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पत्रकारिता व पत्रकार में मूल्यों की गिरावट खतरनाक
वरिष्ठ पत्रकार रहे सुनील श्रीवास्तव ने प्रभात खबर सहित देश के नामी पत्र-पत्रिकाओं माया, धर्मयुग, मनोरमा व लोकमत समाचार में काम किया है. माया में सहायक संपादक तथा मनोरमा में संपादक रह चुके हैं. दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में भाग लेने आये सुनील गत दो दिनों से रांची में हैं. अभी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में सेंटर […]
वरिष्ठ पत्रकार रहे सुनील श्रीवास्तव ने प्रभात खबर सहित देश के नामी पत्र-पत्रिकाओं माया, धर्मयुग, मनोरमा व लोकमत समाचार में काम किया है. माया में सहायक संपादक तथा मनोरमा में संपादक रह चुके हैं.
दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में भाग लेने आये सुनील गत दो दिनों से रांची में हैं. अभी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज के विभागाध्यक्ष श्री श्रीवास्तव ने प्रभात खबर संवाददाता संजय से पत्रकार व पत्रकारिता से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की है.
आपकी समझ से पत्रकारिता की वर्तमान चुनौतियां क्या हैं?
समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दे हमेशा से पत्रकारिता की चुनौती रही है. अभी पत्रकार की हत्या पर सरकार व पत्रकार दोनों चुप हैं, यह भी चुनौती है. हमारा उत्तरदायित्व समाज के प्रति है. इन दिनों पत्रकारों पर खबरों में कंटेंट बदलने और इनमें विचार थोपने का बढ़ रहा दबाव भी पत्रकारिता के लिए बड़ी चुनौती है. अखबार अब उत्पाद बन गये हैं. यह उपभोक्ता के लिए निकल रहे हैं. पहले अखबार सामाजिक हित में मिशन हुआ करते था.
खास तौर पर पत्रकारों का संकट क्या है?
पत्रकारिता में ग्लैमर बढ़ा है, पर ऊर्जा, निष्ठा व ईमानदारी कम हो रही है. पत्रकार पढ़ नहीं रहे. इनमें चारित्रिक गिरावट भी आ रही है.
पत्रकार व पत्रकारिता के इस संकट का असर कहां हो रहा है?
इससे समाज की बात कम हो रही है. आर्थिक-सामाजिक स्थिति में सुधार के प्रयास पर इसका असर पड़ रहा है. हम आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रहे. दरअसल जब सोच ही पूंजीवादी हो, तो असर तो पड़ना ही है.
कुछ लोग कहते हैं कि पत्रकार व पत्रकारिता की विश्वसनीयता कम हो गयी है. इसलिए इसकी कही-लिखी बातों पर समाज में चर्चा कम होती है, कोई आंदोलन खड़ा नहीं होता?
अच्छे विषयों पर लिखता कौन है. विश्वसनीयता से ज्यादा यह समाज से जुड़े विषय चुनने का मामला है. आखिर अन्ना के आंदोलन तो मीडिया के सहायता से ही खड़ा हुआ. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल तथा दिल्ली में सत्ता परिवर्तन मीडिया की मार्फत ही तो हुआ. लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन मीडिया से ही तो होता है.
क्या मतदाता सचमुच मीडिया से प्रभावित होता है या वह अपना मत खुद तैयार करता है?
यह ठीक है कि मत अपना होता है, पर यह मत बनाने में अखबार-मीडिया का रोल है. मीडिया की बात पाठक को सोचने पर मजबूर करती है. प्रभात खबर व इस जैसे दूसरे अखबारों की विश्वसनीयता बढ़ रही है, तभी तो इनका प्रसार भी बढ़ रहा है.
इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के प्रभाव पर चर्चा होती है. आप किसे ज्यादा प्रभावशाली मानते हैं?
यह सोचें कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रहते प्रिंट मीडिया क्यों पल-बढ़ रहा है. प्रिंट मीडिया स्थानीयता से ज्यादा जुड़ा है. यह ज्यादा स्थायी भी है और यही इसकी ताकत है.
अनुभवी लोगों के अनुसार नयी पीढ़ी के पत्रकारों में धैर्य व गंभीरता नहीं दिखती, आपका क्या अनुभव है?
करीब 50 फीसदी युवा इन दिनों ग्लैमर देख कर पत्रकारिता करने आ रहे हैं. ये शुरुआत में ही प्रधानमंत्री का साक्षात्कार करना चाहते हैं. पैसा कमाने की इन्हें जल्दी है, पर ग्रामीण परिवेश से आये युवाओं में एक गंभीरता दिखती है. वे कुछ करना चाहते हैं.
अंत में पत्रकारों के लिए कोई संदेश?
पत्रकारिता व पत्रकार में मूल्यों की गिरावट खतरनाक है. पत्रकार पढ़ते रहें तथा समाज से खुद को जोड़े रखें. पढ़ाई, ईमानदारी व भाषा ठीक हो, तो आप आगे जायेंगे.
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