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दागी भी बनेंगे सांसद!

16वीं लोकसभा चुनाव के सभी चरण संपन्न हो चुके हैं. इस चुनाव में किस्मत आजमा रहे 8,230 उम्मीदवारों में से 8,163 के शपथपत्रों का विश्लेषण करने पर पता चला है कि इनमें से 1398 के खिलाफ आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के मुकदमे चल रहे थे. हाल के वर्षो में सिविल सोसाइटी के आंदोलनों से […]

16वीं लोकसभा चुनाव के सभी चरण संपन्न हो चुके हैं. इस चुनाव में किस्मत आजमा रहे 8,230 उम्मीदवारों में से 8,163 के शपथपत्रों का विश्लेषण करने पर पता चला है कि इनमें से 1398 के खिलाफ आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के मुकदमे चल रहे थे. हाल के वर्षो में सिविल सोसाइटी के आंदोलनों से उम्मीद जगी थी कि इस बार के आम चुनाव में प्रमुख पार्टियां दागी उम्मीदवारों को टिकट देने से परहेज करेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

दागी उम्मीदवारों को टिकट देने में कमोबेश सभी पार्टियां शामिल थीं. इन उम्मीदवारों में से 2,208 करोड़पति थे. दागियों और करोड़पति उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या जुड़े विभिन्न आयामों पर पेश है विशेषज्ञ का नजरिया.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता की सरकार को चुनने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है. नौ चरणों में संपन्न हुए इस चुनाव में प्रचार के दौरान अनेक बड़े नेताओं ने तीखे शब्दों का इस्तेमाल किया. हमेशा की तरह इस बार भी गंभीर अपराध से जुड़े दागी प्रत्याशी भी चुनाव मैदान में थे. चुनाव आयोग द्वारा इन्हें रोकने के लिए की गयी तमाम कोशिशों के बाद भी इस पर लगाम नहीं लग पायी है. क्यों है यह स्थिति और क्या है इससे पार पाने का रास्ता, इस पर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के विशेषज्ञ जगदीप छोकर से विस्तार से बातचीत की कन्हैया झा ने.

चुनाव प्रचार में पार्टी द्वारा किये खर्चो का ब्योरा भी जरूरी हो

– किसी उम्मीदवार की संपत्ति में बढ़ोतरी कई कारणों से होती है. ऐसे में उम्मीदवार की ओर से चुनाव आयोग को दिये जानेवाले शपथपत्र में संपत्ति के आकलन के साथ वार्षिक आमदनी के बारे में भी जानकारी दी जानी चाहिए?

मौजूदा आम चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग ने उम्मीदवारों को भरे जानेवाले शपथपत्र में यह व्यवस्था बना रखी है कि उसमें उम्मीदवार को एसेट्स और लायबिलिटिज (संपत्ति और दायित्व) के बारे में जानकारी देनी होगी. चूंकि संपत्ति एवं आमदनी में फर्क है, इसलिए फिलहाल आमदनी का ब्योरा नहीं दिया जा रहा है. हालांकि, ऐसे में यह नहीं पता चल पाता है कि किसी उम्मीदवार की वार्षिक आमदनी कितनी है.

जरूरत इस बात की है कि चुनाव आयोग को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे उम्मीदवार की ओर से भरे जानेवाले शपथपत्र में वार्षिक आमदनी का ब्योरा भी दर्ज हो. चुनाव आयोग से यह गुजारिश की गयी थी कि इस शपथपत्र में आमदनी का ब्योरा भी उम्मीदवारों से दर्ज करवाना चाहिए, लेकिन आयोग ने इस बारे में असमर्थता जताते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट से संबंधित शपथपत्र के लिए जारी किये गये दिशानिर्देशों में आमदनी के ब्योरे को दर्ज करने की व्यवस्था नहीं दी गयी है, इसलिए फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता. हमलोग इस प्रयास में जुटे हैं कि इस शपथपत्र में आमदनी का ब्योरा भी दर्ज होना चाहिए.

– चुनाव आयोग ने एक लोकसभा क्षेत्र में प्रचार के लिए अधिकतम खर्च सीमा 70 लाख रुपये तय कर रखी है. सांसद की वार्षिक आमदनी के हिसाब से क्या यह तर्कसंगत है?

देखिए, इस बारे में कुछ कहना थोड़ा मुश्किल है. दूसरी बात कि प्रचार के लिए अधिकतम खर्च की यह सीमा चुनाव आयोग ने नहीं तय की है. यह सीमा केंद्र सरकार ने निर्धारित की है. यह तय करना उसी की जिम्मेवारी है और अपनेआप में यह एक राजनीतिक फैसला कहा जा सकता है. दरअसल, कोई उम्मीदवार जब चुनाव लड़ता है, तो उसमें केवल वह अपना ही धन नहीं खर्च करता है, चुनाव प्रचार के लिए उसे पार्टी की ओर से भी रकम हासिल होती है.

कोई उम्मीदवार केवल अपनी ही आमदनी से चुनाव का सारा खर्चा नहीं करता है. पार्टी के अलावा उसे अपने दोस्तों से भी रकम मिलती है. रिप्रेजेंटेटिव ऑफ पीपुल्स एक्ट की धारा-77 में इसका जिक्र है. इसमें कहा गया है कि ‘फ्रेंड्स एज सपोर्ट्र्स’ यानी ‘समर्थकों की भांति दोस्तों’ से चुनाव खर्च के लिए धन लिया जा सकता है. और यह रकम लेना वैध है.

त्न उम्मीदवारों की ओर से खर्चो के संबंध में दिये गये शपथपत्र क्या बताते हैं?

देखिए, सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि कौन सी पार्टी कितना धन खर्च कर रही है, यह नहीं पता चल पाता है. जहां तक उम्मीदवारों द्वारा किये गये खर्चे का सवाल है, तो पिछले यानी 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद 6,753 उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग को अपने खर्चो का ब्योरा दिया था. इसमें से केवल चार उम्मीदवार ने ही यह कहा कि उन्होंने निर्धारित अधिकतम सीमा से ज्यादा रकम खर्च की है. महज 30 उम्मीदवारों ने यह ब्योरा दिया था कि निर्धारित अधिकतम सीमा के 90 फीसदी तक रकम उन्होंने खर्च की है. शेष 6,719 उम्मीदवारों (99.9 प्रतिशत) ने कहा कि उन्होंने निर्धारित अधिकतम सीमा का तकरीबन आधा ही खर्च किया है. यदि इन आंकड़ों का विेषण किया जाये, तो यह कहा जा सकता है कि 20 से 25 लाख रुपये (वर्ष 2009 में लोकसभा चुनावों के लिए अधिकतम खर्च की सीमा 40 लाख निर्धारित की गयी थी) प्रत्येक उम्मीदवार के खर्चे हुए. तो क्यों न अधिकतम खर्च की सीमा कम कर दी जाये.

दूसरी ओर महाराष्ट्र में गोपीनाथ मुंडे ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि पिछले लोकसभा चुनाव में तो उन्होंने आठ करोड़ रुपये खर्च किये थे. यानी कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों की ओर से जो प्रचार में खर्च किया जाता है, उसका कोई अंदाजा नहीं लगाया जाता. राजनीतिक पार्टी को चलाने के अपने अलग खर्चे हैं, जो इसमें शामिल नहीं हो पाते हैं. राजनीतिक दलों के खर्चे असीमित हैं, जिन पर लगाम कसने की जरूरत है. साथ ही, इस मामले में पारदर्शिता की भी जरूरत है.

– चुनाव आयोग की ओर से चुनावों की निगरानी के लिए तैनात किये गये पर्यवेक्षक भी तो रिपोर्ट देते होंगे?

जहां तक चुनाव आयोग की ओर से चुनावों की निगरानी के लिए पर्यवेक्षकों द्वारा सौंपी जानेवाली रिपोर्ट की बात है, तो आयोग उसे सार्वजनिक नहीं करता है. चुनाव आयोग का कहना है कि यदि इस तरह की रिपोर्टो को सार्वजनिक कर दिया जायेगा, तो चुनाव पर्यवेक्षक खुल कर लिखना बंद कर देंगे. हालांकि, पर्यवेक्षकों की ओर से सौंपी जाने वाली रिपोर्टो पर गौर किया जाता है और कई तरह के उपायों को तय करने और उन्हें लागू करने में इनकी बड़ी भूमिका होती है. ये रिपोर्ट महत्वपूर्ण होती हैं.

– पिछले कुछ वर्षो के दौरान भ्रष्टाचार के खिलाफ सिविल सोसायटी के आंदोलनों और बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से उम्मीद जगी थी कि इस बार दल दागी उम्मीदवारों को टिकट देने से परहेज करेंगे. लेकिन एडीआर के आंकड़े कहते हैं कि दागी उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी है. इसके प्रमुख कारण क्या-क्या हैं?

दरअसल, राजनीतिक दलों की मानसिकता ठीक नहीं हुई है. इसे ठीक होना होगा और यही देशहित में होगा. लोकतंत्र के लिहाज से ऐसी मानसिकता ठीक नहीं है, इसलिए इसका सही होना बहुत जरूरी है. हालांकि, राजनीतिक दल इस पर अड़े हुए हैं कि वे इससे बाज नहीं आयेंगे, नतीजन दागी उम्मीदवारों को इस बार भी टिकट दिये गये हैं. राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है और जब तक उनमें आंतरिक लोकतंत्र नहीं होगा, तब तक इसमें सुधार नहीं होगा. जनता लोकतंत्र चाहती है, लेकिन सत्तारूढ़ व्यक्ति ऐसा नहीं चाहते. नेताओं को डर है कि यदि वे ऐसा करेंगे, तो उन्हें इससे नुकसान हो सकता है, इसलिए आंतरिक लोकतंत्र को लागू करने से वे डरते हैं.

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