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बंद और जबरन चंदा वसूली खारिज हथियार और कबीलाई आतंक

-दर्शक- बंद का ईजाद जिन लोगों ने किया वे सचमुच स्तुत्य हैं. किसी बड़े सवाल पर लोकतांत्रिक साझेदारी या जनमानस का सोच जानने का यह सबसे अचूक हथियार है. संभवतया शासकों-तानाशाहों को मानवीय ढंग से चेताने का अनमोल औजार. लेकिन जब हथियारों के बल या भय पैदा कर बंद आयोजित कराये जायें, तो प्रतिकूल -परिणाम […]

-दर्शक-

बंद का ईजाद जिन लोगों ने किया वे सचमुच स्तुत्य हैं. किसी बड़े सवाल पर लोकतांत्रिक साझेदारी या जनमानस का सोच जानने का यह सबसे अचूक हथियार है. संभवतया शासकों-तानाशाहों को मानवीय ढंग से चेताने का अनमोल औजार. लेकिन जब हथियारों के बल या भय पैदा कर बंद आयोजित कराये जायें, तो प्रतिकूल -परिणाम निकलते हैं. पिछले चार दशकों के दौरान बंद जैसे लोकतांत्रिक हथियार की पवित्रता और उसका सांस्कृतिक मूल्य नष्ट हो गया है.

पहले बंद के आयोजन से बेजुबानों-असहाय लोगों के मन की बेचैनी प्रकट होती थी. अब बंद के आयोजकों ने मूकदर्शक बने बहुसंख्यकों को ही असहाय और बंधक बना लिया है. यह बंद का सांस्कृतिक क्षरण है.भारत बंद! बिहार बंद!! रांची बंद!!! प्राय: आयोजित-प्रायोजित इन बंदों की क्या सार्थकता रह गयी है? बंद के अन्वेषकों ने माना -पाया होगा कि आवाहन के बाद बगैर जोर-जबरदस्ती के स्वत: स्फूर्त बंद होते हैं, तो इससे सत्ताधीशों को लोकमुद्दों (जिनके लिए बंद होते हैं) और इसके पीछे लोकशाही के समर्थन का एहसास होता है.

लोकमत जानने का प्रत्यक्ष साधन रहा है, बंद. जिनके खिलाफ पहले बंद आयोजित किये जाते रहे हैं, उन पर भी तब इसका नैतिक दबाव-असर था. बड़ी से बड़ी ताकतें, राजसत्ता, लोकसत्ता इस लोक हथियार के सामने समर्पण करती रही हैं. अब न तो आत्मकेंद्रित आयोजकों के परवाह है कि बंद के पीछे लोक स्वीकृति है या नहीं और न ही उन ताकतों का बंद का कोई असर है, जिनके खिलाफ नियमित बंद हो रहे हैं. दुकानदार भय से बंद करते हैं. आम लोग डर के कारण सड़कों पर नहीं उतरते. तोड़-फोड़ के कारण सरकारी-अर्द्धसरकारी-निजी कार्यालय बंद होते हैं.

इस तरह एक ही मुद्दे पर दो ध्रुवों पर खड़े दल जब अलग-अलग बंद आयोजित कराते हैं, तो ‘सफलता’ का जश्न मनाते हैं. भुगतते हैं स्कूल जानेवाले बच्चे, बीमार, यात्री, आगंतुक और महिलाएं. दरअसल, बंद अब लगभग जनविरोधी हो गये हैं. कोई हथियार या दवा जब कारगर न रह जाये, तो नयी चीज का ईजाद करना होता है. लेकिन यह ‘ईजाद’ राजनीतिक, दार्शनिक, सामाजिक द्रष्टा और मनीषी करते हैं, लीक पर चलनेवाले सत्ता के भूखे-पाखंडी नहीं.

जिस तरह बंद के पीछे लोकस्वीकृति का दर्शन है, उसी तरह समाज को आदर्श की चोटी पर ले जाने के लिए बड़े सार्वजनिक आयोजन-काम-आंदोलन-अनुष्ठान होते रहे हैं. ऐसे कार्यों के पीछे भी लोक स्वीकृति रहे, शायद इसी कारण चंदे की परंपरा शुरू हुई हो. संभव है कि कोई विशिष्ट कार्य किसी गिरोह या व्यक्ति विशेष की पूंजी से संपन्न न हो, इस भावना के साथ सार्वजनिक चंदा उगाही की शुरुआत हुई हो, क्योंकि एक व्यक्ति या समूह की पूंजी के बल कोई काम होगा, तो उस पर समाज का आधिपत्य नहीं रहेगा. लोक साझेदारी नहीं होगी. हर व्यक्ति उससे जुड़ा महसूस नहीं करेगा. सार्वजनिक आयोजन में अपनत्व का एहसास नहीं होगा.
लेकिन अब चंदा वसूली का रूप क्या हो गया है. सार्वजनिक डकैती! गली-चौराहे पर देखिए! झुंड के झुंड चंदा वसूलनेवाले गाडि़यों-ट्रकों को रोक कर डरा-धमका रहे हैं. चंदा वसूली कर रहे हैं. मुख्यमंत्री आयें या गृहमंत्री, उनके नाम पर (मुमकिन है कि इन लोगों से चंदा उगाही करनेवालों का दूर-दूर तक रिश्ता न हो) जबरन रसीदें काटी जा रही हैं. जिन लोगों की हैसियत 10 रुपये देने की है, उनसे एक हजार रुपये लिये जा रहे हैं.

पहले कबीलों में सरदार जबरन नजराना लेते थे. सामंत-जमींदार चढ़ावा वसूलते थे. अब लोकतंत्र में ठेकेदार बने राजनीतिक दल और उनके पिछलग्गू आतंक के बल इसकी पुनरावृत्ति कर रहे हैं. पुलिस प्रशासन को सब पता है, लेकिन ये संस्थाएं तो नष्टप्राय हैं. लोग अब अपना दुख-दर्द लेकर इनके पास नहीं जाते, क्योंकि शासन सिर्फ धौंस से नहीं, करुणा और विश्वास से भी चलता है. अफसरों का चरित्र चारणवादी और कुरसीपूजक हो गया है. इस कारण शासन-व्यवस्था से आस्था भंग हो गया है.

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