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पंगेशियस मछली के जीरा उत्पादन में झारखंड को मिली सफलता

रांची:देश में पंगेशियस मछली के जीरा (बीज) उत्पादन में झारखंड को सफलता मिल गयी है. प्रयोग सफल रहने के बाद पांच करोड़ पंगेशियस जीरा का उत्पादन शुरू कर दिया गया है. जुलाई के अंतिम सप्ताह से जीरा मछली उत्पादकों को मिलने लगेगा. यह उपलब्धि मत्स्य निदेशालय के सहयोग से चांडिल डैम के विस्थापितों के लगातार […]

रांची:देश में पंगेशियस मछली के जीरा (बीज) उत्पादन में झारखंड को सफलता मिल गयी है. प्रयोग सफल रहने के बाद पांच करोड़ पंगेशियस जीरा का उत्पादन शुरू कर दिया गया है. जुलाई के अंतिम सप्ताह से जीरा मछली उत्पादकों को मिलने लगेगा. यह उपलब्धि मत्स्य निदेशालय के सहयोग से चांडिल डैम के विस्थापितों के लगातार प्रयास से हासिल हुआ है.

यह अपने-आप में एक बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी, क्योंकि पूरे भारत में पंगेशियस मछली के जीरा का उत्पादन कहीं नहीं होता है. पंगेशियस का जीरा बांग्लादेश से लाया जाता है. राज्य के मछली उत्पादक भी प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च कर बांग्लादेश से पंगेशियस का जीरा लाते हैं. यही स्थिति पूरे देश के मछली उत्पादकों की है. अपने राज्य में जीरा के उत्पादन में सफलता मिलने के बाद अब उत्पादकों के करोड़ों रुपये बाहर जाने से बचेंगे, साथ ही करोड़ों रुपये की आमदनी भी होगी. झारखंड के जलाशयों में केज कल्चर विधि से पंगास (पंगेशियस) मछली का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा रहा है. केज कल्चर में झारखंड पूरे देश में अव्वल है. राज्य सरकार के निर्देश के आलोक में पंगास के अलावा अन्य प्रजाति की मछलियों के जीरा उत्पादन शुरू करने के लिए विभिन्न प्रकार के हैचरी का निर्माण मत्स्य निदेशालय द्वारा शुरू किया गया है.

जीरा उत्पादन में कैसे मिली सफलता : जलाशयों में केज कल्चर विधि से पंगास मछली का उत्पादन शुरू किया गया था. मछली का जीरा बांग्लादेश से लाया गया. एक मछली के जीरे की कीमत एक रुपये थी. करोड़ों रुपये बांग्लादेश जाने लगे. इस पर मत्स्य निदेशालय ने राज्य में ही पंगास का जीरा तैयार करने का निर्णय लिया. निदेशालय के सहयोग से चांडिल डैम विस्थापित मत्स्यजीवी सहयोग समिति ने पंगास का जीरा तैयार करने का निर्णय लिया. वर्ष 2012-2013 से पंगास मछली का ब्रूडर तैयार किया जाने लगा. आज 6000 ब्रूडर स्टॉक उपलब्ध है. समिति के सचिव नारायण गोप बताते हैं कि वर्ष 2015 में उन्होंने अपने गांव में पंगास का जीरा तैयार करने का प्रयोग किया था. जीरा तैयार करने में उन्हें सफलता मिली. देवाशीष गुप्ता विभागीय अधिकारियों के साथ उनके गांव आकर पंगास के जीरे के उत्पादन को स्वयं देखा था. उन्होंने सराहना भी की थी, लेकिन वह प्रयास छोटे स्तर पर था. प्रयोग सफल रहने पर वर्ष 2016 में बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू करने का निर्णय लिया गया. समिति द्वारा डैम परिसर में ही हैचरी कांप्लेक्स का निर्माण कर जीरा उत्पादन शुरू किया गया है. इस कार्य में मत्स्य प्रसार पदाधिकारी धनराज कॉप्से, डा प्रशांत कुमार दीपक व किसान प्रशिक्षण केंद्र के अनुदेशक डॉ प्रदीप कुमार से काफी सहायता मिली. पांच करोड़ उत्पादन का लक्ष्य है. मालूम हो कि राज्य में सात करोड़ पंगास मछली के जीरे की मांग है.
विस्थापितों की मुख्य आजीविका है केज कल्चर से मछली पालन : पशुपालन एवं मत्स्य विभाग ने चांडिल डैम से हुए 116 गांवों के 20,000 विस्थापितों को अपनी योजनाअों से जोड़ना शुरू किया. 2010 के बाद से विस्थापितों को मछली उत्पादन से जोड़ा जाने लगा. इससे पहले भी चांडिल डैम में विस्थापित मछली मार कर अपनी आजीविका चलाते थे, लेकिन उस वक्त उनकी आमदनी कम थी. कोई व्यवस्थित सिस्टम नहीं था. मत्स्य निदेशालय की योजना का लाभ उठा कर विस्थापितों ने चांडिल डैम विस्थापित मत्स्यजीवी सहयोग समिति का गठन किया. समिति के अध्यक्ष श्यामल मार्डी व सचिव नारायण गोप के मुताबिक इस समिति के अंदर 16 अन्य समितियों को जोड़ा गया है. समिति के 1400 सदस्य है. मछली पालन व्यवसाय से लगभग 17000 विस्थापित जुड़े हुए हैं. चांडिल डैम के निर्माण से 20,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए थे. मत्स्य निदेशालय के सहयोग से केज कल्चर से मछली पालन करना विस्थापितों का मुख्य व्यवसाय बन गया है. इससे विस्थापितों की आजीविका चलती है.
2600 केज में हो रहा है मछलीपालन 12,000 एमटी हुआ पं गेशियस का उत्पादन
विभिन्न जलाशयों में फिलहाल 2600 केज में पंगास का उत्पादन किया जा रहा है. लगभग 12000 मिट्रीक टन (एमटी) पंगास का उत्पादन किया जा रहा है. वहीं, चांडिल डैम में सबसे अधिक 800 केज में उत्पादन किया जा रहा है. यहां वर्ष 2013-2014 से उत्पादन शुरू हुआ था. 186 एमटी पंगास मछली का उत्पादन हुआ था. चांडिल डैम से इस वर्ष 1000 मिट्रिक टन (एमटी) उत्पादन का लक्ष्य है. तेनूघाट डैम में 600, तिलैया डैम में 600, मैथन डैम में 300, अजय बराज में 200 केज में पंगास का उत्पादन किया जा रहा है. इसके अलावा पतरातू डैम, मसानजोर डैम सहित कई जलाशयों में भी उत्पादन हो रहा है.

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