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नीतिगत दूरदर्शिता की दरकार

मंदी, महंगाई और मॉनसून के बिगड़े मिजाज से चिंतित सरकार को बजट में देश की बहुआयामी आकांक्षाओं को संभालते हुए विकास की रूपरेखा तैयार करनी है. बजट से पूर्व लिये गये वित्तीय फैसलों से कड़े कदमों की आहट तो मिल गयी है, लेकिन बजट को आर्थिकी के कई पहलुओं को समेटना है. अर्थव्यवस्था की सेहत […]

मंदी, महंगाई और मॉनसून के बिगड़े मिजाज से चिंतित सरकार को बजट में देश की बहुआयामी आकांक्षाओं को संभालते हुए विकास की रूपरेखा तैयार करनी है. बजट से पूर्व लिये गये वित्तीय फैसलों से कड़े कदमों की आहट तो मिल गयी है, लेकिन बजट को आर्थिकी के कई पहलुओं को समेटना है.

अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के लिए जरूरी है कि औद्योगिक विकास की रफ्तार तेज की जाये. दो वर्षो से पांच फीसदी के नीचे चल रही विकास दर को सकारात्मक स्तर तक पहुंचाने के वित्त मंत्री अरुण जेटली के सूत्र तो उनके बजट-प्रस्तावों में जाहिर होंगे, परंतु उद्योग जगत ने अपनी आशाओं और अपेक्षाओं को अभिव्यक्त कर दिया है. औद्योगिक विकास के लिए बजट से लगी उम्मीदों का एक लेखा-जोखा..

भारत में आम बजट पेश किये जाने को जितना महत्व दिया जाता है, वह अनूठा है. 1991 के आम बजट में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद से इसे हर साल एक ऐसे मौके के रूप में देखा जाता है, जिसमें केंद्र सरकार से नीतिगत दूरदर्शिता की अपेक्षा की की जाती है. उस वक्त (1991 में), भारत की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही थी और आर्थिक सुधारों के नाम पर व्यापारिक एवं औद्योगिक नीतियों में क्रांतिकारी बदलाव किये गये थे.

मई, 1991 में हुए आम चुनावों के बाद पेश 1991 के आम बजट में आर्थिक सुधारों की घोषणा की गयी, जिसमें विदेशी निवेश के लिए कई क्षेत्रों के दरवाजे खोले गये, ब्याज दरों को नियंत्रण मुक्त किया गया और सार्वजनिक इकाइयों में विनिवेश की शुरुआत की गयी. विकास की समाजवादी नीतियों से पीछा छुड़ाने और आर्थिक नीतियों को बाजार के अनुकूल बनाने की कवायद के तहत बाद के वर्षो में पेश हुए आम बजटों में भी कई तरह की घोषणाएं की गयी.

यहां उल्लेखनीय है कि 1998 और 1999 में भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की ओर से पेश आम बजट में भी कई तरह की नयी पहल की गयी थी, जैसे- अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को व्यावहारिक बनाया जाना, बैंकिंग क्षेत्र को मजबूत बनाना और सोने के आयात को बैंकिंग सिस्टम से जोड़ना आदि. उस समय की आर्थिक परिस्थितियां कुछ मायनों में आज के समान थीं. मसलन- 1997-98 में एशियाई आर्थिक संकट के कारण भारत में भी जीडीपी की विकास दर गिर कर 4.3 फीसदी पर पहुंच गयी थी और सबको उम्मीद थी कि केंद्र की नयी सरकार विकास दर को तेज करने के लिए कुछ ठोस कदम उठायेगी.

उद्योग जगत की उम्मीदें

इस समय, उद्योग जगत एक बार फिर यह उम्मीद लगाये बैठा है कि बजट घोषणाओं में केवल राजकोषीय आंकड़ों की बाजीगरी भर न हो, बल्कि इसमें पिछले कुछ वर्षो से मंद पड़ रही अर्थव्यवस्था की रफ्तार को गति देने की दृष्टि भी हो. मेरा कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि बजट में राजकोषीय स्थिति और चुनौतियों को नजरअंदाज कर दिया जाये, लेकिन यह सिर्फ राजकोषीय स्थिति को बेहतर दिखाने की कवायद भर न हो.

उदाहरण के लिए, यह एक व्यापक सुझाव है कि मुद्रास्फीति, खास कर खाद्य पदार्थो की महंगाई एक ऐसी चुनौती है, जिसका समाधान तलाशे बिना अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर नहीं आ सकती. ऐसे में राजकोषीय घाटे को कम करने के उपायों से मुद्रास्फीति पर विपरीत असर पड़ सकता है. लेकिन, यदि इस संबंध में एक लक्ष्य के साथ कुछ ठोस कदम उठाने का फैसला लिया जाये, तो बजट में कृषि उत्पादों की आपूर्ति व्यवस्था में बड़े पैमाने पर सुधार की नींव रखी जा सकती है.

आपूर्ति श्रृंखला सुधारें

कृषि उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला में खामियों की वजह से देश में हर साल खाद्य उत्पादों की बड़े पैमाने पर बरबादी हो रही है. इससे आपूर्ति प्रभावित हो रही है, जिसके नतीजे कीमतों में उछाल के रूप में सामने आते हैं. इस समय कृषि उत्पादन बाजार समिति राज्य सरकार की इकाइ के रूप में काम करती है और किसानों को बाध्य करती है कि वे अपने उत्पाद एक निश्चित स्थान पर (मंडी में) लाकर उन्हें बेचें. यदि इस बाध्यता को खत्म करके कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री के एक वैकल्पिक मॉडल का विकास किया जाये, जिसमें खाद्य प्रसंस्करण एवं कृषि व्यापार से जुड़ी कंपनियों को भंडारण एवं वितरण के ढांचे के विकास में निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाये, तो इस बरबादी को बड़े पैमाने पर रोका जा सकता है. अनाजों के मामले में भी, निजी कंपनियां वेयरहाउसिंग जैसी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना कर कृषि उत्पादों को तैयार करने एवं उनके भंडारण में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं.

इसके साथ ही सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने की प्रणाली पर भी पुनर्विचार करना चाहिए और इसे इस तरह निर्धारित किया जाना चाहिए कि सिर्फ अनाज उत्पादन की जगह अन्य लाभकारी फसलों के उत्पादन को भी बढ़ावा मिले. इस तरह खाद्य पदार्थो की महंगाई को नियंत्रित करने के लिए कुछ नये सुधारों को एक साथ शुरू करने की जरूरत है.

विकास दर बढ़ाने के उपाय

विकास की गति को तेज करना भी एक ऐसी चुनौती है, जिसका सामना करने के लिए कई मोरचों पर ठोस नीतिगत फैसले लेने की जरूरत है. इसमें पहला कदम एक ऐसी व्यवस्था करना हो सकता है, जिससे नयी परियोजनाओं को मंजूरी मिलने में केंद्र या राज्य सरकार की ओर से देरी नहीं हो. निजी क्षेत्र को कोई परियोजना तभी आवंटित की जाये, जब उससे जुड़ी तमाम जरूरी मंजूरी हासिल कर ली गयी हों. डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, इंडस्ट्रियल कॉरिडोर और हाइ स्पीड ट्रेन जैसी महत्वपूर्ण एवं बदलावकारी परियोजनाओं की बाधाएं दूर करने पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है.

सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को अपने अधिशेष का निवेश अपनी क्षमता के विस्तार में करने के लिए स्वायत्तता प्रदान करने की जरूरत है. कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों, जैसे कोयला एवं खनिज आदि के विकास में बाधक बन रही नीतिगत खामियों को दूर किया जाना जरूरी है. साथ ही, प्लांट और मशीनरी में निवेश पर विशेष प्रोत्साहन देने की घोषणा भी बजट में की जा सकती है.

रोजगार सृजन का सवाल

केंद्र की नयी सरकार जिन वादों के सहारे सत्ता तक पहुंची है, उनमें अधिक संख्या में रोजगार का सृजन प्रमुख है. रोजगार सृजन के लिए भी सरकार को परंपरागत बजट घोषणाओं से आगे जाकर कुछ कदम उठाने होंगे. रोजगार सृजन के मामले में देश का रिकार्ड काफी कमजोर रहा है, खासकर पिछले कुछ वर्षो के दौरान. एनएसएस सव्रे के आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षो के दौरान सबसे ज्यादा रोजगार सृजन कंस्ट्रक्शन सेक्टर में हुआ है, जबकि मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर इसमें पिछड़ता चला गया है. जाहिर है, नये सिरे से उत्पादन संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा देने, जिसमें कम कुशल श्रमिकों के लिए पर्याप्त संख्या में रोजगार सृजन हो, के लिए नीति निर्माताओं को कुछ विशेष प्रोत्साहन उपायों पर भी विचार करना होगा.

इस कड़ी में, श्रम कानूनों को भी वक्त के साथ व्यावहारिक बनाने की जरूरत है. आज श्रम कानूनों की जटिलताओं से बचने के लिए कंपनियां अधिक से अधिक मशीनीकरण पर जोर दे रही हैं, जो नये रोजगार देने की तुलना में अधिक आसान साबित हो रहा है और इसमें श्रमिकों के काम का हिसाब-किताब रखने के पचड़े आड़े नहीं आते हैं. आज के वैश्वीकृत हो चुके बाजार के माहौल में चुनौतियों से निपटने में लचीलेपन की कोई जगह नहीं है. यही कारण है कि टेक्सटाइल और चमड़ा उद्योग जैसे श्रम सघन क्षेत्रों में सरकारी प्रोत्साहनों के बावजूद अपेक्षित प्रगति नहीं हो पा रही है.

औद्योगिक क्षेत्र में निवेश

सरकार को औद्योगिक क्षेत्र या समूहों के विकास की योजनाओं के लिए भी बजट प्रावधान करना चाहिए, जहां जरूरी सुविधाएं मुहैया करा कर निवेश का बेहतर माहौल तैयार किया जा सके. इन क्षेत्रों में भूमि के अधिग्रहण और सड़क एवं बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के विकास में सहयोगी बन कर सरकार कंपनियों की बड़ी परेशानियां दूर कर सकती हैं. ऐसे क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने के लिए तमाम जरूरी औपचारिकताएं एक साथ पूरी हो जानी चाहिए और यह मंजूरी एक निश्चित समयावधि के लिए होनी चाहिए. इसके बदले कंपनियां श्रमिकों की दक्षता के विकास में सहयोग देकर और उन्हें कम कीमत पर आवास मुहैया करा कर मदद कर सकती हैं. इस तरह के ठोस कदमों के जरिये ही घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेशकों को देश के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में निवेश के लिए आमंत्रित करने का मजबूत आधार तैयार किया जा सकता है.

(द इकोनॉमिक टाइम्स से साभार)

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