रांचीः लोकसभा चुनाव के दौरान मीडिया की विश्वसनीयता का अभी आकलन करना जल्दबाजी होगी. कई बार चीजों को सही व स्पष्ट तरीके से देखने के लिए थोड़ी दूरी रखनी जरूरी होती है. होटल बीएनआर में आयोजित सेमिनार में आउटलुक के डिप्टी एडिटर उत्तम सेनगुप्ता ने ये बातें कहीं.
प्रभात खबर और एनएसएचएम इंस्टीटय़ूट ऑफ मीडिया एंड डिजाइन के संयुक्त तत्वावधान में इस सेमिनार का आयोजन किया गया था. इसका विषय था – क्या चुनाव के दौरान मीडिया विश्वसनीय रहा है? उन्होंने कहा कि पहले जब चुनाव कवरेज में जाते थे, तो टैक्सी वाले से लेकर गांव वालों तक से हवा का रुख पूछते थे.
एक बार एक टैक्सी वाले से पूछा कि हवा किधर है? तो उसने जवाब दिया- आपको किधर का चाहिए. एक जवाब तो मुङो अब तक याद है कि हवा तो चारों ओर है.
दरअसल 16 से 30 लाख तक की संसदीय सीटों पर कुछ लोगों से बात के आधार पर आकलन नहीं किया जा सकता. मीडिया भी यह दावा नहीं कर सकती. श्री सेनगुप्ता ने कहा कि यह ऐतिहासिक चुनाव रहा है. इसका अमेरिकीकरण कर दिया गया है. जैसे अमेरिका की मीडिया में राष्ट्रपति व सीनेट के सदस्यों की लोकप्रियता की दर (पॉपुलरिटी रेटिंग) का जिक्र होता है. उसी तरह हमारे यहां ओपिनियन पोल पांच साल पहले से आने लगे थे. वर्ष 2012 में दोबारा यह शुरू हुआ कि लोकसभा चुनाव-2014 में यूपीए का जाना व एनडीए का आना तय है.
उन्होंने कहा कि इस बार के चुनावी खर्च पर मीडिया में बहस होनी चाहिए थी. इसमें करीब 1500 करोड़ रुपये का अनुमानित खर्च हुआ. दूसरी ओर चुनाव आयोग के 3500 करोड़ के खर्च के आधार पर उन्होंने कहा कि लोकतंत्र सस्ता नहीं है. आम आदमी इसकी कीमत अदा करता है. मीडिया की विश्वसनीयता पर उन्होंने अपना निजी मत दिया कि कुछ लोग वाकई बिके हुए हैं. पहली बार यह हुआ है कि मीडिया अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने की कोशिश कर रहा है. पर अमेरिकीकरण के प्रभाव में ऐसा कर पाना चुनौती है.
मीडिया की निष्पक्षता के बारे में उन्होंने कहा कि आपके पास तलवार या दूसरे हथियार हों और आप किसी के बचाव के वक्त निष्पक्ष रहें, यह गलत है. मीडिया की कलम का इस्तेमाल होना चाहिए. किसी उद्देश्य के बगैर मीडिया की निष्पक्षता बेकार है. यह पहला चुनाव है, जिसे बड़े पैमाने पर टीवी पर दिखाया गया. भाजपा, कांग्रेस व अन्य ने अपने कार्यक्रमों की पूरी क्लिपिंग न्यूज चैनलों को उपलब्ध करायी. यानी इस पर चैनलों का अपना कोई खर्च नहीं था. यह पेड न्यूज है या नहीं, यह सोचना छोड़ दिया है. पर सवाल उठेगा. चैनलों के पास समस्या कंटेंट की भी है. दिल्ली में जो भी व्यापारी सौ करोड़ रुपये की हैसियत वाला है, उसने टीवी चैनल खोल दिया है. टीआरपी के लिए जो दिखने-बोलने में ठीक है, वही चलेगा. गलत या सही बहुत मायने नहीं रखता.
कार्यक्रम में पत्रकार हरिवंश ने कहा कि वह वर्षो से मानते रहे हैं कि मीडिया चुनाव को प्रभावित नहीं करता. 1977 के चुनाव में किसी ने नहीं सोचा था कि जनता पार्टी को इतनी बड़ी जीत मिलेगी. 2004 के फील गुड में यूपीए की वापसी का अंदाजा किसी को नहीं था. उसी तरह 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद इंदिरा लहर में कर्नाटक में हेगड़े सरकार बनायेंगे, यह कौन जानता था. तो मीडिया चुनावी राजनीति को प्रभावित नहीं करती.