रेटिंग *
फॉक्स स्टार स्टूडियोज़ और पूजा एंटरटेनमेंट ऐंड फ़िल्म्स लिटिमेड की ‘हमशकल्स’ ग़लतियों से पैदा हुई हास्यास्पद परिस्थितियों का सहारा लेकर चलती है. सैफ़ अली ख़ान एक अमीर उद्योगपति के बेटे- अशोक सिंघानिया की भूमिका में हैं.
पिता के कोमा में होने की वजह से अशोक पर ही बिज़नेस चलाने की ज़िम्मेदारी है. अशोक का पक्का दोस्त है कुमार(रितेश देशमुख).
एक साज़िश के तहत इन दोनों को कुछ पिला दिया जाता है जिसके बाद इनकी तबियत बिगड़ती है और ये पहुंच जाते हैं पाग़लख़ाने.
फ़िल्म में ईशा गुप्ता डॉक्टर बनी हैं जिसे इस साज़िश का पता चलता है.
कहानी
साजिद ख़ान की कहानी हंसाती नहीं बल्कि बेहद हास्यास्पद है जिसे दर्शक हज़म नहीं कर पाएंगे.
चूंकि फ़िल्म एक कॉमेडी है तो शायद दर्शक एक अतार्किक कहानी को पचा लेते लेकिन कहानी इतनी ज़्यादा बेवकूफ़ी भरी है कि इसे कई जगह पर हज़म करना मुश्किल है.
हमशक्लों का जो इस्तेमाल किया गया है वो इतना ज़्यादा खींचा हुआ है कि पूरी तरह बनावटी लगता है. उससे भी ज़्यादा बेवकूफ़ाना है उनका इतनी आसानी से एक दूसरे से मिलना.
चूंकि साजिद ख़ान की कहानी का आधार ही इतना क़मज़ोर है कि पटकथा का लड़खड़ाना तय था.
साजिद ख़ान, रॉबिन भट्ट और आकाश खुराना ने ऐसी पटकथा लिखी है जो दर्शकों को हल्के में लेती है.
ऐसा लगता है कि इन लोगों ने ये मान लिया है कि दर्शक कॉमेडी के नाम पर परोसी गई किसी भी चीज़ को स्वीकर कर लेंगे, चाहे वो कितनी ही बेकार क्यों ना हो.
ना सिर्फ़ ड्रामा बेहद धीमी गति से आगे बढ़ता है बल्कि बहुत दोहराव भी है. कुछ दृश्य इतने लंबे खिंचे हैं कि दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेते हैं.
कुछ बातें तो ऐसी हैं जो सिर के ऊपर से गुज़र जाती हैं. दर्शकों को हंसाने की बनावटी कोशिश फ़िल्म के पहले दृश्य से ही नज़र आती है और ये बहुत खीझ पैदा करता है.
निर्देशन
साजिद ख़ान के निर्देशन में वो असर नहीं है. एक क़मज़ोर सी बेकार पटकथा के चलते वो फ़िल्म में जान डालने में बिल्कुल नाकाम रहे.
हिमेश रेशमिया का संगीत अच्छा है. ख़ासकर कॉलर ट्यून वाला गाना काफ़ी अपील करता है.
साजिद ख़ान और अधीर भट्ट के लिखे संवादों के नाम पर बहुत ही सीमित जगहों में कुछ बातें हंसानी हैं. कुछ संवाद सिर्फ़ एक ख़ास दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर डाले गए हैं जो शायद उन्हें ही हंसा पाएं.
फ़िल्म की एडिटिंग और ज़्यादा बेहतर और कसावट भरी हो सकती थी.
अभिनय
सैफ़ अली ख़ान को जो किरदार दिया गया है वो उसमें बिल्कुल भी फ़िट नहीं बैठते हैं. वो ख़ुद एक ख़ास वर्ग के दिखते हैं जबकि किरदार आम दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा गया है.
अशोक सिंघानिया के तौर पर वो ठीक दिखते हैं लेकिन कुछ दृश्यों में उनकी असहजता साफ़ नज़र आती है ख़ासकर तब जब वो एक बच्चे का अभिनय करने की कोशिश करते हैं.
रितेश देशमुख बिंदास अभिनय करते हैं लेकिन कुछ सीन में उनकी भी असहजता दिख जाती है. राम कपूर ठीक हैं लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें उनकी क्षमता से ज़्यादा रोल दे दिया गया है.
तमन्ना भाटिया का अभिनय अच्छा है. डॉक्टर बनी ईशा गुप्ता अच्छी हैं. बिपाशा बासु के हिस्से में जो रोल है उसे उन्होने अच्छा निभाया है.
कुल मिलाकर हमशकल्स के कुछ हिस्से आपको हंसाते हैं लेकिन ये एक उबाऊ फ़िल्म है. बेहद बनावटी, दोहराव से भरी हुई और भरोसा ना करने लायक कहानी है. बॉक्स ऑफ़िस पर इसका डूबना तय है.
इस पर लगाए गए पैसे को देखते हुए कहा जा सकता है कि नुकसान काफ़ी होने वाला है. अगले हफ़्ते रिलीज़ होने वाली ‘एक विलेन’ रही सही क़सर भी निकाल देगी.
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