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गंवई ठाठ का जिंदा रचनाकार सुशील सिद्धार्थ

पिछले एक हफ्ते के भीतर सुशील सिद्धार्थ और केदारनाथ सिंह का जाना हिंदी जगत को थोड़ा और विपन्न कर गया है. देखें तो कुछ महीनों के भीतर हमने इनके अलावा चंद्रकांत देवताले, दूधनाथ सिंह और कुंवर नारायण जी को खो दिया है. एक पूरी पीढ़ी हमारे देखते-देखते विदा हो रही है और उनकी जगह कहीं […]

पिछले एक हफ्ते के भीतर सुशील सिद्धार्थ और केदारनाथ सिंह का जाना हिंदी जगत को थोड़ा और विपन्न कर गया है. देखें तो कुछ महीनों के भीतर हमने इनके अलावा चंद्रकांत देवताले, दूधनाथ सिंह और कुंवर नारायण जी को खो दिया है. एक पूरी पीढ़ी हमारे देखते-देखते विदा हो रही है और उनकी जगह कहीं से भरती नहीं दिखायी देती.

सुशील सिद्धार्थ का जाना इसलिए भी ज्यादा दुखी करता है कि अभी उनकी जाने की उम्र नहीं थी. दो जुलाई, 1958 को सीतापुर के भीरागांव में जन्मे बेहद खुशमिजाज और यारबाश तबीयत के सुशील भाई न केवल उम्दा दर्जे के व्यंग्यकार थे, बल्कि अवधी में बड़ी मारक कविताएं भी लिखते थे. अभी हाल में उनका व्यंग्य संग्रह ‘मालिश पुराण’ आया था और खूब चर्चित हुआ था. इसके अलावा उन्होंने श्रीलाल शुक्ल और मैत्रेयी पुष्पा के रचना संचयन सहित कई महत्वपूर्ण संपादन भी किये थे.
अवधी उनकी संवेदना के मूल में थी, जैसे भोजपुरी केदार जी की संवेदना के मूल में. अपने लोक और उसकी भाषा से गहरा जुड़ाव ही उन्हें वह जरूरी विट उपलब्ध कराता था, जिससे उनके व्यंग्य राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों पर गहरी चोट पहुंचाते हुए भी पाठक को हंसने पर मजबूर कर देते थे.
सुशील भाई से मेरा पहला राबता एक पाठक के तौर पर था. वह ज्ञानपीठ में एक कॉलम लिखा करते थे. साल 2007 की बात रही होगी शायद. अचानक उसी कॉलम को मैंने अपनी कविता ‘मां की डिग्रियां’ पर केंद्रित देखा. यह मेरे लिए दोहरे आश्चर्य की बात थी. एक तो यह कि तब तक सुशील भाई से कोई परिचय नहीं था और दूसरे उस दौर में न केवल मैने विभूति नारायण राय प्रकरण में ‘नया ज्ञानोदय’ का बहिष्कार किया हुआ था, बल्कि उस पूरे प्रकरण के सारे बयान मेरे ब्लॉग जनपक्ष पर ही शाया हुए थे और वह उन दिनों ज्ञानपीठ में ही नौकरी करते थे. हिंदी जगत में मेरे लिए यह एक अनूठी घटना थी. जब मैंने उन्हें धन्यवाद देने के लिए फोन किया,
तो वह एकदम सहजता से हंसते हुए बोले, ‘अच्छी कविता की तारीफ करने से मुझे कोई नहीं रोक सकता.’ कुछ महीनों बाद दिल्ली आना हुआ, तो उन दिनों ज्ञानपीठ में उनके साथ काम कर रहे मित्र कुमार अनुपम ने उनसे मिलवाया. दरम्याने से थोड़ा कम कद, खिचड़ी बाल, कंधे पर झोला और बातचीत में गंवई ठसक भी, सहजता भी. जब जहां मुलाकात होती, उन्हें मुस्कुराता हुआ ही पाया. उन दिनों में भी जब वे नौकरी के लिए परेशान रहते. लखनऊ छूट चुका था और पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ दिल्ली का जीवन कभी आसान नहीं होता. लेकिन, तनाव से गुजरते हुए भी वह हमेशा सहज रहते सक्रिय रहते.
किताब घर में आने के बाद एक स्थिरता आयी थी उनके जीवन में. हालांकि, दिल का दौरा पड़ चुका था, एंजियोप्लास्टी हो चुकी थी, लेकिन इस बारे में भी न वह किसी को बताते, और न ही उसका असर उन्होंने अपनी रोजमर्रा की जिंदगी पर आने दिया. पिछले दिनों उन्होंने व्यंग्यकार लेखक संघ भी बनाया था और प्रेम जनमेजय के साथ मिलकर उसे मानीखेज बनाने के लिए दिल्ली और लखनऊ में लगातार सक्रिय भी थे.
इस साल पुस्तक मेले में उनसे हुई मुलाकात आखिरी बन गयी. संयोग ही था कि पहली मुलाकात में भी कुमार अनुपम थे और अंतिम मुलाकात में भी वह हमारे साथ ही थे. अनुपम उनको गुरु कहते हैं. मैने व्यंग्य संग्रह की बधाई दी, तो उसे एक हंसी में उड़ाते हुए वह अवधी के रंग में आ गये और उनके ठहाकों में हम शामिल होते चले गये. वह हंसी जीवन के एक एक क्षण को पूरा जी लेने की आकांक्षा रखनेवाले मनुष्य की थी. वह हंसी अपने गांव, अपने लोक को हमेशा अपनी थाती की तरह संजोनेवाले उस लेखक की थी, जिसका होना हिंदी में एक जिंदा आदमी का होना था. उनका जाना लगातार बाजार की गिरफ्त में सहजता खो रहे लेखकों की जमात से अपने गंवईपन को स्वाभिमान और उदात्तता से जीनेवाले लेखक का चला जाना है.
दरम्याने से थोड़ा कम कद, खिचड़ी बाल, कंधे पर झोला और बातचीत में गंवई ठसक भी, सहजता भी. जब जहां मुलाकात होती, उन्हें मुस्कुराता हुआ ही पाया. उन दिनों में भी जब वे नौकरी के लिए परेशान रहते. लखनऊ छूट चुका था और पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ दिल्ली का जीवन कभी आसान नहीं होता. लेकिन, तनाव से गुजरते हुए भी वह हमेशा सहज रहते सक्रिय रहते. उन्हें नमन!

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