ऐसे में शिक्षा के स्तर में गिरावट तय है. कारण, मेधावी छात्र शिक्षा पेशा का चयन नहीं कर रहे हैं. सभी इंजीनियर, डॉक्टर बनना चाहते हैं. मेधावी छात्र इस क्षेत्र में चले जाते हैं. झारखंड की बौद्धिक राजधानी बोकारो भी इससे अछूता नहीं हैं. गुरुवार को ‘प्रभात खबर’ ने विभिन्न स्कूलों के अलग-अलग क्लास के 11 बच्चों से बात की. उनमें मात्र 01 स्टूडेंट्स ने शिक्षक बनने की बात कही. शिक्षक ही सही मायनों में राष्ट्र निर्माता होता है. शिक्षक विद्यार्थियों में शिक्षा के साथ सद्गुणों का विकास करता है. प्राथमिक शिक्षा की आधारशिला पर ही विद्यार्थी का भविष्य निर्माण होता है.
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आज के विद्यार्थी इंजीनियर व डॉक्टर बनना चाहते हैं, शिक्षक नहीं हमें पढ़ना है, पढ़ाने के बारे नहीं सोचा
बोकारो: देश की भावी पीढ़ी की जिम्मेवारी शिक्षकों पर है. लेकिन, आज उनकी स्थिति दयनीय है. इसका असर धीरे-धीरे योग्य शिक्षकों की कमी के रूप में दिख रहा है. आज के युवा शिक्षक नहीं बनना चाहते. अभिभावक भी इस पेशा के लिए प्रेरित नहीं करते. वे अपने बच्चों को इंजीनियर, डॉक्टर व आइएएस बनाना चाहते […]
बोकारो: देश की भावी पीढ़ी की जिम्मेवारी शिक्षकों पर है. लेकिन, आज उनकी स्थिति दयनीय है. इसका असर धीरे-धीरे योग्य शिक्षकों की कमी के रूप में दिख रहा है. आज के युवा शिक्षक नहीं बनना चाहते. अभिभावक भी इस पेशा के लिए प्रेरित नहीं करते. वे अपने बच्चों को इंजीनियर, डॉक्टर व आइएएस बनाना चाहते हैं.
महापुरुषों से मौजूदा पीढ़ी क्यों नहीं प्रभावित
भारत के कई राष्ट्रनायक अध्यापन करते रहे. उन्हें अपने अध्यापक होने पर गर्व था. गुरु देव रवींद्रनाथ टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सावित्रीबाई फुले, डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सभी शिक्षक थे. महात्मा गांधी भी जब दिल्ली के पंचकुइयां रोड स्थित वाल्मीकि मंदिर में रहते थे, तब आसपास के बच्चों को अंगरेजी पढ़ाते थे. तो फिर इन महापुरुषों से मौजूदा पीढ़ी क्यों नहीं प्रभावित हो रही? अब बेहद औसत किस्म के, या यूं कहें सामान्य स्तर के लोग अध्यापक बन रहे हैं. जाहिर है, निचले स्तर की इंटेलिजेंस वाला इनसान अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर सकता. वो तो मात्र खानापूरी ही करेगा. स्तरीय शिक्षकों के न आने से शिक्षा का स्तर चौपट हो रहा है.
दूसरी नौकरियों में नहीं जा पाते तो बन जाते हैं टीचर
स्कूल का मास्टरजी बनने को लेकर मानो सारे समाज में एक प्रकार की विरक्ति आ गयी है. मेधावी नौजवान अध्यापक बनने के बजाय प्राइवेट सेक्टर की छोटी-मोटी नौकरी करना पसंद करने लगे हैं. अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों का अध्ययन कर लीजिए. उनमें अध्यापकों के विज्ञापन आपको बेहद कम मिलेंगे. भावी वधू तो टीचर फिर भी मिल जायेगी, पर भावी वर के टीचर मिलने की संभावना बेहद क्षीण रहती है. स्कूलों में टीचर अब कमोबेश वही बन रहे हैं, जो दूसरी नौकरियों में नहीं जा पाते. बड़ी नौकरियों के लिए प्रतियोगिता परीक्षा देकर जब वे थक जाते हैं, तब मजबूरी में इस पेशे की ओर ध्यान देते हैं. जाहिर है, ऐसे लोग अपने पेशे को लेकर कतई प्रतिबद्ध नहीं रहते.
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