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नियमों को ठेंगा दिखाता चिटफंड का मायाजाल

।। आनंद कुमार सिंह ।।– चार से पांच वर्षों में रुपये दोगुना या फिर दोगुने के करीब, छोटी-मोटी रकम जमा की और हो गये वारे-न्यारे. बड़े-बड़े वादे, अखबार-टीवी में विज्ञापन, आकर्षक रिटर्न जैसे सपने, लेकिन कुछ ही वर्षों में चिट फंड कंपनियों में निवेश करनेवालों का सामना हकीकत से होने लगता है. सवाल यह है […]

।। आनंद कुमार सिंह ।।
– चार से पांच वर्षों में रुपये दोगुना या फिर दोगुने के करीब, छोटी-मोटी रकम जमा की और हो गये वारे-न्यारे. बड़े-बड़े वादे, अखबार-टीवी में विज्ञापन, आकर्षक रिटर्न जैसे सपने, लेकिन कुछ ही वर्षों में चिट फंड कंपनियों में निवेश करनेवालों का सामना हकीकत से होने लगता है. सवाल यह है कि आखिर इनका नियमन करने के लिए कोई नियामक संस्था क्यों नहीं है. क्या ये कंपनियां भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) या फिर सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) के दायरे से बाहर हैं. हकीकत यह है कि ये कंपनियां नियमों में खामियों का फायदा उठाती हैं. –

कोलकाता : चिट फंड कपनियां नियमों को धता देती हुईं अपना व्यवसाय करती हैं. दरअसल जो पैसा वे जनता से लेती हैं, वह नियम के मुताबिक इक्विटी या सूचीबद्ध डेट इश्यू (ऋणपत्र इश्यू) के बीच आता है. लिहाजा वित्तीय सेक्टर के किसी भी रेगुलेटर (नियामक एजेंसी) के दायरे में यह राशि नहीं आ पाती.

आमतौर पर ऐसी संस्थाएं बतौर एक ‘ग्रुप’ रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज के तहत पंजीकृत रहती हैं. जो विशिष्ट एजेंसी पैसे लेती है, वह पंजीकृत नहीं रहती, लेकिन पंजीकृत कंपनी के साथ संबंधित होने का दावा करती है, ताकि वह लोगों का भरोसा जीत सके.

* कैसे रुपये उगाहती हैं कंपनियां
ये कंपनियां आमतौर पर कॉरपोरेट मामले के मंत्रलय (एमसीए) के कंपनीज एक्ट, 1956 के तहत पंजीकृत होती हैं. अपने डिबेंचर को प्राइवेट प्लेसमेंट के नाम पर जनता में बेचती हैं. सेबी के नियमानुसार कोई भी संस्था 50 या उससे अधिक लोगों से पैसे इकट्ठा करती है, तो इसके लिए उसे मंजूरी लेनी होगी और उसे स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कराना होगा.

अधिकांश फर्म ऐसा नहीं करतीं. कंपनियां सेबी कानून के सेक्शन 11एए के सब-सेक्शन (2) से संबंधित कलेक्टिव इनवेस्टमेंट स्कीम के तहत पैसे उगाहती हैं. इस योजना में कहा गया है कि निवेशकों द्वारा अदा की गयी रकम को मिलाकर अजिर्त राशि से आय की जाती है.

नियम में यह भी कहा गया है कि कलेक्टिव इनवेस्टमेंट स्कीम के तहत काम कर रहीं कंपनियां न ही नयी योजना शुरू कर सकती हैं और न ही वर्तमान योजना के तहत निवेशकों से और पैसे ले सकती हैं. ऐसा करने के लिए उसे सेबी से सर्टिफिकेट लेना होगा.

ज्यादातर कंपनियां इसे नहीं मानतीं. पैसे लेने के लिए योजना को अनिवार्य रूप से क्रेडिट रेटिंग करानी होती है. इसकी भी अनदेखी होती है. ऑफर डॉक्यूमेंट की कॉपी भी सेबी को भेजनी पड़ती है. धोखा देनेवालीं कंपनियां इससे भी परहेज करती हैं.

* जिम्मेदारी राज्य सरकार की : आरबीआइ
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने गत वर्ष दिसंबर में संवाददाताओं से कहा था कि चिटफंड कंपनियां, मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनी के बैनर तले काम कर रही हैं. इन कंपनियों द्वारा किसी भी नियम की अवहेलना करने पर उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है. इनका नियमन भारतीय रिजर्व बैंक नहीं करता.

उन्होंने कहा था कि सभी राज्य सरकारों को मल्टी लेवल मार्केटिंग से जुड़ीं संस्थाओं के संबंध में चेतावनी दे दी गयी है. राज्य सरकारों को इस बाबत चिट्ठी भी लिखी गयी है और उन्हें सतर्क रहकर इन कंपनियों के खिलाफ उचित कार्रवाई करने के लिए कहा गया है. उल्लेखनीय है कि इस संबंध में जेएस कृष्ण कुमार कमेटी की रिपोर्ट अब भी केंद्र सरकार के पास लंबित है.

* पृथक रेगुलेटर की मांग कर रहा सेबी
सेबी के चेयरमैन यूके सिन्हा ने हाल में संवाददाताओं से बातचीत में कहा था कि इन कंपनियों द्वारा जिस तरह के वादे किये जाते हैं, वे कोई भी जायज व्यापारिक गतिविधियों के जरिये पूरे नहीं किये जा सकते. कुछ कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई की गयी और जांच भी शुरू हुई है.

कुछ मामलों में अंतरिम आदेश भी मिला, लेकिन ये कंपनियां अदालत जाकर राहत हासिल कर लेती हैं. बड़ी तादाद में लोग ऐसी योजनाओं में पैसे लगा रहे हैं. ये कंपनियां कानून में खामियों का सहारा लेती हैं. सरकार से नये नियमों को बनाने का अनुरोध किया गया है, ताकि एक रेगुलेटर (नियामक) इन कंपनियों के लिए हो सके.

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