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बाॅम्बे जयश्री के सुरों में कर्नाटकी संगीत का जादू

कर्नाटकी शास्त्रीय संगीत की शिखर गायिका बाॅम्बे जयश्री को सुनना और उन्हें गाते हुए देखना, ऐसा है जैसे उनका कंठ एक आंगन हो, जिसमें संगीत के सुर पूरी निश्चिंतता से खेल रहे हों, अपने घर में. हिंदी गीत सुननेवालों में से अधिकतर दक्षिण-संगीत के विषय में पूछे जाने पर ‘कभी सुना नहीं’ जैसा ही उत्तर […]

कर्नाटकी शास्त्रीय संगीत की शिखर गायिका बाॅम्बे जयश्री को सुनना और उन्हें गाते हुए देखना, ऐसा है जैसे उनका कंठ एक आंगन हो, जिसमें संगीत के सुर पूरी निश्चिंतता से खेल रहे हों, अपने घर में.

हिंदी गीत सुननेवालों में से अधिकतर दक्षिण-संगीत के विषय में पूछे जाने पर ‘कभी सुना नहीं’ जैसा ही उत्तर देंगे. जबकि असलियत यह है कि ऐसे जवाब गलत हैं. यदि आपसे कहा जाये कि आपको दक्षिण के सुर, यानी कर्नाटकी संगीत पसंद है और यह सिद्ध किया जा सकता है! चौंकिये नहीं! जरा इन गीतों के बारे में ‘सोचिये’-
‘जानेमन जानेमन तेरे दो नयन/ चोरी चोरी लेके गये देखो मेरा मन/ जानेमन जानेमन…’
‘जब दीप जले आना/ जब शाम ढले आना…’
‘गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा/ मैं तो गया मारा, आके यहां रे…’
‘तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अंजाना…’
‘दिल दीवाना बिन सजना के माने ना…’
‘ये हसीन वादियां/ ये खुला आसमां/ आ गये हम कहां/ ऐ मेरे साजना…’
‘कहना ही क्या/ ये नैन एक अन्जान से जो मिले…’
ये कुछ मुखड़े हैं, जिन्हें आपका गुनगुनाना, आपकी इन गीतों से जान-पहचान का होना सिद्ध करता है. इन गीतों का वह खास अंदाज, जिससे हम अनजान हैं, लेकिन जिसने हमें मोहा है, वह इनमें दक्षिण की कर्नाटकी संगीत शैली की ही मौजूदगी है.
यह सिलसिला बहुत पहले से चल रहा है. अभी जब उत्तर का दक्षिणी संगीत से लगाव पता चल चुका है, तो क्यों न कर्नाटकी शास्त्रीय संगीत की शिखर गायिका ‘बॉम्बे जयश्री रामनाथ’ पर चर्चा की जाये. हो सकता है आपने उन्हें सुना भी हो- ‘जरा जरा बहकता है, महकता है…’ या फिर ‘ममता से भरी/ तुझे छांव मिली/ जुग जुग जीना/ तू बाहुबली’- हो सकता है आप जानते हों कि बॉम्बे जयश्री ‘लाइफ ऑफ पाई’ के थीम-सांग ‘पाई की लोरी’ के लिए ऑस्कर नोमिनेट हो चुकी हैं. उन्हें सुनना और उन्हें गाते हुए देखना, ऐसा है जैसे उनका कंठ एक आंगन हो, जिसमें संगीत के सुर पूरी निश्चिंतता से खेल रहे हों, अपने घर में.
संगीत के ईश्वरीय-तत्व और संगीत व प्रकृति के आपसी जुड़ाव को नकारना किसी भी शास्त्रीय संगीत रसिक के लिए मुमकिन नहीं. कर्मकांड को अलग करते हुए, संगीत (शांति भी संगीत है) और साधना का अटूट रिश्ता है. वर्ना बारिशों में हम क्यों खुश होते या फिर कोयल भी क्यों कूके जाती है? यह बात और है कि मंदिरों को मधुर संगीत देनेवाली घंटियां अब घड़ियाली हो चली हैं.
दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में पीपल की छांव तले जब जयश्री रामनाथ अपनी शिष्याओं के साथ बुद्ध पूर्णिमा की शाम को अपनी तपस्वी आवाज से सजाने आयीं, तब पूरा चांद उन्हें और रसिकों को पत्तियों के पीछे से देख रहा था, उनको यह कहते सुन रहा था, ‘जब हम प्रकृति के साथ होते हैं, तब हम शांति के साथ होते हैं और इसे महसूस करने का सबसे अच्छा जरिया संगीत होता है.’ उनका यह मानना है ‘न सिर्फ बुद्ध बल्कि सारे-ही संत एक ही बात कहते हैं, सत्य कहीं नहीं बदलता.’ और इसी क्रम में उन्होंने संत ज्ञानेश्वरी के श्लोकों के गायन से संगीत की जो लगन लगायी, वह संगीत-रसिकों पर फौरन काबिज हो गयी.
जब उन्होंने श्रीवल्लभाचार्य लिखित भजन ‘अधरं मधुरं वदनं मधुरं’ गाना शुरू किया (चांद तब तक, पता नहीं कहां से आये, बादलों में छिप चुका था), तब वहां बैठा हर श्रोता साथ गा रहा था. फिर जैसे ही आदिशंकराचार्य लिखित ‘शिवोहम’ शुरू हुआ, प्रकृति जो अब तक कहीं पार्श्व से सुन रही थी, बारिश बन सामने आ गयी. उनकी सारी टीम: प्रिय शिष्याएं श्वेता, चैत्रा, विजयश्री और अभिनया के अलावा वायलिन पर रामकृष्णन और मृदंगम पर भारद्वाज और उनके संगीत को चाहनेवाले, सब भीगते रहे और संगीत की साधना में डूबे रहे. अपने कर्नाटकी-संगीत जुड़ाव से अनभिज्ञ, उत्तर के रसिकों पर बॉम्बे जयश्री का रंग चढ़ान पर है.

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