"पाकिस्तान में मेलोड्रामा देखने वाले लोग भी हैं और अच्छा ड्रामा देखने वाले लोग भी हैं."
ये मानना है पाकिस्तानी पटकथा लेखिका उमैरा अहमद का. उनके लिखे गए सीरियल ‘ज़िंदगी गुलज़ार है’ और ‘मात’ भारतीय दर्शकों को क़ाफ़ी लुभा रहे हैं.
पर उमैरा अहमद भारतीय डेली सोप के बारे में क्या राय रखती हैं ? सुनिए उन्हीं की ज़बानी.
उमैरा अहमद
एक ज़माना था जब क़रीब दस साल पहले स्टार और ज़ी टीवी के धारावहिकों ने पाकिस्तानी ड्रामे को बहुत बुरी तरह पछाड़ा था.
उस वक़्त चैनल प्रोड्यूसर्स ने हम पटकथा लेखकों को कहा कि आप हमें ‘इंडियनाइज़्ड’ चीज़ें बना के दें.
वो एक बहुत ही ख़राब दौर रहा हमारे लिए, क्योंकि उसमें कोई अच्छे और बढ़िया ड्रामे वाले शोज़ नहीं आए.
भारतीय शोज़ मज़ेदार पर लंबे
पाकिस्तान में एक तबका ऐसा भी है जो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ और ऐसे कई सीरियल देखता है और उसे बाक़ायदा फ़ॉलो भी करता है, लेकिन मैंने कभी भी ऐसे कार्यक्रम नहीं देखे.
इसकी सबसे बड़ी वजह है कि भारत के इन डेली सोप में एपिसोड्स की कोई सीमा नहीं होती. और देखिये हम टेलीविज़न दो चीज़ों के लिए देखते हैं- मनोरंजन और कुछ सीखने के लिए.
अब टेलीविज़न शो तो आधे घंटे के होते हैं तो उसमें हम ज़्यादा कुछ सीख नहीं पाते.
लेकिन भारत के गानों और फ़िल्मों से हमारा मनोरंजन हो जाता है. भारत का टेलीविज़न बहुत ज़्यादा बड़ा है पर फिर भी वो पाकिस्तान की जड़ को नहीं पकड़ पाया है और उसकी सबसे बड़ी वजह है अनगनित एपिसोड्स और कभी न ख़त्म होने वाली कहानी.
भारत से आए कई ऑफ़र
मुझे दो-तीन सालों से भारत से ढेर सारे प्रस्ताव मिल रहे हैं. शुरू में जब ज़ी एंटरटेनमेंट की शैलजा केजरीवाल से मेरी बात होती थी तो वो कहती थीं, "ज़िंदगी गुलज़ार है, का एक भारतीय संस्करण भी बनाओ और मैं कहती थी कि शैलजा हम 20 एपिसोड्स के 100 एपिसोड्स कैसे बनाएंगे? मैं तो 20 के बाद कुछ लिख ही नहीं पाऊंगी."
अगर कभी स्क्रिप्ट राइटर्स के बीच कोई बातचीत का मौका आया तो यक़ीनन मैं भारतीय लेखकों से सीखूंगी क्योंकि भारत में टेलीविज़न बहुत बड़ा है और वो इतना मशहूर है कि उसे हमारे देश के लोग भी देखते हैं. यक़ीनन उसमें कुछ न कुछ महत्वपूर्ण चीज़ें और तरीक़े होंगे जो शायद हम भी सीख सकते हैं.
(बीबीसी संवाददाता विदित मेहरा से बातचीत पर आधारित)
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