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20 साल की लड़ाई में कुछ भी नहीं बदला

प्रेम डायन प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए हमें 20 साल से ऊपर हो गये. इन 20 सालों में इस समस्या को लेकर कोई बड़ा मूलभूत सुधार हुआ हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता. शायद इसका कारण समाज के मानस पटल पर इसकी जड़ों का गहराई से बैठ जाना रहा हो. डायन होने का जो […]

प्रेम
डायन प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए हमें 20 साल से ऊपर हो गये. इन 20 सालों में इस समस्या को लेकर कोई बड़ा मूलभूत सुधार हुआ हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता. शायद इसका कारण समाज के मानस पटल पर इसकी जड़ों का गहराई से बैठ जाना रहा हो. डायन होने का जो सामाजिक मिथ है, वह इतना मजबूत हो गया है कि जिंदगी का प्रतिरूप दिखाई देने लगा है.
अब देखिए ना, शहरी जीवनशैली में जहां यह समस्या नहीं के बराबर है, वहां भी बच्चों से लेकर बड़ों के दिमाग में यह घर किया हुआ है कि डायन है. टीवी सीरीयल, फिल्मों, कहानियों, उपन्यासों में इसका महिमा मंडन किया जाता है. यह खतरनाक है.
इसलिए जब ‘पीपली लाइव’ का गाना ‘महंगाई डायन खाये जात है’आया तो हमने विरोध किया. ऐसी चीजें इस मिथ को और स्थापित करती हैं और इसका व्यापक असर होता है. हां, कुछ परिवर्तन दिखते हैं, पर वे उदाहरणों के तौर पर ही हैं अभी. डायन करार दी जाने वाली महिलाओं को अब परिवार से सपोर्ट मिलने लगा है. सामाजिक स्तर पर भी कुछ लोग सामने आकर इसका विरोध कर रहे हैं. हाल ही में सरायकेला-खरसावां जिले में कोलाबीरा प्रखंड के निमाईडीह गांव में डायन का एक मामला आया.
वहां के शिक्षक आनंद सिंह सरदार इस मामले को लेकर मध्यस्थता की. जिसके बाद दोनों पक्षों में समझौता हुआ और गांव में भोज भी दिया गया.
दरअसल, इस समस्या से लड़ना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है. किसी भी सामाजिक समस्या को लेकर कंसेप्ट स्पष्ट होना चाहिए. पहले तो किसी भी सामाजिक समस्या को समस्या माना नहीं जाता. जब मान लिया जाता है, तो उसके अनुसार रणनीति नहीं बनती.
जिस वर्ग में यह समस्या है, वह ज्यादातर शोषित वर्ग है. यानी ट्राइब्स, एससी और पिछड़ी जातियों में. इस वर्ग की 80 फीसदी आबादी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटी हुई है. इसलिए हम इनकी बात ही नहीं करते. एक तरह से हमारा शासक वर्ग इन्हें इंसान ही नहीं समझता. वोट बैंक जरू र समझता है. डायन प्रथा को बढ़ाने में ओझा-गुणियों की खास भूमिका होती है. ये ओझा-गुणी गांव में प्रभावी भी होते हैं.
इसलिए कई बार शासक या राजनीतिक वर्ग अपने वोट बैंक की चिंता में इनका विरोध तक नहीं करते. यही कारण है कि जब डायन प्रथा के खिलाफ बिहार विधान मंडल से कानून पारित कराया गया, तो उस समय भी विरोध का सामना करना पड़ा. झारखंड बनने के बाद हमें लगा कि अब हमारी लड़ाई थोड़ी आसान होगी. वर्ष 2001 में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम को कैबिनेट ने अंगीकृत तो कर लिया, लेकिन उसके बाद यह मामला राजनीतिक गलियारे और नौकरशाही में ऐसा उलझा कि सभी रास्ते धीरे-धीरे बंद होते चले गये. जितनी भी शासनिक व्यवस्थाएं की गयीं, उनमें से ज्यादातर महज आइवाश थे.
हमने सरकार के सामने डायन प्रथा के उन्मूलन के लिए चार रास्ते रखे. शिक्षा, स्वास्थ्य, हर्बल मेडिसिन और जागरूकता. कोल्हान विश्वविद्यालय से इस मसले पर हमारी बात चल रही है कि डायन प्रथा उन्मूलन विषय को कोर्स में शामिल किया जाये. हमने इसका प्रारूप भी तैयार कर लिया है, यह जल्द संभव है. हम जैक और शिक्षा विभाग को प्रतिवेदन देकर इसकी मांग करेंगे कि इसे मानवशास्त्र या समाजशास्त्र के अंतर्गत शामिल किया जाये.
हम गांवों में हर्बल पार्क बनाने की भी मांग कर रहे हैं, जिसमें इन ओझा-गुणी को शामिल किया जाये. जड़ी-बुटियों के बारे में इनके ज्ञान का हमें उपयोग करना चाहिए. इन्हें कुछ मानदेय भी मिले, इन पर यह भी जिम्मेदारी हो कि गांव में डायन का कोई मामला नहीं आये, नहीं तो मानदेय बंद कर दिया जायेगा. हम डायन प्रथा की शिकार होने वाली महिलाओं और उसके परिवार को इंशोरेंस देने की भी मांग कर रहे हैं. कोल्हान इस मामले में नजीर बन सकता है.
हम इन मांगों को एक बार फिर झारखंड की नयी सरकार के सामने रखने जा रहे हैं. बहुमत की सरकार से हमें उम्मीद है कि वह इस समस्या की जड़ को समझते हुए इसका सामाजिक आर्थिक हल निकालने का प्रयास करेगी.
(लेखक डायन प्रथा उन्मूलन संस्था फ्लैक के संस्थापक सदस्य हैं)

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