दुमका : उभरते साहित्यकार और एसकेएम विश्वविद्यालय के पीजी संताली के छात्र बाबूधन मुर्मू ने संताली भाषा के लिए नयी लिपि तैयार की है. इस लिपि को संताली साहित्य जगह में स्थापित कराने के लिए वे संघर्षरत हैं. उन्होंने अपनी इस लिपि को एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित भी कराया है, जिसे नांवा संताली […]
दुमका : उभरते साहित्यकार और एसकेएम विश्वविद्यालय के पीजी संताली के छात्र बाबूधन मुर्मू ने संताली भाषा के लिए नयी लिपि तैयार की है. इस लिपि को संताली साहित्य जगह में स्थापित कराने के लिए वे संघर्षरत हैं. उन्होंने अपनी इस लिपि को एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित भी कराया है, जिसे नांवा संताली आखोर नाम दिया गया है.
बाबूधन का दावा है कि संताली भाषा के लिए 46 अक्षरों की जरूरत है, जैसा कि पीओ बोडिंग ने भी महसूस किया था और उन्होंने 9 स्वर व 37 व्यंजन वर्ण का उपयोग किया था, पर ओलचिकी जैसी लिपि में 30 ही अक्षर उपलब्ध हैं, 16 की कमी है. कई तरह के अर्द्ध व्यंजन इसमें नहीं है. उनका कहना है कि ओलचिकी में क, च, त एवं प की अर्द्ध मात्राएं नहीं है.
इसके लिए उसमें आधा ग, आधा ज, आधा द तथा आधा ब का इस्तेमाल किया जाता है. बाबूधन के मुताबिक ओडिशा में रहने वाले लोगों की संताली और इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की संताली के उच्चारण में अंतर है, ऐसे में ओलचिकी लिपि तो ओर भी सटीक नहीं बैठती. बाबूधन के मुताबिक गोटा भारो संताली साहित्य सभा ने भी माना है कि ओलचिकी लिपि अवैज्ञानिक है और संताली भाषा के लिए उपयोगी नहीं है. संताली भाषा के प्राकृत ध्वनि का उच्चारण ओलचिकी के अनुसार सही नहीं होता. जिससे परेशानी होती है.
अब तक 17 लिपि का हो चुका है इजाद
वर्तमान में संताली के लिए रोमन, ओलचिकी, देवनागरी व बंगला लिपि चलन में है. हालांकि इस भाषा की अब तक 17 लिपि का इजाद हो चुका है. ओलचिकी लिपि को पंडित रघुनाथ मुर्मू ने तैयार किया था, जो मयूरभंज-ओडिशा के रहने वाले थे, वहीं बांकुड़ा जिले के झीलिमिली के डॉ रघुनाथ हेंब्रम ने, उत्तर दिनाजपुर के कोचपाड़ा निवासी बास्ता हेंब्रम, वर्धमान जिला के दुर्गापुर के मनोहर हांसदा ने तथा रामचांद मुर्मू ने भी लिपि तैयार की थी.
कई रचनाएं हो चुकी हैं प्रकाशित
बाबूधन मुर्मू मूलरूप से पाकुड़ के महेशपुर के रहने वाले हैं. उनके पिता का नाम गोबिंद मुर्मू और मां का नाम फुलीन हांसदा है. प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही उनके दिमाग में संताली की लिपि को लेकर कौतुहल थी. मैट्रिक के बाद तो इसे लेकर उन्होंने प्रयास करना शुरू कर दिया. इस क्रम में वे वर्धमान में रहने वाले दूरबीन सोरेन के संपर्क में आएं, जो गोटा भारोत संताली साहित्य सभा से जुड़े हुए थे. इसके बाद वे अध्ययन के साथ-साथ साहित्य सृजन में लगे हुए हैं. साइमन हांसदा के साथ उनकी पुस्तक मोने ताराल-बासाल, काथा साल-मेसाल… प्रकाशित हो चुकी है.