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सरदार पटेल-देश-विदेश का बॉटम

लौहपुरुष : आजादी और किसान आंदोलन के प्रणेता सरदार के लिए सर्वोपरि था देशहितइंट्रोसरदार वल्लभ भाई पटेल को आज विभिन्न विचारधाराओं के लोगों में अपनाने की होड़ है. अभी 31 अक्तूबर को सरदार का जन्मदिन ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाया गया. फिर भी सरदार को लेकर हमेशा से कुछ भ्रांतियां रही हैं. प्रस्तुत […]

लौहपुरुष : आजादी और किसान आंदोलन के प्रणेता सरदार के लिए सर्वोपरि था देशहितइंट्रोसरदार वल्लभ भाई पटेल को आज विभिन्न विचारधाराओं के लोगों में अपनाने की होड़ है. अभी 31 अक्तूबर को सरदार का जन्मदिन ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाया गया. फिर भी सरदार को लेकर हमेशा से कुछ भ्रांतियां रही हैं. प्रस्तुत लेख में सरदार के बारे में बताया गया है कि उनके लिए व्यक्ति नहीं, देशहित सर्वोपरि था. केसी त्यागीसरदार पटेल को लेकर कुछ भ्रांतियां हमेशा से विद्यमान रहीं कि वे किस विचारधारा या व्यक्तियों से ज्यादा करीब थे. अगर हम इतिहास के पन्नों में देखें, तो प्रतीत होता है कि उनका व्यवहार समाजवादियों, साम्यवादियों, हिंदू महासभा या कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ वक्त और सवालों के साथ गुण एवं दोष के आधार पर बदलता रहा. गांधी जी के अनुयायी सरदार पटेल को अगर गांधी जी या पंडित नेहरू के किसी निर्णय से असहमति होती, तो उसका भी वे पुरजोर विरोध करते थे. चाहे वह गुजरात के किसानों के जब्त जमीनों को वापस करने के मसले पर असहमति हो या समय-समय पर जवाहर लाल की नीतियों पर. सरदार पटेल यद्यपि विदेश नीतियों पर विशेष दखल नहीं रखते थे, परंतु तिब्बत और चीन के मसले पर उन्होंने नेहरू को विशेष रूप से सावधान किया था, जिसको पंडित नेहरू द्वारा अनदेखा करने से देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी. पटेल ने गांधी जी की हत्या के बाद 19 सितंबर, 1948 को उस समय के संघ प्रमुख सदाशिव गोलवलकर को लिखे पत्र में कहा था, ‘हिंदुओं का संगठन करना, उनकी मदद करना एक बात है, पर उनकी मुसीबतों का बदला निहत्थी व लाचार औरतों, बालकों और आदमियों से लेना दूसरी बात.’ २सरदार पटेल ने गृह मंत्री की हैसियत से चार फरवरी,1948 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध की अधिसूचना जारी कर दी. यद्यपि संघ से जुड़े लोग सरदार को वैचारिक तौर पर अपने करीब ठहराते रहे हंै.सरदार पटेल के मन में देश की परतंत्रता की चिंता थी. अपने प्रारंभिक काल में वे सब कुछ जान चुके थे, लेकिन वे उग्रवादियों और उदारवादियों दोनों की कार्य-पद्धति को केवल ब्रिटिश साम्राज्य की खुशामदगीरी से अधिक कुछ नहीं मानते थे. वे अवश्य ही किसी निश्चित दिशा की खोज में थे. इसी बीच, वे गांधी जी के संपर्क में थोड़ा आने लगे. वे अहमदाबाद नगरपालिका सदस्य, तदुपरांत नगरपालिका में सेनेटरी समिति के सभापति चुने गये. वे यहां से सार्वजनिक जीवन को पूर्णतया स्वीकार कर चुके थे, तदुपरांत गांधी जी का संपर्क मिला, तो एक स्पष्ट दिशा मिल गयी.उन्होंने लगातार अनेक सफल सत्याग्रहों का संचालन किया और अहिंसा तथा सविनय अवज्ञा मार्ग से, हट कर, अनुशासन के हथियार को लेकर प्रत्यक्ष मार्गदर्शन द्वारा, प्रभावपूर्णता से जन-मानस को संगठित किया. सरदार की सत्याग्रह के क्षेत्र में यह उपलब्धि उनके स्वराज के लिए किये गये कार्यों के साथ सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखी जायेगी. साथ ही, उनको भारत के इतिहास में अमर स्थान प्रदान करायेगी. सरदार के आंदोलनकारी जीवन की एक विशेषता थी कि उनका आंदोलनकारी जीवन किसानों की आत्मा को प्रकट करता था. यद्यपि कई आंदोलन उन्होंने समस्त जनता के लिए किये थे, लेकिन सरदार किसानों को देश की आत्मा मानते थे, मजदूरों को उनका साथी और शेष को विभिन्न क्षेत्रों के किसानाश्रित. खेड़ा सत्याग्रह महात्मा गांधी के जीवन का भारत में दूसरा और सरदार के जीवन का प्रथम सत्याग्रह था. 1919 में वर्षा ऋ तु में खेड़ा जिले में अतिवृष्टि हुई, तो समस्त फसल ही मारी गयी. यहां तक कि पशुओं के लिए चारा भी नहीं रहा. जाड़े की फसल भी खराब हो गयी और छोटे और निर्धन किसानों के लिए कठिनाई हो गयी. समस्या यह थी कि भूमि की लगान कैसे चुकाएं. लगान कानून यह था कि हर वर्ष फसल का अनुमान लगाया जाए और फसल छह आने से कम प्रतीत हो, तो आधा लगान स्थगित कर दिया जाए. यदि चार आने से कम प्रतीत हो, तो पूरा स्थगित कर दिया जाए और बाद का भी वर्ष खराब निकल जाए, तो पूर्व वर्ष का स्थगित किया गया लगान माफ कर दिया जाए. परंतु, जब हर प्रकार से सरकार से मिन्नत करने के बाद भी अंगरेजी हुकूमत ने लगान वसूल करने की जिद नहीं छोड़ी और किसानों पर अत्याचार होने लगे, तब गांधी जी ने खेड़ा जनपद में संघर्ष आरंभ करने का फैसला किया और वल्लभ भाई ने इस सत्याग्रह में बापू का सहायक बन कर इस आंदोलन का दायित्व अपने ऊपर ले लिया. बापू भी यही चाहते थे कि इस आंदोलन का दायित्व सरदार संभालें.अब पटेल ने अपनी यूरोपीय वेश-भूषा त्याग कर और धोती-कुर्ता धारण कर खेड़ा जनपद की जनता को कष्ट से मुक्ति दिलाने हेतु सत्याग्रह के लिए गांधी के साथ ग्रामों में भ्रमण पर चल दिये. सरदार ने कष्ट का जीवन बितानेवाले किसानों के साथ अपनी एकरूपता स्थापित कर ली. तीन महीने तक इन्होंने इतना प्रभावशाली आंदोलन चलाया कि सत्याग्रह की गूंज हाउस ऑफ कॉमन्स में सुनाई दी.तीन जून, 1918 को गांधी जी जब नाडियाड तालुका पहुंचे, उनके पास तहसीलदार एक प्रस्ताव लेकर आये. इसमें यह कहा गया कि यदि अच्छी स्थितिवाले किसान अपना लगान भर दें, तो निर्धन किसानों का लगान माफ कर दिया जायेगा. गांधी जी ने इस प्रस्ताव को हालात के मद्देनजर स्वीकार कर लिया. गांधी जी को इस समझौते से संतोष तो नहीं हुआ, लेकिन उससे गुजरात के किसानों में जागृति पैदा हुई. भले ही आंशिक सफलता मिली, पर जीत का सेहरा गांधी जी ने सरदार पटेल के सिर पर बांधा. लेकिन, सरदार ने गांधी जी को ही बड़ा रखा तथा उनका सम्मान इन सुंदर शब्दों में व्यक्त किया, ‘भारत में महात्माओं और देवताओं की यह प्रथा रही है कि अपने को दी गयी प्रसादी वे स्वयं नहीं लेते, अपने पुजारियों को दे देते हैं. उसी प्रथा के अनुसार महात्मा जी ने सब कुछ मुझे अर्पण कर दिया. सच कहा जाये, तो मैंने कुछ भी नहीं किया.’ फिर भी यह आंदोलन चाहे गांधी जी के कर कमलों से प्रारंभ व उनके विचारों से बंद हुआ हो या संपूर्ण आंदोलन उनकी छत्रछाया में चला हो, वल्लभभाई ने प्रत्यक्ष नेतृत्व किया और उसे सफल बनाया.पटेल ने अन्याय के विरु द्ध संघर्ष, किसानों को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने, कष्ट सहन करने और एकता कायम रखने के आदर्श पर चल कर खेड़ा सत्याग्रह को सफल बनाया. गांधी ने अवश्य ही आंदोलन को सेनापति की छाया दी, पर उप-सेनापति होकर भी सरदार ही सेनापति रहे.यथा-गांधी जी का सिद्धांत द्वेष भावना से मुक्त था, तो बारडोली सत्याग्रह के समय (बारडोली सत्याग्रह पूर्णतया सरदार की छत्रछाया में जीता गया था) में यदि सरकारी अधिकारी अपना कर्तव्य करते हुए अचानक किसी विपत्ति में पड़ जाते, तो सत्याग्रही उनकी सहायता के लिए पहुंच जाते. कभी-कभी तो स्वयं वल्लभभाई भी अपने विरोधियों की संकट के समय सहायता करने लग जाते. सत्याग्रह की पूरी अवधि में एक पल के लिए भी उन्होंने विरोधियों के मन में यह भावना उत्पन्न न होने दी कि वे (अधिकारी) जनता के शत्रु हैं. न ही महसूस होने दिया कि जनता के दिल में उनके लिए द्वेष अथवा तिरस्कार की भावना है. सत्याग्रही जनता को इस बात की सुंदर शिक्षा सरदार से मिली कि संघर्ष में राग, द्वेष अथवा वैमनस्य की भावना रखे बिना अपना सवार्ेच्च ध्येय सिद्ध किया जा सकता है. दूसरे, गांधी ने सदा शांति का उपदेश दिया, तो सरदार ने भी इसका पालन करते हुए कहा कि सत्याग्रही के नाते हम शांति के लिए सदैव तत्पर व उत्सुक हैं. इसलिए हमें शांति का जो मार्ग दिखा, उसी को हमने स्वीकार किया. इसी परिपे्रक्ष्य में सत्याग्रही के नाते दूसरे की भलाई का दुरुपयोग गांधीवाद के विरु द्ध था, तो सरदार ने भी कहा कि किसी की भलमनसाहत का दुरुपयोग करना सत्याग्रही को शोभा नहीं देता.बारडोली आंदोलन में सरदार पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही. जब स्वराज की मांग करनेवाले नेता पूरे दम से सभाओं में स्वराज का नारा लगा रहे थे और विशेष लाभ होता नहीं दिख रहा था, सरदार पटेल गुजरात के गांवों में कड़ी मेहनत से किसानों को बारडोली आंदोलन के लिए एकजुट कर रहे थे, जो शीघ्र ही गांधी जी के नेतृत्व में आरंभ होनेवाला था. उनका मानना था कि पूरे देश में फैले हुए खामोश और गैर मुखर लोग भी उम्मीद से जल्द ही आजादी का झंडा उठा लेंगे. सन 1928 में सरदार पटेल ने गांवों के गरीब किसानों को बारडोली आंदोलन में शामिल करके पूरे देश में उत्तेजना पैदा कर दी, जो बारडोली सत्याग्रह के नाम से पूरे देश में प्रसिद्ध हुआ. दरअसल, बारडोली आंदोलन एक शक्तिशाली हलधर किसान की कहानी साबित हुई. बारडोली आंदोलन ने साबित कर दिया कि राज्य की सत्ता खामोश और गैर मुखर गरीब के हाथ ही होती है, न कि बातूनी राजनेताओं के.सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान समाजवादियों की जुझारू क्षमताओं की सरदार पटेल बहुत प्रशंसा करते थे. समाजवादियों और सरदार पटेल के बीच असली फर्क यह था कि वे जुझारू होते हुए भी अनुशासनवादी थे और सत्ता हस्तांतरण के दौरान वे सभी प्रकार के आंदोलनों के खिलाफ थे, चाहे वे देसी रियायतों की प्रजा के आंदोलन हों या किसानों-मजदूरों के. समाजवादी माई-बाप सरकार की कल्पना को नहीं मानते थे. वे चाहते थे कि जनता संघर्ष करे और अपने भीतर शक्ति की भावना पैदा करे. इसके विपरीत सरदार पटेल का विचार था कि आजादी के बाद के वर्षों (1947-50) को नये राज्य को मजबूत करने का समय माना जाये, न कि सामाजिक परिवर्तनों के प्रयोग करने का.देश के समाजवादी नेताओं ने सरदार पटेल को समझने में कुछ भूल की. वे सरदार पटेल को पूंजीपतियों का रक्षक, समर्थक और समाजवाद का विरोधी मानते थे. समाजवादियों के साथ पटेल के मतभेद हमेशा बने रहे और वे भी हमेशा समाजवादियों के निशाने पर रहे, परंतु यदि राष्ट्रहित पर बात आती थी, तो वे अपना रु ख इनके प्रति भी नरम करते रहे हैं. जिस तरह सन 1940 में मौलाना आजाद ने आचार्य नरेंद्र देव और यूसुफ मेहर अली को कार्यकारिणी और बैठकों में शामिल होने को कहा, उसमें भी पटेल की सहमति थी.बाद के दिनों में डॉ आंबेडकर, जय प्रकाश नारायण, डॉ लोहिया और मधु लिमये जैसे नेताओं ने यह महसूस किया कि सरदार पटेल की नीतियां पंडित नेहरू से बेहतर थीं. कुल मिला कर यही कहा जा सकता है की सरदार अपनी धुन के पक्के और अपने विचारों पर अडिग रहनेवाले नेता थे.न केवल देश को एक संघ में पिरोने की घटना, अपितु प्रशासन को सही अर्थों में प्रशासन बनाने, नौकरशाही को जनता की ओर मोड़ने, संविधान को पूर्णतया प्रजातांत्रिक बनाने, विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न समस्याओं का समाधान करने तथा देश के भविष्य को सुनिश्चित करने की घटनाएं सरदार पटेल को इतिहास में अमर स्थान प्रदान करती हैं. इससे भी अधिक देश के समाज व राजनीति को स्वस्थ, साफ नैतिकतापूर्ण, सुदृढ़, सर्वहितकारी, सजग और आदर्शमयी बनाने में भी सरदार पटेल ने अथक परिश्रम किया, जो उन्हें एक राजनेता, एक आंदोलनकारी, एक संगठनकर्ता, एक निर्माता तथा व्यवहारवादी व्यक्तित्व से भी अधिक एक चिंतक ठहराता है.(लेखक राज्य सभा के सांसद हैं)

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