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भारतीय राजनीति में परस्पर शिष्टाचार के लगातार कम होते मामलों के बीच केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक क़ाबिलेतारीफ़ पहल की. उन्होंने इस साल का बजट पेश करने से पहले भारत के पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से मुलाक़ात कर उनसे सलाह मशविरा करने की इच्छा जताई.
जिस दौर में अपने विरोधियों के लिए सामान्य शिष्टाचार तक निभाना नेताओं के लिए मुश्किल हो चला है, वहां जेटली कुछ नया नहीं करना चाहते थे. वो तो जाने अनजाने उस परंपरा को लाने की कोशिश कर रहे थे जिसकी ढेरों मिसाल भारतीय संसद में मौजूद है.
कभी इसी भारतीय संसद में जवाहर लाल नेहरू भी थे, जो अपने विरोधी श्यामा प्रसाद मुखर्जी से माफ़ी मांगने तक की हिम्मत रखते थे.
भारतीय राजनीति में शिष्टाचार पर रेहान फ़ज़ल का विश्लेषण
अपना बजट पेश करने से पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम से सलाह मशविरा करने की पूरी कोशिश की. यह अलग बात है कि ये मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी क्योंकि तब तक चिदंबरम पूरे बोरिया बिस्तर के साथ चेन्नई शिफ़्ट हो चुके थे.
यह पहला उदाहरण नहीं था जब भारतीय राजनीतिज्ञों ने विरोधी राजनेताओं के प्रति बेहतरीन आचरण और शालीनता के उदाहरण पेश किए हैं. 1957 में जब अटल बिहारी वाजपेई पहली बार लोकसभा में चुन कर आए तो जवाहरलाल नेहरू उनके भाषणों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन ये युवा सांसद भारत का नेतृत्व करेगा.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पूर्व संपादक इंदर मल्होत्रा एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं, "श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली सरकार में मंत्री थे. जब नेहरू-लियाक़त पैक्ट हुआ तो उन्होंने और बंगाल के एक और मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया. उसके बाद उन्होंने जनसंघ की नींव डाली. आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली के नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ में बहुत कड़ी टक्कर हो रही थी. इस माहौल में संसद में बोलते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाया कि वो चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है."
नेहरू ने मांगी माफ़ी
इस आरोप का नेहरू ने काफ़ी विरोध किया. इस बारे में इंदर मल्होत्रा बताते हैं, "जवाहरलाल नेहरू समझे कि मुखर्जी ने वाइन और वुमेन कहा है. उन्होंने खड़े होकर इसका बहुत ज़ोर से विरोध किया. मुखर्जी साहब ने कहा कि आप आधिकारिक रिकॉर्ड उठा कर देख लीजिए कि मैंने क्या कहा है. ज्यों ही नेहरू ने महसूस किया कि उन्होंने ग़लती कर दी. उन्होंने भरे सदन में खड़े हो कर उनसे माफ़ी मांगी. तब मुखर्जी ने उनसे कहा कि माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है. मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि मैं ग़लतबयानी नहीं करूँगा."
1984 के चुनाव प्रचार के दौरान जादवपुर से मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सोमनाथ चटर्जी के पैर छू कर एक महिला ने उनसे आशीर्वाद मांगा. बाद में सोमनाथ चटर्जी ये सुन कर हतप्रभ रह गए कि ये महिला और कोई नहीं, उस सीट से उनकी प्रतिद्वंदी ममता बनर्जी थी जो अंतत: इस सीट पर विजयी हुईं.
उसी तरह एक दूसरे के प्रबल प्रतिद्वंदी होते हुए भी ज्योति बसु, एबीए ग़नी खाँ चौधरी को अपने परिवार का सदस्य मानते थे और बरकत दा को ‘शाहेब’ कह कर पुकारते थे. उनकी बहन हर दो सप्ताह पर ज्योति बसु के लिए बिरयानी भेजा करती थीं. कभी-कभी किन्हीं कारणों से अगर बिरयानी नहीं पहुँच पाती थी तो ज्योति बसु उन्हें फ़ोन कर कहा करते थे, "पठाओ नी केनो."
रशीद क़िदवई भी राजीव गाँधी की अपने विरोधी अटलबिहारी वाजपेई के प्रति दरियादिली की एक दिलचस्प कहानी बताते हैं.
राजीव की दरियादिली
रशीद बताते हैं, "1984 के लोकसभा चुनाव में अटलबिहारी वाजपेई अपना चुनाव हार गए थे. उन्हें अपने इलाज के लिए अमरीका जाना था, जहाँ इलाज कराना अब की तरह पहले भी बहुत मंहगा हुआ करता था. राजीव गाँधी ने उन्हें अपना विरोधी होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र जाने वाले भारतीय प्रतिनिधिमंडल का सदस्य बना कर भेजा. 1991 में जब राजीव गाँधी की हत्या हो गई तो उनको श्रद्धांजलि देते हुए वाजपेई ने ख़ुद ये स्वीकार किया कि राजीव ने उनके इलाज के लिए उन्हें अमरीका भेजा था."
भारतीय जनता पार्टी के शासन के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और उस समय केंद्रीय मंत्री प्रमोद महाजन के बीच तीखी नोकझोंक हो गई. गवर्नेंस नाऊ के संपादक अजय सिंह पत्रकार दीर्घा से ये नज़ारा देख रहे थे.
अजय सिंह कहते हैं, "मैं उस समय हाउस में था. मुझे याद है चंद्रशेखर ने प्रमोद महाजन से कहा कि आप मंत्री बनने के लायक़ नहीं हैं. इस पर प्रमोद महाजन ने तुनक कर जवाब दिया कि आप प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं थे. ये सुनना था कि वाजपेई और आडवाणी दोनों सन्न रह गए कि प्रमोद ने यह क्या कह दिया. लेकिन अगले दिन प्रमोद महाजन गए और उन्होंने चंद्रशेखर से सरेआम माफ़ी मांगी."
अजय सिंह का मानना है कि पहले की पीढ़ी के नेताओं में प्रतिद्वंदिता होते हुए भी एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव हुआ करता था जो अब नहीं रहा. वर्तमान प्रधानमंत्री ने जब अपना पद संभाला तो वो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने तो गए लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के यहाँ वो नहीं गए. उसकी पृष्ठभूमि भी यही है कि सोनिया गाँधी ने भी नरेंद्र मोदी के प्रति कटुता का भाव रखा.
नेहरू-पटेल की तकरार
यूँ तो जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल में वैचारिक मतभेद थे लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि इन दोनों में एक दूसरे के प्रति सम्मान में कोई कमी थी. इंदर मल्होत्रा याद करते हैं कि इन दोनों के बीच कई मामलों में विरोध हुआ करता था लेकिन कभी भी दोनों ने एक दूसरे के प्रति सख़्त शब्द का प्रयोग नहीं किया.
इंदर मल्होत्रा बताते हैं, "एक बार कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हो रहा था. आचार्य कृपलानी को पंडित जी सपोर्ट कर रहे थे और पुरषोत्तम दास टंडन जिन्हें नेहरू बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, सरदार पटेल के उम्मीदवार थे, जो बाद में जीते भी. असम से फ़ख़रुद्दीन अली अहमद और वहाँ के मुख्यमंत्री चालिहा दिल्ली आए हुए थे. उनसे पटेल ने पूछा कि असम में लोग किसे वोट देने जा रहे हैं. इस पर फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने कहा कि सच्चाई ये है कि जो पंडित जी हमसे कहेंगे वो हम करेंगे."
इंदर मल्होत्रा आगे बताते हैं, "तब पटेल बोले ज़रूर करो, बिल्कुल करो लेकिन एक बात याद रख लो, नेहरू न तो दोस्तों के लिए कुछ करते हैं और न ही दुश्मनों का कुछ बिगाड़ पाते हैं जबकि मैं दोस्तों को कभी भूलता नहीं और दुश्मनों को कभी छोड़ता नहीं. फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने जब ये बात नेहरू को बताई तो नेहरू ने कहा कि पटेल बिल्कुल सही कह रहे हैं."
ये तो रही विरोधियों की बात. दो नज़दीकी दोस्तों नेहरू और मौलाना आज़ाद के बीच भी तहज़ीब के उच्चतम मापदंडों का इस्तेमाल होता था.
इंदर मल्होत्रा एक और दिलचस्प क़िस्सा बताते हैं, "नेहरू और पटेल बहुत पास-पास रहते थे. नेहरू उनसे मिलने पैदल ही उनके घर जाते थे. उन्होंने पटेल को कह रखा था कि जब भी आप मुझसे मिलना चाहें, मुझे कहला भेजें, मैं ख़ुद ही आपसे मिलने आऊंगा. मौलाना आज़ाद का घर थोड़ा दूर था. इसलिए नेहरू अक्सर उनसे मिलने या गपशप करने के लिए कार से जाते थे. जब भी उन्हें मौलाना को फ़ोन करना होता था, वो ख़ुद ही उनका नंबर डायल करते थे."
बीते जमाने की बात
मल्होत्रा आगे बताते हैं, "एक बार नेहरू बेहद व्यस्त थे, इसलिए उन्होंने अपने सचिव मथाई से मौलाना का नंबर डायल करने के लिए कह दिया. मौलाना ने फ़ोन उठाते ही कहा, जवाहरलाल क्या तुम्हारी उंगलियों में दर्द होने लगा है जो तुम किसी और से फ़ोन मिलवाने लगे हो. नेहरू इसका मतलब समझ गए और हंसते हुए बोले मौलाना आगे से ये ग़ुस्ताख़ी नहीं होगी."
इस तरह के न जाने कितने क़िस्से हैं! 1971 के युद्ध के बाद अटल बिहारी वाजपेई का इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से करना, ममता बनर्जी का ज्योति बसु का हालचाल पूछने अस्पताल जाना या अमरीका से परमाणु समझौता करने से पहले मनमोहन सिंह का बृजेश मिश्रा से सलाह मशविरा करना… वग़ैरह वग़ैरह.
लेकिन हाल के दिनों में अभद्रता की संस्कृति ने भारतीय राजनीति में इस क़दर जड़ें जमाई हैं कि इस तरह की शालीनता के उदाहरण गए ज़माने की बातें लगते हैं.
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