सुशील भारती : बहुचर्चित मुकेश सिंह व उनके वाहन चालक हत्याकांड के मामले में घटना के पांच दिन बाद भी कई सवाल अनुत्तरित है. क्या मुकेश की हत्या पुलिस की मौजूदगी में हुई?
उसके पहले देवघर व आसपास तकरीबन माह भर से गांव–गांव में अपराधियों को लेकर गहराये अफवाह.. ग्रामीणों का रतजगा.. जिला प्रशासन की चुप्पी.. पुलिस की निष्क्रियता.. दोषियों की गिरफ्तारी में पर्याप्त सक्रियता का अभाव, क्यों ? इतना ही नहीं घटना के बाद भी जिला के आला अधिकारियों ने स्वयं ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर अफवाह के हिंसक परिणाम से उबारने के कोई प्रयास किये? अगर नहीं तो क्यों ?
क्या एक प्रेस कॉफेंस कर लेने भर से प्रशासन की जवाबदेही खत्म हो जाती है? पुलिस कप्तान ने खुद ही पुलिस की मौजूदगी में हत्या की बात पर त्वरित जांच की घोषणा के बाद खामोशी क्यों ओढ़ ली ? लोग इसे क्या समङों? और इसे कैसे अभिव्यक्त करें? मामला केवल दो लोगों की हत्या का ही नहीं है.
मामला अब सामाजिक समरसता को टिकाये रखने की चिंता से जोड़ कर देखा जा रहा है. अब तक निरापद रहे ग्रामीण क्षेत्रों में बारुदी गंध के सांकेतिक सिहरन क्या इशारा करते दिख रहे हैं? हमें समझना ही होगा. अन्यथा जो परिणाम आयेंगे वह कहीं से भी इस आध्यात्मिक व पर्यटन की असीम संभावना वाले क्षेत्र के लिए अनिष्टकारी होगा. दुर्भाग्य यह भी कि देवघर में जो कुछ लगातार हो रहा है, उसको लेकर स्थानीय जन–प्रतिनिधियों का रवैया भी कुछ कम अखरने वाला नहीं है.
सब के सब अपने निहितार्थ भुनाने में रमे हुए हैं. यह कैसा राज है व कैसी नीति, पता ही नहीं चलता. जबकि टावर चौक से मंदिर मोड़ तक दिन में घंटों जाम में फंसे परेशान –हाल लोग की मुंह से निकलती टिप्पणियां सहज ही व्यवस्था की पोल खोलती है. क्या ऐसा ही चलता रहेगा? अगर नहीं तो सरकारी संवेदना जगेगी तो कब जगेगी? फिलहाल केदारनाथ सिंह की कविता की कुछ पंक्तियों का पुनर्पाठ कर विराम पाने का अभ्यास करना काफी होगा :
‘‘ रात–विरात
एक बिल्ली की तरह वह घुस आती है घरों में और पी जाती है शहर का सारा दूध अगली सुबह उसके पंजों के निशान मगर खिड़की पर नहीं आदमी की पीठ और गर्दन पर दिखाई पड़ते हैं.