत में हमेशा से ही राजनीतिक तौर पर एक आम सहमति रही है कि मिल कर काम करना चाहिए. यही कारण है कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में सार्क सम्मेलन का सूत्रपात हुआ. हालांकि, उस वक्त वे सोवियत संघ के करीब थीं, लेकिन अपनी विदेश नीति में उन्होंने उसे हावी नहीं होने दिया. सोवियत संघ के घटनाचक्रों का भारत पर कोई विपरीत असर नहीं हुआ और वे सोवियत संघ के साथ मैत्री बनाये रखने के साथ ही अमेरिका से निडर भी होती चली गयीं. विदेश नीतियों के मामले में इंदिरा अपने पिता पंडित नेहरू की विदेश नीतियों के बेहद करीब तक जाती हैं. कुल मिला कर इंदिरा गांधी ने तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप देश को मजबूती प्रदान की. साथ ही, यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अपने पिता की विरासत को अच्छी तरह से निर्वाह नहीं किया.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

प्रो रिजवान कैसर

इतिहासकार, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली

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