* राजनीतिक अस्थिरता बनाम विकास
।। सरयू राय ।।
(भाजपा के पूर्व विधायक)
झारखंड राज्य गठन के 12-13 वर्षों में राज्य सरकारों के बनने-गिरने और राष्ट्रपति शासन लगने-हटने के सिलसिला की पृष्ठभूमि में राजनीतिक अस्थिरता के योगदान पर गौर किया जाये, तो इसके विभिन्न प्रकार और प्रारूप उजागर होते हैं.
सही मायने में नवंबर 2000 से सितंबर 2006 तक के बीच हुए सत्ता परिवर्तन में राजनीतिक अस्थिरता का कोई योगदान नहीं था. इस दरम्यान यदि शासन अस्थिर हुआ, तो यह अस्थिरता एक ओढ़ी हुई या आमंत्रित की गयी थी. एक ही दल अथवा गंठबंधन के भीतर हुए नेतृत्व परिवर्तन को राजनीतिक अस्थिरता की संज्ञा देना मुनासिब नहीं होगा. इसी प्रकार सितंबर 2006 से जनवरी 2009 के बीच हुए सत्ता परिवर्तन को भी इसी श्रेणी में रखा जाना उपयुक्त होगा.
इन दोनों में ही स्थितियों में सत्ता का परिवर्तन करने के निर्णय तत्कालीन गंठबंधनों को बरकरार रखने के लिए घटक दलों की परस्पर सहूलियत के हिसाब से लिये गये थे. अगर ये निर्णय कसौटी पर खरा नहीं उतरे, तो इसकी जिम्मेदारी राजनीतिक अस्थिरता को कम और गंठबंधन दलों के नेतृत्व की दूरगामी लक्ष्य निर्धारण नीति और सामयिक समझदारी को ज्यादा है.
सत्ता पाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रमों पर सहमति का आधार तैयार किये बिना बेमेल विचारों और भिन्न कार्य संस्कृतिवाले दलों का गंठबंधन खड़ा कर लेना प्रतिस्पद्र्धी राजनीतिक गंठबंधन को चित करने और उसके मंसूबों को कुंद करने की एक तात्कालिक रणनीति हो सकती है. व्यापक जनहित और राज्य हित में इसके दूरगामी परिणाम तभी अनुकूल होंगे, जब इसमें से परस्पर अनुकूलता, समादर और परस्पर भरोसा की भावना और भाव प्रदर्शित करने की सलाहियत को अव्यावहारिक महात्वाकांक्षा पर तरजीह मिले. केवल राजनीतिक अस्थिरता का राग अलापने से तो चले न आवे आंगन टेढ़ा वाली कहावत ही चरितार्थ होती रहेगी.