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मेरी प्यारी रांची तब और अब
ग्रामीण विकास के दृष्टिकोण से कुछ मधुर संस्करण स्वामी शशांकानंद मनुष्य के जीवन में संस्मरण तब मधुर और अमृतमय हो जाते हैं, जब उसके जीवन की सफलताएं दूसरों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन जायें. जब उसे महसूस हो कि ईश्वर उसे अपना यंत्र बना कर अपना कार्य करा रहे हैं. रांची मोरहाबादी स्थित रामकृष्ण […]
ग्रामीण विकास के दृष्टिकोण से कुछ मधुर संस्करण
स्वामी शशांकानंद
मनुष्य के जीवन में संस्मरण तब मधुर और अमृतमय हो जाते हैं, जब उसके जीवन की सफलताएं दूसरों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन जायें. जब उसे महसूस हो कि ईश्वर उसे अपना यंत्र बना कर अपना कार्य करा रहे हैं. रांची मोरहाबादी स्थित रामकृष्ण मिशन आश्रम की पुण्य स्मृतियां मेरे लिए वैसी ही हैं.
रामकृष्ण विवेकानंद भावधारा के एक सन्यासी के लिए अविभाजित रांची (रांची, खूंटी एवं रामगढ़) एक साधना स्थल रहा, जहां उस देवता की पूजा करने का सुअवसर मिला, जिसे स्वामी विवेकानंद ने पावन मंत्र के रूप में उच्चरित किया, दरिद्र देवो भव, मूर्ख (अशिक्षित) देवो भव, रोगी देवो भव. श्री रामकृष्ण देव ने इसी देवता की पूजा के लिए दृष्टि देते हुए ‘शिव ज्ञान से जीव सेवा’ का मूल मंत्र फूंका था.
सारे विश्व को स्वामी विवेकानंद ने, ‘आत्मनो मोक्षरथ जगद्धिताय च’ इस मंत्र से मुक्ति का अनुपम उपाय बताया. अर्थात हम कर्म इस प्रकार करें कि स्वयं के भवबंधन से मुक्ति और लोगों का कल्याण हो. रामकृष्ण मिशन की निष्काम सेवाओं का यही अहेतुकी कारण है. प्रस्तुत लेख में मैं केवल उन्हीं संस्मरणों का उल्लेख करना चाहूंगा, जो रांची के ग्राम विकास से संबंधित हैं.
रांची तब और अब : पहली बार जब रांची आया, तब मेरे लिए यह बिहार का एक अपरिचित जिला था. मैं ब्रrाचारी निगरुण चैतन्य 1971 में रायपुर से जमशेदपुर होते हुए रांची बस स्टैंड पहुंचा और एक रिक्शा रामकृष्ण मिशन आश्रम मोरहाबादी के लिए भाड़ा पर ले ली. संध्या का समय अंधकार बढ़ता गया. केवल जंगल ही दिखाई दे रहा था. करमटोली चौक के बाद तो भीषण जंगल लग रहा था. भय लगने लगा दिल भी बेचैन होता जा रहा था.
रास्ते का अंत भी तो नहीं दिख रहा था. रिक्शा वाले का बार-बार आश्वासन रहते हुए भी निर्भय नहीं हुआ. मैंने रिक्शा वाले को डांटते हुए मुङो वहीं उतार देने को कहा. रिक्शा वाले ने कहा, घबराइये मत वह सामने एक छोटी सी बत्ती जल रही है न वही आपका आश्रम है. आज 2015 में वहीं मोरहाबादी गगनचुंबी अट्टालिकाओं से भरा है, दुकानों से सजा है, अंधेरी रात भी उजालों से भरी है और आश्रम के सामने की सड़क वाहनों की बहती नदी जैसी दिखाई देती है. तब रांची बिहार का एक जिला था और अब झारखंड की राजधानी है. मोरहाबादी ही क्यों, रांची के सुनसान वीरान इलाकों में कितनी चहल-पहल और व्यस्तता दिखाई देती है.
अब रांची वह रांची नहीं थी. ऊंची-ऊंची इमारतें बनीं, सड़कें बनीं, बाजारों की चहल-पहल बढ़ी, मोटरगाड़ी अधिक चलने लगी, रिक्शाएं कम हुई. पहले तो मैं आसानी से मोटरसाइकिल से मेन रोड आ जाता था, अब तो ट्रैफिक इतना अधिक हो गया है कि जगह ही नहीं मिलती. वीरान जगहें भी आबादी में बदल गयी. सष्माचार पत्रों की संख्या बढ़ी. ऐसा लगा मानो गहरी नींद से रांची जग रही हो. पहले सड़कों पर माताओं की पीठ पर कपड़े की झोली से झांकते हुए नन्हे-मुन्हे मुख दिखाई देते थे, पर अब कोई एक आध ही ऐसा मनोरम नजारा दिख पड़ता था.
रामकृष्ण मिशन आश्रम में ग्राम विकास का महायज्ञ:
झारखंड की पृथ्वी पर शिव ज्ञान से जीव सेवा की भावना से ग्रामीण दरिद्र लोगों की सेवा का श्रीगणोश तीर्थ भ्रमण पर जाते हुए युगावतार भगवान श्रीरामकृष्ण देव ने स्वयं देवघर के एक दरिद्र मोहल्ले में जनवरी सन 1868 ई में किया. उन्होंने दक्षिणोश्वर मंदिर कोलकाता के मालिक मथुराराम से दरिद्रनारायण को अन्न एवं वस्त्र बंटवाये थे.
उसके उपरांत सन 1927 ई में रामकृष्ण मिशन आश्रम संघ के आठवें परमाध्यक्ष परम पूज्य स्वामी विशुद्धानंदजी महाराज ने मोराबादी रांची में आश्रम को प्रतिष्ठित किया. दीर्घ काल तक अपनी तपस्या से इस आश्रम को साधना स्थल बना दिया. उनकी तपस्या से ऊजिर्त पुण्य भूमि पर मैंने 1971 में प्रवेश किया. आश्रम के तत्कालीन सचिव महाराज के द्वारा 1969 ई में शिव ज्ञान से जीव सेवा का महायज्ञ आरंभ हुआ, उसका शैशव मैंने देखा. सूखाग्रस्त बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में अन्नदाताओं को अन्न पैदा करने में विफल देख सूखी खेती का प्रशिक्षण आरंभ कर यज्ञ का संकल्प किया. संकल्प के बाद दिव्यायन रूपी अग्नि प्रज्वलित कर प्रशिक्षण रूपी आहूति दी जाने लगी. वैज्ञानिक ढंग से खेतीबाड़ी, बागवानी, मधु-मक्खी पालन, गो-पालन तथा मुर्गी पालन का छह सप्ताह का प्रशिक्षण दिया जाने लगा. दिव्यायन का अर्थ है दिव्य पथ. भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक उपलब्धि की ओर ले जानेवाला दिव्य पथ है दिव्यायन.
दिव्यायन के प्रशिक्षण कार्य में क्लास लेना, मंदिर में पूजा करना, होम्योपैथिक चिकित्सालय में चिकित्सा करना, पाठ्य पुस्तकें लिखना तथा गांवों के हाट में प्रचार करना, रात्रि-पाठशालाओं की देखरेख, बच्चों में दूध वितरण तथा स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता, किसान युवकों से मिलना आदि शामिल थे. गांवों में दृश्य-श्रव्य (ऑडियो-विजुअल) के माध्यम से जागरूकता आदि कार्यो का भार जब मुङो दिया गया, तो मैंने अपने को धन्य माना, क्योंकि इसे अपनी पाठशाला माना. मैंने ग्रामोन्नयन के सभी आयामों को समझा, सीखा और कुछ सृजनात्मक कार्य करने की प्रेरणा पायी. उस समय रांची में कृषि विश्वविद्यालय नहीं था, कृषि महाविद्यालय और पशु-पालन महाविद्यालय थे.
पशु महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ एचआर मिश्र तथा कृषि महाविद्यालय के पशु विभाग के डॉ हमीद ने मुङो पशुपालन का ज्ञान दिया. मैं उनका आभारी हूं. दिव्यायन के उप-प्राचार्य कार्यभार सौंपने से पहले मुङो मधु-पालन का प्रशिक्षण दे गये और बाद में खादी ग्रामोद्योग रांची से मुङो और भी विशेष ज्ञान मिला.
जारी..
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