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बोस इंस्टीट्यूट ने कैंसर के इलाज की खोजी दवा

कोलकाता. कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट के अनुसंधाकर्ताओं ने कैंसर मेटास्टेसिस यानी कैंसर के स्थानांतरण को रोकने में एक कदम आगे बढ़ा है. कैंसर मेटास्टेसिस में कैंसर के सेल्स मूल हिस्से से निकलकर शरीर के दूसरे हिस्सों में भी फैलने लगते हैं. अनुसंधान के नतीजों के जरिए कैंसर के स्थानांतरण को काफी हद तक नियंत्रित करने […]

कोलकाता. कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट के अनुसंधाकर्ताओं ने कैंसर मेटास्टेसिस यानी कैंसर के स्थानांतरण को रोकने में एक कदम आगे बढ़ा है. कैंसर मेटास्टेसिस में कैंसर के सेल्स मूल हिस्से से निकलकर शरीर के दूसरे हिस्सों में भी फैलने लगते हैं. अनुसंधान के नतीजों के जरिए कैंसर के स्थानांतरण को काफी हद तक नियंत्रित करने में सफलता मिली है, जिसके जरिये कैंसर से होने वाली मौतों को भी कम किया जा सकेगा. हालांकि इस दवा का करीब 40 मरीजों पर परीक्षण किया जा चुका है लेकिन इस दवा को क्लिनिक तक पहुंचने में कुछ वक्त और लगेगा.
17 अनुसंधानकर्ताओं की टीम ने एक ऐंटी-मेटास्टेसिस दवा की खोज की है. इस अनुसंधान के नतीजे अमेरिकी जर्नल ‘ऑन्कोटार्गेट’ में प्रकाशित हुए हैं. इस टीम के मुख्य अनुसंधानकर्ता व बायोफिजिक्स के प्रफेसर शुभ्रांशु चटर्जी ने कहा कि मेटास्टेसिस यानी कैंसर का स्थानांतरण क्यों होता है, अब तक इसका कारण पता नहीं चल पाया था जिस वजह से इसका इलाज भी संभव नहीं था, लेकिन अब हमनें मेटास्टेसिस का कारण खोज लिया है, मेटास्टेसिस रिबोन्यूक्लिक एसिड यानी आरएनए की वजह से होता है जिसे लिंक-00273 भी कहते हैं.

श्री चटर्जी ने कहा कि इस आरएनए की वजह से ही कैंसर के सेल्स शरीर के दूसरे हिस्सों में फैलने लगते हैं. हमारा लक्ष्य था कि हम इस बात की पुष्टि करें और छह साल के रिसर्च के बाद हमें इसमें सफलता हासिल हुई है. उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने अनुसंधान में पंजाब नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मसूटिकल एडुकेशन एंड रिसर्च से भी काफी मदद मिली.

मेटास्टेसिस का इलाज ढूंढने के क्रम में इन अनुसंधाकर्ताओं ने करीब 16 हजार 500 दवाओं की जांच की. इस टीम के मुख्य अनुसंधाकर्ता जी मुखर्जी ने बताया कि एक दवा है जिसका नाम एम-2 है. इस दवा के जरिए शरीर में लिंक-00273 आरएनए का उत्पादन बंद हो जाता है और इसके साथ ही कैंसर सेल्स के स्थानांतरण यानी मेटास्टेसिस की प्रक्रिया भी रुक जाती है. अनुसंधाकर्ताओं की टीम ने सबसे पहले इस दवा का परीक्षण एक चूहे पर किया. इसके बाद टीम ने इंसान के कैंसर वाले ट्यूमर सेल्स को चूहे के शरीर में डाला और दोबारा दवा का परीक्षण किया जिसके बाद उन्हें सफलता हासिल हुई. जगदीश चंद्र बोस ने 1917 में बोस इंस्टिट्यूट की स्थापना की थी.

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