नयी दिल्ली : पिछली शताब्दी के 90 के दशक में एक वर्ष ऐसा भी आया, जब भारत ने जर्मनी को गेहूं का निर्यात किया. गेहूं लदा हुआ पानी का जहाज जब यूरोपीय बंदरगाह पर पहुंचा, तो नियमानुसार वहां के खाद्य अधिकारियों ने गेहूं के नमूनों की जांच की. बताया गया कि जहाज पर लदा गेहूं खाने लायक नहीं है, लिहाजा इसे समुद्र में फेंक दिया जाना चाहिए.
इतना ही नहीं, वहां के अधिकारियों ने गेहूं की कीमत चुकाना तो दूर, उसे नष्ट करने की कीमत भी भारत को ही चुकाने को कहा. तत्कालीन केंद्र सरकार ने आनन-फानन अधिकारियों की एक टीम गठित की और उन्हें जर्मनी से गेहूं वापस लाने की जिम्मेवारी सौंपी गयी. भारतीय अधिकारियों ने जर्मनी के अधिकारियों से गुजारिश की थी कि गेहूं लदे हुए भारतीय जहाज को वापस भारत भेज दिया जाये, ताकि भारत में उस गेहूं का इस्तेमाल हो पाये.
इस घटना से यह साबित होता है कि खाद्य-पदार्थो की गुणवत्ता के बारे में यूरोपीय देश भारत से कितने ज्यादा संजीदा हैं. हाल ही में पांच भारतीय सब्जियों समेत प्रसिद्ध अलफांसो आम के निर्यात पर अनेक यूरोपीय देशों (इयू) में पाबंदी लगा दी गयी है. हालांकि, जिन कृषि उत्पादों पर इयू ने पाबंदी लगायी है, वह यूरोप को निर्यात होने वाले भारतीय कृषि उत्पादों का महज पांच फीसदी है, लेकिन यह नुकसान अपने आप में कम नहीं है. आंकड़ों पर गौर किया जाये, तो महज ब्रिटेन में प्रत्येक वर्ष तकरीबन 62 करोड़ रुपये मूल्य का अलफांसो आम आयात किया जाता है. देश की कृषि नीति के लिहाज से इसे देखें, तो हालात की गंभीरता का पता चलता है.
प्रासंगिक कानून की दरकार
दरअसल, भारत अपने कृषि-उत्पादों को निर्यात योग्य बनाने की नीतिगत तैयारी में सफल साबित नहीं हो रहा है. जानकारों का मानना है कि फिलहाल फल-सब्जियों और जैविक उत्पादों के आयात-निर्यात का नियमन दो पुराने कानून डिस्ट्रक्टिव इन्सेक्ट एंड पेस्ट एक्ट (1914) और लाइव स्टॉक इंपोर्टेशन एक्ट (1898) के तहत हो रहा है. जैव-विविधता से जुड़ी नयी चिंताओं और कृषि-उत्पादों के बाजार की जरूरत के मद्देनजर ये कानून अप्रासंगिक हो चुके हैं. नया कानून एग्रीकल्चर बायोसिक्योरिटी बिल (2013) नाम से बनाने का प्रयास हो रहा है, लेकिन इस दिशा में अभी कोई सफलता नहीं मिल पायी है.
ऐसे में इयू के मौजूदा प्रतिबंध से निबटने के लिए भारत की तैयारी कुछ खास नहीं है. अलफांसो आम पर यूरोपिय देशों की मौजूदा पाबंदी से भारत को सीख लेते हुए देश के कृषि-उत्पादों को विश्व बाजार की प्राथमिकताओं के अनुकूल बनाने की कोशिशें तेज करनी चाहिए.
तकनीकी विशेषज्ञता और उपकरणों की कमी
खाद्यान्न उत्पादन और निर्यात के क्षेत्र में देश में उल्लेखनीय प्रगति हुई है. दूध, गन्ना, काजू और मसालों के उत्पादन के मामले में भारत पहले स्थान पर है, जबकि चावल, गेहूं, दलहन, फल (ब्राजील के बाद) और सब्जियों (चीन के बाद) का यह दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. लेकिन विश्वव्यापी निर्यात में भारत का हिस्सा तीन प्रतिशत से कम है. आइएनडीजी डॉट इन वेबसाइट पर देश में कृषि के संबंध में दी गयी जानकारी के मुताबिक, कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है.
इनमें संस्थानिक समन्वय में कमी, तकनीकी विशेषज्ञता और उपकरणों की कमी, अद्यतन मानकों की कमी, उत्तरदायी निगरानी प्रणाली का अभाव, इस उद्योग के क्षेत्र के संगठित और असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत लोगों के बीच सुरक्षा और गुणवत्ता नियंत्रण के मुद्दों के बारे में जागरूकता की कमी, खाद्य से जुड़ी बीमारियों की बढ़ती घटनाएं, आनुवांशिक रूप से रूपांतरित खाद्य पदार्थो का प्रवेश और विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के बाद खाद्य उत्पादों का बढ़ता आयात शामिल है. अनुसंधान और विकास तथा अद्यतन सूचना प्रणाली का आधार कमजोर है व इसे मजबूत करने की भी जरूरत है.
खाद्य सुरक्षा मानक की जरूरत
आइएनडीजी डॉट इन के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय खाद्य व्यापार बहुत जटिल, तकनीकी और प्रशासनिक काम है, जिसमें काफी बड़ी मात्र और प्रकार में खाद्य का विश्वव्यापी संचालन होता है. खाद्य उत्पादन वैज्ञानिक आधारित होता है. खाद्यान्नों को लंबी दूरी तक समग्र रूप से उसकी गुणवत्ता बरकरार रखते हुए भेजना और फिर वहां तक उसी स्थिति में पहुंचाना संभव है. पूरी दुनिया में अब उपभोक्ताओं को उच्च गुणवत्तायुक्त खाद्य पदार्थ पहले से कहीं ज्यादा मात्र में मुहैया हो रहे हैं.
इन दोनों यानी गुणवत्ता और मात्र को बढ़ाने में दो अन्य बातों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. पहली बात खाद्य उत्पादन और निर्यात के क्षेत्र में शामिल देशों, खासकर विकासशील देशों की बढ़ती संख्या है. दूसरी बात खाद्य रुचि और आदतों का अंतरराष्ट्रीयकरण है. पहली बात आर्थिक विकास, वाणिज्यिक रणनीति और कीमती विदेशी मुद्रा से संबंधित है. दूसरी बात अलग-अलग देशों के लोगों द्वारा एक-दूसरे के खाद्य को पसंद करने की प्रवृत्ति से संबंधित है.
सफल खाद्य निर्यातक बनने के लिए किसी भी देश को ऐसे खाद्य पदार्थो का उत्पादन करना चाहिए, जो दूसरे देशों के उपभोक्ताओं को स्वीकार्य हो और जो आयातक देशों के नियम-कानून के मुताबिक हों. आयातक देशों की कानूनों अथवा अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना सफल और लाभप्रद खाद्य निर्यात की पहली और अपरिहार्य शर्त है. हालांकि, विश्व समुदाय की खाद्य सुरक्षा के प्रति जागरूकता के चलते इसकी मांग अब तेजी से बढ़ रही है. इसके अलावा आयातक देशों की बड़ी संख्या अब अपने यहां कोई भी उत्पाद मंगाने से पहले उनके निरीक्षण और जांच के साथ-साथ निर्यातक देश की सरकारी एजेंसियों द्वारा उत्पादों की गुणवत्ता और सुरक्षा मानकों को पूरा करने का प्रमाण पत्र भी मांगने लगे हैं.
कोडेक्स एलीमेंटेरियस कमीशन
कोडेक्स एलीमेंटेरियस (लैटिन में इसका अर्थ खाद्य कूट या खाद्य कानून होता है) एकीकृत रूप से प्रस्तुत खाद्य मानकों का संग्रह, गतिविधियों का कोड है. कोडेक्स मानक, दिशा-निर्देश और अन्य अनुशंसाएं यह सुनिश्चित करते हैं कि खाद्य उत्पाद उपभोक्ताओं के लिए खतरनाक नहीं हैं और देशों के बीच इनका सुरक्षित व्यापार किया जा सकता है. विश्व युद्ध के बाद निर्यातकों और सरकारों, दोनों ने राष्ट्रीय खाद्य कानूनों और नियमों को सभी देशों में एक समान करने की दलील दी, ताकि उनका व्यापार मुक्त हो सके. खाद्य के अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण के कई असफल प्रयास हुए, ताकि पूरी दुनिया में खाद्य जरूरतों तो को एक समान स्वरूप मिल सके.
आखिरकार इन प्रयासों के चलते ही खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के संयुक्त खाद्य मानक कार्यक्रम के कार्यान्वयन के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 1962 में कोडेक्स एलीमेंटेरियस कमीशन की स्थापना की गयी. इस कार्यक्रम का मकसद उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य का संरक्षण, खाद्य व्यापार में स्वच्छता और अंतरराष्ट्रीय खाद्य मानक कार्य में समन्वय करना है. कोडेक्स एलीमेंटेरियस कमीशन एक अंतर-सरकारी संगठन है और 168 सरकारें इसके सदस्य हैं.
हाल ही में यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में भारतीय अलफांसो आम के आयात पर पाबंदी लगा दी गयी है. कुछ भारतीय सब्जियों को भी इसमें शामिल करते हुए 31 दिसंबर, 2015 तक के लिए यह पाबंदी लगायी गयी है. कहा गया है कि इस आम के संवर्धन में तय मानकों से ज्यादा मात्र में हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल किया गया है. इससे हमारे देश में खाद्य सुरक्षा के मानकों, नियमन और स्तर को लेकर एक नयी बहस छिड़ गयी है. क्या हैं इससे जुड़े संदर्भ, तथ्य और निहितार्थ? इस पाबंदी से निबटने के लिए क्या कदम उठाये जायें? इन सवालों के इर्द-गिर्द है आज का नॉलेज.
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन
संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) खाद्य और कृषि से संबंधित सभी मुद्दों पर काम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एकमात्र प्रमुख विशेषज्ञ एजेंसी है. खाद्य एवं पोषण प्रभाग अपनी खाद्य गुणवत्ता और मानक सेवाओं के माध्यम से नीतिगत सलाह की व्यवस्था द्वारा क्षमता निर्माण और तकनीकी मदद मुहैया कराता है. यह खाद्य उद्योग के लिए खाद्य गुणवत्ता एवं सुरक्षा आश्वासन कार्यक्रम, खाद्य मानकों के विकास और तकनीकी नियमों समेत गुणवत्ता नियंत्रण और सुरक्षा विकास परियोजनाओं को कार्यान्वित करता है.
यह खाद्य मिलावट के लिए राष्ट्रीय निर्यात खाद्य प्रमाणीकरण कार्यक्रम और निगरानी कार्यक्रम की स्थापना भी कराता है. क्षमता निर्माण में एफएओ द्वारा सदस्य देशों के उनके खाद्य नियंत्रण कार्यक्रम एवं गतिविधियों के सुदृढ़ीकरण के प्रयासों के समर्थन में चलायी गयी सभी गतिविधियां शामिल होती हैं. यह निम्नलिखित कार्य करता है:
– विशिष्ट मुद्दों पर नीतिगत सलाह
– खाद्य कानूनों का सुदृढ़ीकरण, समीक्षा और अद्यतन अथवा सांस्थानिक विकास
– कोडेक्स तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय उपकरणों द्वारा खाद्य नियमों एवं मानकों का समानीकरण
– तकनीकी और प्रबंधकीय कर्मियों को विभिन्न खाद्य सुरक्षा संबंधी संकायों में प्रशिक्षण
– खाद्य संबंधी विषयों पर विशिष्ट अध्ययन एवं व्यावहारिक अनुसंधान
– खाद्य सुरक्षा विकास कार्यक्रमों के लिए आवश्यक दिशानिर्देशों, प्रशिक्षण सामग्री और अन्य उपकरणों का विकास एवं प्रसार.
विश्व व्यापार संगठन से गुजारिश नहीं करेगा भारत
भारतीय अलफांसो आम के यूरोप में आयात पर एक मई से पाबंदी लगा दी गयी है. फिलहाल यह प्रतिबंध 31 दिसंबर, 2015 तक यानी अगले तकरीबन डेढ़ वर्षो के लिए लगाया गया है. यूरोप से जुड़े वैश्विक मसलों के बारे में चर्चा करने वाले एक वेबसाइट इयूरेफरेंडम डॉट कॉम के मुताबिक, भारतीय मीडिया में भले ही इस पर भारत के हितों के संदर्भ में चर्चा की जा रही हो, लेकिन हमें इससे जुड़ी वास्तविकता को भी देखना चाहिए.
इस संदर्भ में ‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि भारत इस मामले को विश्व व्यापार संगठन में नहीं ले जायेगा. दरअसल, भारत को इस पाबंदी की आशंका पहले भी थी, क्योंकि इयू संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित आइपीसीसी कोड के दायरे में काम कर रहा था और वह अंतरराष्ट्रीय कानून से जुड़ा हुआ था. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत विश्व व्यापार संगठन नहीं जायेगा, क्योंकि उसे नतीजे अपने पक्ष में आने की उम्मीद नहीं है.
इस वेबसाइट की रिपोर्ट में बताया गया है कि इस बारे में भारतीय अधिकारियों को पहले भी चेतावनी दी जा चुकी है और इस संबंध में निर्धारित मानकों के स्तर में आ रही गिरावट को देखते हुए इयू ने इस तरह की पाबंदी लगाने का समुचित फैसला लिया है.
अब इस दिशा में भारत सरकार को खुद विचार करना चाहिए, जो इसे पूरा करने में असमर्थ साबित हुई. जहां तक इयू के सदस्य देशों का सवाल है तो भारतीय खाद्य निर्यातक इस मामले में सबसे ज्यादा लापरवाह बताये गये हैं. इस रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि भारतीय खाद्य पदार्थो में न केवल कीट प्रकोप की समस्याएं हैं, बल्कि कीटनाशकों के तौर पर इस्तेमाल में लाये गये एफ्लाटॉक्सिन समेत अन्य कई प्रकार की समस्याएं हैं.
भारत सरकार ने इसे स्पष्ट तौर पर एक स्थानिक समस्या के रूप में लिया है और इस दिशा में गंभीर कदम नहीं उठाये हैं. इस प्रकार की पाबंदी भारत को इस बारे में सोचने पर मजबूर कर सकती है और अधिकारियों को इसे समझते हुए मानकों को सुधारना होगा. यदि वे इयू के मानकों पर खरा नहीं उतरेंगे, तो उन्हें यहां से होने वाले व्यापार का नुकसान उठाना पड़ेगा.
इस रिपोर्ट में एक अन्य मामले को भी फोकस किया गया है. जब इस तरह के मानक एक तय स्तर को पार कर जाते हैं, तो ब्रिटिश आयातकों के लिए उस पर पाबंदी लगाना एक आसान विकल्प हो जाता है. अन्यथा पोर्ट हेल्थ इंस्पेक्टरों द्वारा बंदरगाह पर खाद्य पदार्थो के नमूनों की जांच करते समय ही उस पर पाबंदी लगा दी जाती है. हालांकि, यह ज्यादा महंगा होता है, क्योंकि आयातक के खर्चे पर इस जांच को अंजाम दिया जाता है और इससे व्यापक भंडारण और लागत पर असर पड़ता है. आयातक के खर्चे पर की गयी इस तरह की जांच के बाद कई बार खाद्य पदार्थो को गुणवत्तायुक्त स्तर के अनुकूल नहीं पाये जाने पर उसे नष्ट कर दिया जाता है या वापस लौटा दिया जाता है.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि भारतीय अधिकारी अपने यहां के स्थानीय मानकों को भी नहीं बनाये रख सकते, तो हम अपने लोगों और अपनी खेती को खतरे में नहीं डाल सकते. आखिरकार यदि फूड प्वायजनिंग के हालात होते हैं, तो उसके गंभीर नतीजे देखने में आ सकते हैं.
एक अन्य वेबसाइट की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय कारोबारी आम को पकाने के लिए घातक रसायनों का इस्तेमाल करते हैं. कुछ लालची कारोबारियों के चलते आम की गुणवत्ता को बनाये रखना मुश्किल हो रहा है. कृत्रिम तरीकों से पकाये जाने वाले फल स्वास्थ्य के लिए घातक माने जाते हैं, जिसके चलते यूरोपीय यूनियन के कुछ देशों ने आम की एक प्रजाति को आयात के लिए प्रतिबंधित कर दिया है.