उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में रहनेवाले वरिष्ठ कथाकार हृदयेश नयी कहानी आंदोलन के दौर में जन्मे लेखक हैं. लेकिन छोटे शहर का लेखक होने के कारण उन्हें उस दौर के आलोचकों की उदासीनता का शिकार होना पड़ा. हालांकि अपनी सतत लेखनी के जरिये वे अब तक11 उपन्यास, 21 कहानी संग्रह पाठकों को दे चुके हैं, और आज अपने व्यापक कथा-संसार एवं उत्कृष्ट लेखन के लिए प्रसिद्ध हैं. हृदयेश से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत.
छह दशक से आप लगातार सृजनरत हैं. लेखक के रूप में आपका जीवन कैसे शुरू हुआ?
मेरे पिता दूरदर्शी नहीं थे और न ही महत्वाकांक्षी थे. वह कचहरी में मुलाजिम थे. मैंने जब हाइ स्कूल पास किया और आगे पढ़ना चाहा, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया. कहा-‘दसवें दज्रे तक की पढ़ाई क्लर्क की नौकरी पाने के लिए बहुत है. अब मैं तुम्हारी आगे की पढ़ाई का खर्चा वहन नहीं कर सकता.’ मेरे दोस्तों ने इंटरमीडिएट में दाखिला लिया और मैं प्राइवेट इंटरमीडिएट करने के साथ नौकरी भी करने लगा. बीए की परीक्षा तब प्राइवेट नहीं होती थी, इसलिए मैंने ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ से हिंदी की विशारद और उत्तमा (साहित्य रत्न) की परीक्षाएं दी. इनकी महत्ता बीए और एमए के समकक्ष थी. इस माध्यम से मेरा साहित्य से परिचय हुआ. लेखन की ओर आने की एक और भी रही. मेरे मन में पता नहीं क्यों यह भावना जन्मी कि ‘मैं क्लर्क की नौकरी करता हूं’, इस हीन भावना से लेखन के जरिये मुक्त हो सकता हूं. अपना कद ऊंचा कर सकता हूं.
अपने शुरुआती लेखन के बारे में बताएं?
पहली कहानी मैंने ‘कश्मीर भारत का है’ शीर्षक से लिखी थी. यह 1951 में वाराणसी से निकलनेवाले एक दैनिक पत्र में छपी थी. इसके बाद 3-4 कहानियां और लिखीं, लेकिन इनके बारे में मैं यही कहूंगा कि इनमें कहानी कम, अक्षर, शब्द, वाक्यविन्यास ज्ञान अधिक था. पहली बार सधे हुए हाथों से 1954 में मैंने ‘परदे की दीवार’ कहानी लिखी, जो उस समय की नामचीन पत्रिका ‘कहानी’ में प्रकाशित हुई थी. इसे ही मैं अपनी प्रथम कहानी मानता हूं.
अपने परिवेश और सामाजिक पृष्ठभूमि से अपनी रचनाशीलता के संबंध को कैसे देखते हैं?
मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा, जिसको मैं जानता समझता हूं, वही मेरे लेखन में है. अपने चारों ओर बिखरे पात्रों को चुनता हूं और कथा वस्तु के अनुसार उन्हें थोड़ा सा बदल लेता हूं. मैं जिस निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं, उसी पर लिखता हूं, ताकि वह विश्वसनीय लगे. छोटे शहर का बाशिंदा हूं, छोटा शहर ही मेरी रचनाओं में है.
त्नपरंतु निम्नमध्यवर्ग के साथ उच्च वर्ग के जीवन को भी आपने कहानियों का विषय बनाया है?
उच्च वर्ग का जीवन मेरे लेखन में तब आया, जब मेरी कलम पक चुकी थी. मैं जब उस जीवन को थोड़ा-थोड़ा देख चुका था. दरअसल, मेरा बड़ा बेटा अमेरिका में है, वह अब उच्च वर्ग में आ चुका है. छोटा बेटा डॉक्टर है, वह भी इस वर्ग के करीब है. इनके माध्यम से मैंने उच्च वर्ग के परिवेश को भी देखा, तब वह भी मेरी कहानियों में आया.
भाषा के मामले में आप बेहद सतर्क और प्रयोगशील हैं. इस पर खास तैयारी होती होगी?
मेरी कहानियां सपाट बयानी हैं और मैं इस सपाट बयानी को रचनात्मकता देने का प्रयास करता हूं. हर लेखक को पात्रों के अनुकूल भाषा और बोली का प्रयोग करना पड़ता है. भाषा में रचनात्मकता जरूरी भी है. लेकिन भाषा की बजाय कथा वस्तु और उसके संप्रेषण पर ही मेरा अधिक जोर रहा है.
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं?
इसे मैं एक उदाहरण के जरिये बताना चाहूंगा. मैं डिस्ट्रिक जज का पीए था और डिक्टेशन लेने उनके बंगले में भी जाता था. वहां मैंने एक पत्रिका में सारस पक्षी का चित्र देखा. वह चित्र मुझ पर हावी हो गया और मेरे मन में धारणा बनी कि पक्षियों को मानक बना कर मनुष्य की जिजीविषा और गरिमा की गाथा लिखी जा सकती है. इसके बाद मैंने पक्षियों को लेकर कई कहानियां लिखीं, जो ‘अमरकथा’ नाम के संग्रह में आयी हैं. मैनेजर पांडे जैसे आलोचकों ने उन्हें हिंदी की विरल कहानियां माना है.
नौकरी करते हुए लेखन से सामंजस्य कैसे बनाया आपने?
जुनून हो, तो सब संभव है. नौकरी के दौरान मैं छीन-झपट कर लेखन के लिए समय निकाल ही लेता था. हालांकि वह समय पर्याप्त नहीं था इसलिए शुरू में मैंने छोटी-छोटी कहानियां लिखीं. 1988 में सेवानिवृत्त होने के बाद पूरा समय लेखन को देने लगा.
आपमें आत्मकथा ‘जोखिम’ लिखने का साहस कैसे जन्मा?
आत्मकथा में अधिकतर लेखक अपने आप को हीरो बना देते हैं. मैंने स्वयं को इससे बचाया है. सच कहने में जोखिम तो होता ही है, लेकिन विश्वसनीयता ज्यादा अहम है. इसलिए सबसे पहले मैंने अपनी कमजोरियों को ही कठघरे में खड़ा किया है. पाठकों में वही रचना स्वीकार्य होती है,जो विश्वसनीयता पैदा करे.
एक कस्बे के लेखक को पहचान बनाने के लिए औरों की तुलना में कितना संघर्ष करना पड़ा?
साठ साल से अधिक समय बीत गया लिखते हुए, मैं किसी आंदोलन से नहीं जुड़ा. मैं दिल्ली नहीं जाता, लोगों से मिलता-जुलता नहीं. हिंदी साहित्य के जो बड़े टाइकून हैं, उनसे मेरा कोई संबंध नहीं है. इसलिए, मुङो जो मान्यता या स्वीकृति मिलना चाहिए, वो कभी भी नहीं मिली. मेरे जैसे लेखकों की संपन्न रचनाओं को भी प्रकाशकों की तलाश में काफी मेहनत करनी पड़ती है. लेकिन मेरा आत्म सम्मान अक्षुण है.
इस वजह से कभी लेखन से मन नहीं उचटा?
ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि मुङो लगातार मिलनेवाली पाठकों की प्रतिक्रियाएं प्रेरित करती हैं. ये भी एक तरह की स्वीकृति है. ‘पहल’ जैसा सम्मान मुङो मिला है. हिंदी पट्टी के चुने हुए लेखक शाहजहांपुर आये थे और श्रीलाल शुक्ल द्वारा यह सम्मान मुङो दिया गया था. दूरदर्शन ने मुझ पर एक डॉक्यूमेंट्री और मेरी कहानी ‘मनु’ पर फिल्म बनायी. नेशनल बुक ट्रस्ट ने, जो कि चुने हुए लेखकों की रचनाओं को ही लेता है, ‘हृदयेश : कहानियां’ शीर्षक से मेरे द्वारा चुनी हुई कहानियों का संकलन निकाला. यह छोटी-छोटी उपलब्धियां हैं, जिनसे संतोष कर लेता हूं.
आप 84 वर्ष के हो चुके हैं, क्या आपका लेखन अब भी जारी है?
बार-बार मुझसे पूछा जाता है कि क्या आप अब भी लिखते हैं? हां, मैं लिखता हूं क्योंकि लेखन मुङो ऊर्जा देता है, जीवन की सार्थकता का बोध कराता है. आजकल स्वास्थ्य के आयामों पर एक छोटा सा उपन्यास लिखना शुरू किया है.
इन दिनों आपकी दिनचर्या कैसी होती है?
84 साल की उम्र मुङो कहीं भी अकेले निकल जाने की छूट नहीं देती. कोई हाथ पकड़ लेता है, तो चला जाता हूं. अमूमन दिन भर घर पर ही रहता हूं. किताबें पढ़ता हूं या लेखन में रमा रहता हूं. हाल ही में एक संस्मरणों की किताब आयी है अंतिका प्रकाशन से,‘स्मृतियों का साक्ष्य’. इस तरह अपने को बदलने के लिए कभी-कभी विधा को भी बदल लेता हूं.
लेखन के लिए क्या किसी खास विचारधारा से जुड़ाव जरूरी है?
विचारधारा की एकांगिकता, यानी अतिवादी दृष्टिकोण का रचना पर दुष्प्रभाव पड़ता है. विचारधारा में मानवीय बोध, प्रज्ञा और संवदेना होना जरूरी है. वामपंथी भूल जाते हैं कि मार्क्स शेक्सपियर के प्रशंसक थे. स्टॉलिन टॉल्सटॉय को पढ़ते थे. लेनिन ने गोर्की के ‘मां’ उपन्यास को बहुत जरूरी और मौजूं किताब कहा था. कहने का तात्पर्य यह है कि विचारधारा में प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता और मानवीयता तो होना चाहिए, लेकिन अतिवादिता नहीं. विचारधारा रचना में पूरी तरह घुलमिल जाये, लेकिन उसका अतिवादी होना रचना के लिए घातक है.