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फाइनल राउंड में!

-हरिवंश- शिबू सोरेन और झामुमो ने हर कयास को गलत साबित करते हुए समर्थन वापसी का फैसला कर लिया. शिबू सोरेन के आलोचक यह कह रहे थे कि वे अंत समय तक अपना रुख बदल लेंगे. ऐसा वह पहले भी करते रहे हैं. कोड़ा खेमा तो आश्वस्त था कि समर्थन वापसी नहीं होगी. यही लोग […]

-हरिवंश-

शिबू सोरेन और झामुमो ने हर कयास को गलत साबित करते हुए समर्थन वापसी का फैसला कर लिया. शिबू सोरेन के आलोचक यह कह रहे थे कि वे अंत समय तक अपना रुख बदल लेंगे. ऐसा वह पहले भी करते रहे हैं. कोड़ा खेमा तो आश्वस्त था कि समर्थन वापसी नहीं होगी. यही लोग झामुमो में आंतरिक मतभेद की बात फैला रहे थे. एक चैनल तो शुरू से ही यह घोषित कर चुका था कि झामुमो में मतभेद हो गया है. यह सारा प्रचार या तो प्लांटेड था या सरकार बचाने के स्वार्थ से प्रेरित?

यह प्रचार करने और फैलानेवाले राजनीति का मामूली सच भूल गये कि झामुमो और शिबू सोरेन के क्या रिश्ते हैं? झामुमो, शिबू सोरेन के कारण है. शिबू सोरेन, झामुमो के कारण नहीं हैं. इस दल से अनेक प्रमुख लोग अलग हुए, पर वोटरों ने शिबू सोरेन को ही झामुमो माना. दूसरा महत्वपूर्ण कारण, भाजपा या कांग्रेस में, संगठन के कारण, विचारधारा के कारण उनके लोग चुनाव जीतते हैं. जैसे राजद में लालू प्रसाद के कारण लोग चुनाव जीतते हैं, उसी तरह झामुमो में शिबू सोरेन के कारण. जल्द ही लोकसभा, फिर डेढ़ साल बाद झारखंड विधानसभा के चुनाव होने हैं और झामुमो के सांसद-विधायक शिबू सोरेन के कंधों पर ही विजयश्री पायेंगे. इसलिए यह आकलन ही गलत था.

समर्थन वापस लेकर शिबू सोरेन ने पहला राउंड जीत लिया है. अंत-अंत तक स्पष्ट हो गया कि कोड़ा सरकार को बनाये रखने के पीछे कौन थे? लालू प्रसाद का अभयदान ही कोड़ा जी की ताकत है. 16 अगस्त की शाम लालू प्रसाद का बयान आया कि शिबू सोरेन राज्य को राष्ट्रपति शासन की ओर ठेल रहे हैं. फिर रविवार 17 अगस्त को लालू प्रसाद का बयान आया कि हमने झामुमो से कोई वायदा नहीं किया है. 16 अगस्त से पहले लालू प्रसाद का कोई ऐसा सार्वजनिक बयान नहीं आया था.

लालू प्रसाद चतुर और अनुभवी नेता हैं. उनके इन दोनों बयानों के मकसद, संकेत और लक्ष्य साफ थे. ठीक झामुमो की ‘क्रुसियल बैठक’ (निर्णायक बैठक) के पहले आये लालू जी के ये दोनों बयान, झारखंड में सरकार बचाने और गिराने के प्रसंग पर झामुमो में भ्रम पैदा करना था. इन दोनों बयानों को मुख्यमंत्री खेमे के प्रचार से जोड़ कर देखने से स्थिति साफ हो जायेगी. मुख्यमंत्री खेमा यही कह रहा था कि कोड़ा के समर्थन के सवाल पर झामुमो में मतभेद हो जायेगा और गुरुजी चुप हो जायेंगे. इस तरह समर्थन वापसी का फैसला लटक जायेगा.

पर झामुमो ने एक स्वर में, एकमत से समर्थन वापसी का फैसला कर पार्टी की एकजुटता और शिबू सोरेन की पकड़ का एहसास करा दिया. इस तरह शिबू पहले राउंड में भारी पड़े हैं.कोड़ा को त्यागपत्र देना ही पड़ेगा. प्रभात खबर ने चार दिनों पहले ही लिखा था, झामुमो की समर्थन वापसी के बाद मधु कोड़ा के पास कोई विकल्प नहीं है.वह आत्मसम्मान और निजी मर्यादा चाहेंगे, तो उन्हें त्यागपत्र ही देना पड़ेगा. कोई दूसरा विकल्प नहीं है. वह त्यागपत्र नहीं देने पर डटे रहते हैं, तो अपना, कांग्रेस और राजद का भारी नुकसान करेंगे. वह किसके बूते विधानसभा में विश्वास मत फेस करेंगे? किसके साथ चौतरफा प्रहार और गंभीर आरोप झेलेंगे? संभव है कि दिल्ली से लेकर उनके साथी निर्दलीय मंत्री भी कोड़ा जी को अब यही सलाह-सुझाव दें कि सम्मानपूर्वक जल्द गद्दी छोड़ दें.
अब इस क्रम का अगला राउंड होगा, निर्दलीयों का रोल. निर्दलीयों के रोल पर ही राष्ट्रपति शासन निर्भर करता है. अब तक निर्दलीय विधायकों को भरोसा था कि दिल्ली के ताकतवर लोग झामुमो को समर्थन वापसी की स्थिति में नहीं जाने देंगे. कोडा सरकार बच जायेगी. पर, अब झामुमो ने समर्थन वापस ले लिया है. 17 विधायकों के समर्थन वापस का कोई विकल्प नहीं है, कोड़ा जी के पास. इसलिए यूपीए की सरकार बचनी है, तो निर्दलीयों को अब शिबू सोरेन के साथ जाना पड़ेगा.

जो निर्दलीय दिल्ली की ओर ताक रहे थे या ‘कोड़ा चमत्कार’ में यकीन कर रहे थे, वह स्थिति अब खत्म हुई. धुंध छंट गयी. और अब झारखंड का राजनीतिक आसमान एकदम साफ है. निर्दलीयों को भी सत्ता में रहना है, राज्य में राष्ट्रपति शासन पसंद नहीं है, तो उन्हें झामुमो के साथ जाना पडेगा. हालांकि समर्थन वापसी के बाद शिबू सोरेन ने यह भी साफ कर दिया कि वह चुनाव मैदान में जाने के लिए तैयार हैं. वह सरकार बनाने के लिए दरवाजे-दरवाजे न भटकेंगे और न सौदेबाजी करेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार की विफलता के कारण उन्होंने समर्थन वापस लिया है. पर इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम में एक सवाल बार-बार उठता रहा है.

शिबू सोरेन क्यों बेचैन दिखाई देते हैं? या जल्दी में लग रहे हैं?इसके दो कारण हैं. (1) राजनीतिक और (2) निजी.राजनीतिक कारण शायद यह सबसे महत्वपूर्ण कारण है. झारखंड मुक्ति मोरचा के सबसे अधिक विधायक हैं,17. यूपीए के अन्य घटक दलों की क्या स्थिति है? कांग्रेस नौ. राजद सात, निर्दलीय कुल नौ (मुख्यमंत्री समेत जो सरकार में हैं). अब जिसके 17 विधायक हैं, उस सबसे बडे घटक दल झामुमो का नेता मुख्यमंत्री नहीं है? यह दृश्य देश के किसी और हिस्से में नहीं है.

उस दल ने लगभग दो साल तक एक निर्दलीय को शासन करने दिया. पर केंद्र की यूपीए गंठबंधन को देखें. वहां सबसे बड़ा दल है, कांग्रेस. वह भी अकेले बहुमत में नहीं है. जिस हाल में झारखंड में विधानसभा में झामुमो है (यूपीए का सबसे बडा घटक दल) उसी रूप में लोकसभा में कांग्रेस, यूपीए का सबसे बड़ा घटक दल है. झारखंड में अकेले न झामुमो बहुमत की स्थिति में है, न केंद्र में अकेले कांग्रेस के बूते सरकार चल रही है.

पर केंद्र में सरकार चलाने के लिए क्या फार्मूला है? सबसे बड़े दल का व्यक्ति यूपीए का नेता और प्रधानमंत्री बना. तो यही फार्मूला झारखंड में क्यों नहीं? यह एक गंभीर राजनीतिक सवाल है और झामुमो या गुरुजी के अंदर इस सवाल को लेकर बेचैनी आसानी से समझी जा सकती है. देश के किसी और कोने में ऐसा फार्मूला नहीं, जो झारखंड में चल रहा है.
इसी से जुड़ा एक और पहलू है. देहातों में एक कहावत है, ‘खेत खाये गदहा, मार खाये जोलहा.’ इस सरकार से सर्वाधिक लाभ कौन कमा रहा है? राजनीतिक और आर्थिक? एक शब्द में इसका उत्तर है, निर्दलीय. पर इस सरकार की सफलता और विफलता की कीमत कौन चुकायेगा? सरकार सफल होगी, तो श्रेय निर्दलीयों को मिलेगा, पर विफल होगी (जो हो रही है) तो सबसे अधिक कीमत झामुमो चुकायेगा. बाद में कांग्रेस या राजद. क्योंकि यूपीए घटक दलों में झारखंड में सबसे बडा आधार तो झामुमो का ही है. इस तरह मजा निर्दलीय लें और राजनीतिक कीमत झामुमो चुकाये? यह बात अब झामुमो की समझ में आ गयी है.

झारखंड के राजनीतिक चारागाह में, खेत कोई और खा रहा है और नुकसान उठाता झामुमो दिख रहा है. कोड़ा सरकार के पापों का ठीकरा सबसे अधिक झामुमो के सर फूटनेवाला है, फिर कांग्रेस और राजद के सिर? वैसे भी कांग्रेस के लिए केंद्र की सरकार प्राथमिकता है, झारखंड नहीं. और राजद का गढ़ बिहार है. बिहार में राजद की मजबूती या कमजोरी से ही, राजद का राजनीतिक भविष्य बनने या बिगड़नेवाला है. उसी तरह झारखंड में झामुमो की कमजोरी या मजबूती से ही, झामुमो का भविष्य रहनेवाला है. झामुमो के नेता अब यह गेम समझ चुके हैं, इसलिए कोड़ा सरकार से वे मुक्ति चाहते हैं.

राजनीति में ‘अवसर’ का बड़ा महत्व होता है. झामुमो या शिबू सोरेन यह समझ रहे हैं कि यह माहौल उनके लिए अनुकूल अवसर है. कैसे? लोकसभा चुनाव कुछ ही महीनों बाद होंगे. पस्त कांग्रेस को, क्षेत्रीय दलों की मदद चाहिए ही. जैसे कांग्रेस को बिहार में राजद का संग चाहिए, वैसे ही झारखंड में झामुमो का. झामुमो, समझ रहा है कि कांग्रेस को आगे क्या जरूरत है? इसलिए झामुमो चाहता है कि राजनीति का जो सामान्य खेल है, ‘गिव और टेक’ (लेना-देना), वह दोनों तरफ से हो. लोकसभा चुनावों में झारखंड कांग्रेस को ‘गिव’ (देना) की स्थिति में है, तो राज्य में कांग्रेस से वह समर्थन ‘टेक’ (लेने) की आशा करता है?
झामुमो के अंदर यह भी मंथन चल रहा होगा कि केंद्र में यूपीए सरकार को मदद और झारखंड में कोड़ा सरकार को मदद, के बाद झामुमो को मिला क्या? केंद्र में जिन छोटे दलों के चार सांसद हैं, और किसी राज्य में ऐसे दलों का, झामुमो जैसा जन आधार भी नहीं है. फिर भी वे केंद्र सरकार में ज्यादा पावरफुल हैं. उन्हें केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण पद हैं. झारखंड में झामुमो के महज तीन मंत्री हैं. झामुमो जैसी मजबूत स्थिति, यूपीए के किसी अन्य समर्थक दल की होती, तो वह राज्य का बागडोर लेता और दिल्ली में केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण हिस्सा.

डेढ़ साल बाद झारखंड में चुनाव होंगे और छह-सात महीनों में लोकसभा में चुनाव संपन्न होंगे. झामुमो नेताओं को समझ में आने लगा है कि कोड़ा सरकार के भरोसे हम अपना राजनीतिक आधार कैसे पुख्ता रख पायेंगे?झामुमो के फेवर में सबसे अनुकूल फैक्टर हैं, एनडीए का पूरे दृश्य से गायब होना, अर्जुन मुंडा निजी कारणों से विदेश चले गये. भाजपा के वरिष्ठ नेता कई बार साफ-साफ दोहरा चुके हैं, कि हम सरकार बनाने के खेल में हैं ही नहीं? ऐसा मौका झामुमो को पुन: नहीं मिलनेवाला?

निजी कारण : यह एक तथ्य है कि शिबू सोरेन जैसे बड़े कद का दूसरा आदिवासी नेता नहीं है. देश में भी. झारखंड गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. आज भी झारखंड के किसी भी राजनीतिक दल में शिबू सोरेन के कद का कोई नेता नहीं है. पर वह झारखंड के मुख्यमंत्री नहीं बन सके हैं. उनके दल ने बिहार में लालू प्रसाद को दो-दो बार मदद की, सत्ता में रहने के लिए. केंद्र सरकार को भी ‘क्रिटिकल सिचुएशन’(नाजुक घड़ी) में बचाया. पर खुद वह कहां हैं? यह सवाल निश्चित रूप से उन्हें मथता होगा. यह राजनीतिक मलाल, कहीं-न-कहीं उन्हें ठगे जाने का एहसास करा रहा है.
कोडा खेमे का दावं राज्य सरकार ने 19 सितंबर से 26 सितंबर तक विधानसभा सत्र बुलाया है. यह सूचना 16 अगस्त को सार्वजनिक की गयी. कोड़ा खेमे की मानें, तो यह एक सुनिश्चित रणनीति के तहत किया गया फैसला है. पर उनके रणनीतिकार भूल गये कि 17 अगस्त को झामुमो समर्थन वापसी का पत्र सौंप देगा, तो दृश्य बदल जायेगा? सरकार में हिस्सेदार या समर्थक दलों के बीच सबसे अधिक संख्या 17, झामुमो विधायकों की है. समर्थन वापसी के तत्काल बाद, यह अल्पमत की सरकार हो जायेगी. झामुमो समर्थन वापसी के साथ ही राज्यपाल से गुजारिश करेगा कि अल्पमत सरकार को जल्द से जल्द बरखास्त करे या तुरंत विश्वासमत पाने का आदेश दें. निश्चित तौर पर राज्यपाल इस पर विचार करेंगे.
याद करिए, अर्जुन मुंडा सरकार गठन के समय का दृश्य. शिबू सोरेन को 13 दिनों का समय मिला था, विश्वासमत सिद्ध करने के लिए. उसे सुप्रीम कोर्ट ने घटाने का निर्देश दिया. पर इन लीगल बातों या तर्कों से अधिक, यह राजनीतिक मुद्दा है. एक निर्दलीय के नेतृत्व की सरकार से 17 विधायकों के अलग होते ही, उस अल्पमत की सरकार को एक माह से अधिक समय ‘विश्वास मत’ सिद्ध करने के लिए मिलेगा? यह देशव्यापी मुद्दा बन जायेगा, जिसका नुकसान कांग्रेस और राजद को होगा. सिर्फ झारखंड में ही नहीं, बाहर भी. क्या बहुमत सिद्ध करने के लिए कोडा सरकार को लंबा समय देकर विपक्ष में भाजपा, जेवीएम वगैरह को नया मुद्दा देना चाहेगा यूपीए?
18-08-2008

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