
साल 2006 में राज ठाकरे का शिवसेना के संस्थापक और अपने चाचा बाल ठाकरे के ख़िलाफ़ बग़ावत करना एक सनसनीख़ेज़ फ़ैसला था.
राज ठाकरे के एक अनिश्चित भविष्य में छलांग लगाने से कुछ महीने पहले नारायण राणे अपने समर्थकों के साथ शिवसेना से अलग हो गए थे.
नारायण राणे ने उद्धव ठाकरे पर 2004 के चुनाव अभियान में सही रणनीति न अपनाने, संगठन को आगे बढ़कर नेतृत्व न प्रदान करने, पक्षपात करने और उनको अनदेखा करने का आरोप लगाया था.
उस समय राज ठाकरे ने भी इसी तरह के मुद्दे उठाते हुए कहा था कि उद्धव ठाकरे में नेतृत्व के गुणों का अभाव है.
राज ने अपनी अलग पार्टी बनाई और महाराष्ट्र की राजनीति में वह तेज़ी से उभरे और लोकप्रिय हुए. लेकिन अपनी विफलताओं के बावजूद उन्होंने कोई सबक नहीं लिया और महाराष्ट्र की राजनीति में हाशिए का खिलाड़ी बनकर रह गए.
विस्तार से पढ़िए कुमार केतकर का विश्लेषण-
उद्धव ठाकरे ने 2004 के विधान सभा चुनाव में राज ठाकरे की दावेदारी को ख़ारिज करते हुए उन्हें शिवसेना में किसी अहम भूमिका से वंचित कर दिया गया.

उद्धव ने राज ठाकरे को पार्टी में प्रचार अभियान की सामग्री तैयार करने, संगठन, महत्वपूर्ण सभाओं में संबोधन, टिकट के बँटवारे और वित्तीय योजनाओं जैसे सभी मोर्चों से अलग-थलग कर दिया था.
हालांकि महाराष्ट्र की राजनीति के क्षेत्र में राज ठाकरे उद्धव से वरिष्ठ थे, उनके पास वफ़ादार समर्थक भी थे.
वहीं दूसरी तरफ़ उद्धव को राजनीति में संकोची, सतर्क, नरम और ‘मध्यम वर्गीय’ खिलाड़ी के रूप में देखा जाता था.
लेकिन जब बाल ठाकरे ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में उद्धव को नामित करने का फ़ैसला किया तो शिवसेना के बहुत से कैडरों के लिए यह फ़ैसला चौंकाने वाला था. उद्धव लोगों के बीच बहुत ज़्यादा जाने-पहचाने नहीं थे.
बाल ठाकरे का ‘प्रभाव’

शिवसेना का जन्म सड़कों पर हुआ था और इसने वहीं अपनी लड़ाई लड़ी थी.
हालांकि बाल ठाकरे कभी ख़ुद सड़कों पर होने वाली लड़ाई या हिंसा में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं हुए, लेकिन उनके भाषणों में उकसावे की कोई कमी नहीं थी और वे अशांति को बढ़ावा देने वाले माने जाते थे.
राज ठाकरे ने सार्वजनिक भाषण की कला अपने चाचा से सीखी और उनका सटीक अनुकरण किया. लोगों के बीच धारा प्रवाह बोलने और व्यंग्य बाण छोड़ने की कला में राज ने महारत हासिल की थी.
बाल ठाकरे के लिए यह सहज था. लेकिन उद्धव अपने पिता की तरह नहीं थे.
एमएनएस का गठन
इसलिए जब राज ठाकरे यह कहते हुए शिवसेना से अलग हुए कि पार्टी ने अपनी विशेषता और शैली खो दी है, तो हज़ारों नौजवान उनकी तरफ़ आकर्षित हुए.

शिव सेना से अलग होकर राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना पार्टी बनाई.
उस समय बाल ठाकरे की उम्र 80 साल के करीब थी, हालांकि उनकी सक्रियता बनी हुई थी, लेकिन निश्चित रूप से वह बुज़ुर्ग हो चुके थे.
उस समय राज ने सोचा था कि वह शिवसेना की आत्मा को फिर से जीवंत कर देंगे और यह सिद्ध कर देंगे की वह ही बाल ठाकरे के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं.
उनके विद्रोह का समर्थन करने वालों को यक़ीन था कि राज उनके वास्तविक कट्टर संरक्षक होंगे और मराठी अस्मिता को बढ़ावा देंगे.
राज ठाकरे ने शिवाजी पार्क में हुई अपनी पहली रैली में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) का नींव रखी.
राज बनाम उद्धव
महाराष्ट्र की राजनीति में राज ठाकरे धीरे-धीरे मज़बूत होते गए और उनकी लोकप्रियता में बढ़ोत्तरी हुई.
वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चहेते थे, उनके भाषणों को चैनलों पर लाइव दिखाया जाता था. इससे चैनलों को टीआरपी मिलती थी.

अधिकांश लोगों विशेषकर मीडिया को लगता था कि उद्धव नहीं राज ठाकरे बड़े नेता हैं.
एमएनएस की सदस्यता बढ़ने लगी और राज ठाकरे ने 2009 के विधानसभा चुनाव में उतरने का फ़ैसला किया.
इस चुनाव में उनकी पार्टी को 13 सीटें मिलीं, निश्चित तौर पर पहली बार में उनकी पार्टी का प्रदर्शन चौंकाने वाला था.
लेकिन पिछले पाँच सालों में ख़ासतौर पर उनका ग्राफ़ धीरे-धीरे नीचे गिरने लगा.
उनकी आक्रामकता दिशाहीन नज़र आने लगी, उनके भाषणों में नाटकीयता थी, लेकिन उनकी पकड़ ढीली पड़ रही थी और उनके इंटरव्यू में कोई भी नया विचार नहीं आ रहा था. वह ख़ुद अपनी अनुकृति बनकर रह गए थे.
सबक से इनकार
2014 के लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे के सभी प्रत्याशियों की जमानत ज़ब्त हो गई थी, लेकिन उन्होंने कोई सबक लेने से इनकार कर दिया.
राज ने यह भी स्वीकार नहीं किया कि उनके नियंत्रण वाली नासिक नगरपालिका ने शहर में बदलाव के लिए कुछ ख़ास नहीं किया.
इस पर भी राज ठाकरे ने विधानसभा चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया. लेकिन अब तक लोगों को उनके व्यक्तित्व की परख हो चुकी थी.

लोगों को उनकी भाषणों में गरमी और धूल तो दिखी, लेकिन रोशनी नहीं, इस विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी एकमात्र सीट जीत सकी.
कहा जा सकता है कि जब तक राज ठाकरे ख़ुद का पुनर्निमाण नहीं करते, महाराष्ट्र में उनकी भूमिका हासिए वाले खिलाड़ी की रहेगी. बतौर नेता वह अपनी छवि बरक़रार रखने में विफल रहे हैं.
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