।। सुरेंद्र किशोर ।।
बिहार के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम ने सन् 1989 की याद दिला दी है. हालांकि हर एक राजनीतिक उथल -पुथल दूसरे राजनीतिक घटना क्रम से अलग होती है. पर, बिहार की ताजा राजनीतिक घटना 1989 की याद दिलाती है. दोनों के आधार व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रहे. दोनों मामलों में राजनीतिक आस्थाएं या यूं कहिए तो सामूहिक हित की भावना अधिक रही.
इसके विपरीत इस देश में आमतौर पर अधिकतर मामलों में नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण ही केंद्र और राज्यों में सरकारें गिरती रही हैं या राजनीतिक आकर्षण या विकर्षण होते रहे हैं. पर, बिहार में भाजपा और जदयू के बीच का ताजा तलाक कुछ अलग ढंग का है. सन् 1989 और 2013 में काफी हद तक समानता है. 1989 में भाजपा के विद्रोह के कारण केंद्र की वीपी सिंह सरकार गिर गयी थी.
बिहार में हुए ताजा राजनीतिक घटनाक्रम के कारण इस राज्य में भाजपा और जदयू का चुनावी भविष्य अनिश्चित-सा हो गया है. एक तरफ नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री की अपनी कुरसी दावं पर लगा दी, तो दूसरी ओर भाजपा के 11 मंत्रियों को पद से हाथ धोना पड़ा है.
सन् 1990 में एलके आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्र शुरू की थी. ऐसा उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के उद्देश्य से कार सेवकों को गोलबंद करने के लिए किया था. पर, बिहार में लालू प्रसाद की सरकार ने उन्हें बीच में ही गिरफ्तार कर लिया था. इसके बाद भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया. इस कारण वीपी सरकार गिर गयी.
मंदिर आंदोलन, मंडल आंदोलन के असर को कम करने के लिए शुरू किया गया था. वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने के उद्देश्य से सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए सीटें रिजर्व कर दी थीं. जनता दल के नेता वीपी की सरकार बाहर से कम्युनिस्टों और भाजपा के समर्थन से चल रही थी. तब वीपी सिंह मंडल आरक्षण को लागू नहीं करके अपनी सरकार बचा सकते थे. पर, उन्होंने सिद्घांतों के लिए अपनी सरकार गंवा दी.
उन्होंने कहा था कि मैंने गोल कर दिया, भले मेरी टांग टूट गयी. वीपी की यह राय थी कि समाज के कमजोर वर्गो को जिनका सरकारी नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है, उनके लिये आरक्षण के संरक्षण की सख्त जरूरत है.
उधर, भाजपा को यह महसूस हुआ कि मंडल आरक्षण से हिंदू समाज में फूट पड़ रही है. इसलिए इसे रोकने के लिए राम के नाम का सहारा लिया जाये, यानी राम के नाम पर हिंदू समाज का एकजुट किया जाये. दोनों अपनी आस्थाओं पर अडिग रहे. आडवाणी ने बाद में एक बार कहा भी था कि यदि मंडल आरक्षण नहीं होता, तो मंदिर आंदोलन भी नहीं होता.
इसके विपरीत चरण सिंह की व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने 1979 में मोरारजी देसाई की अच्छी खासी सरकार को गिरा दिया. उसके बाद कांग्रेस की मदद से चरण सिंह पीएम बन गये थे. मोरारजी देसाई व चरण सिंह विवाद में कोई सैद्घांतिक तत्व सन्निहित नहीं था. आज बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ कर अपनी अच्छी -खासी मजबूत सरकार के स्थायित्व को खतरे में डाल दिया है. क्योंकि उन्हें नरेंद्र मोदी जैसे नेता से तालमेल बिठाना मंजूर नहीं है. जदयू से भाजपा के अलग होने के कारण जदयू और भाजपा के अलग- अलग चुनावी भविष्य पर भी अपशकुन प्रकट किये जा रहे हैं.
नीतीश कुमार ने कहा है कि हम सिद्घांतों से समझौता नहीं कर सकते भले परिणाम चाहे जो भी हो, उसकी हमें चिंता नहीं है. हमने एक फैसला किया. इसमें देर होती तो स्थिति और भी खराब हो जाती. ऐसा उस देश में हो रहा है जहां केंद्र की मनमोहन सरकार खुद को बनाये रखने के लिए रोज -रोज समझौते कर रही है.
1967 से बन रही गंठबंधन की सरकारों के इतिहास पर गौर करने पर यह साफ नजर आता है कि अनेक नेताओं ने अपनी गद्दी बचाने या पाने के लिए अनेक शर्मनाक समझौते किये. दूसरी ओर यदि भाजपा को लगता है कि उसके दल के सिद्घांतों के मर्मस्थल का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व नरेंद्र मोदी ही कर रहे हैं, तो लोकतंत्र में वह ऐसा करने को स्वतंत्र है. हालांकि आखिरी फैसला जनता के हाथों में है.
अपने मर्मस्थल की रक्षा के लिए भाजपा ने बिहार में अपने 11 मंत्रियों की कुर्सियों को भी गंवा दिया. नरेंद्र मोदी को नेतृत्व पद से वंचित करके भाजपा बिहार के अपने मंत्रियों की कुर्सियों को बचा ही सकती थी. पर, उसने ऐसा नहीं किया. जदयू -भाजपा गंठबंधन में टूट इसलिए नहीं हुई कि कोई घटक या नेता सत्ता की कुछ अधिक ही मलाई चाटना चाहता था. इसलिए भी यह टूट कुछ अलग ढंग की है.
हां, एक बात में जदयू और भाजपा दोनों विफल रहे. इन्हें सद्भाव व शालीनतापूर्वक अलग हो जाना चाहिए था. ऐसा नहीं हो रहा है. दोनों पक्षों के कुछ नेताओं के बयानों ने आपसी कटुता बढ़ा दी. भविष्य में शायद कुछ और बढ़े. भाजपा पुराने जनसंघ का नया रूप है. जनसंघ व भाजपा बिहार और राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी पृष्ठभूमि के दलों से कई बार मिले और अलग हुए हैं. बिहार में तो 1967 में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में एक ऐसी मिली-जुली सरकार बनी थी, जिसमें जनसंघ, सोशलिस्ट और सीपीआइ भी थी.
सन 1970 में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में बनी मिली-जुली सरकार में सोशलिस्ट और जनसंघ भी थे. सन् 1977 में बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी. जनता पार्टी सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ सहित पांच दलों को मिला कर बनी थी. कर्पूरी ठाकुर की सरकार 1979 में इसलिए गिर गयी थी क्योंकि जनसंघ सहित कुछ घटक सरकार से अलग हो गये. 1979 के बिलगाव के बावजूद 1989 में एक बार फिर भाजपा ने केंद्र में जनता दल की सरकार बनाने में मदद की. जनता दल में समाजवादी पृष्ठभूमि के लोग ही अधिक रहे हैं.
नीतीश कुमार ने कहा है कि भाजपा में अटल-आडवाणी युग का अंत हो गया है. उनका इशारा नरेंद्र मोदी युग के आगमन की ओर था. संभव है कि निकट भविष्य में ही अटल और आडवाणी की तरह भाजपा में शालीन नेताओं का दौर आये. फिर क्या होगा यदि तब तक जदयू और भाजपा के नेतागण आपसी दुश्मनी की पराकाष्ठा पर पहुंच चुके होंगे? ऐसे अवसरों के लिए शायर वशीर बद्र ने ठीक ही कहा है कि
दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जायें, तो शर्मिंदा न हों !