-दर्शक-
बचपन में यह कहावत सुनी. बाड़ (वृहत हिंदी शब्दकोष के अनुसार बाड़ का अर्थ है, फसल की रक्षा के लिए बनाया हुआ कांटे, बांस आदि का घेरा) इसलिए होता है कि वह खेत की सुरक्षा करे. खेत की फसल को बरबाद न होने दे. पर, जब सुरक्षा के लिए बनी चीज ही बरबाद करने पर तुल जाये तो? यही हाल होता है, जो झारखंड का हो रहा है. समाज को आगे या ऊपर ले जाने का दायित्व किसका है? किन पर है? राजनीति, नौकरशाही, बुद्धिजीवी वर्ग और पत्रकारिता वगैरह का ही न, पर झारखंड में क्या हुआ?
राजनीति : जो राजनीति समाज को शिखर पर पहुंचा सकती है, वही राजनीति इतनी सड़ी, दुर्गंधमय और चरित्रहीन हो सकती है, यह झारखंड ने पूरे देश, दुनिया को दिखाया. झारखंड का सर्वनाश राजनीति ने ही किया है. हालांकि यह भी किसी को संशय नहीं होना चाहिए कि राजनीति ही इसे ठीक भी कर सकती है, पर वह राजनीति भिन्न होगी. जो नेता फांकाकसी करते थे, जो पंचायत स्तर की लियाकत नहीं रखते थे, वे जब सत्ता शीर्ष पर बैठ गये, तो क्या किया?
कुछेक लोगों के पैसे विदेशों में लगे. देश के अन्य राज्यों के कंस्ट्रक्शन उद्योग में झारखंड का धन लगा. भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड टूट गये. विधानसभा जैसी पवित्र संस्था अपनी भूमिका से विरक्त हो गयी. वहां नियुक्तियों की होड़ लग गयी. इन नियुक्तियों में भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे. विधानसभा में कितनी कमेटियां बनी और उनकी क्या उपयोगिता रही और उन पर क्या खर्च हुए, यह जान कर लोग हैरत में होंगे. सरकार या व्यवस्था पर अंकुश लगाने का काम विधानसभा ने नहीं किया. सरकारें नियंत्रणहीन और बद से बदतर होती गयीं. खुद कांग्रेस के तत्कालीन प्रभारी अजय माकन ने झारखंड की बदहाली को गंभीर माना.
उधर अपराधी भी अनियंत्रित होते गये. सरकारी योजना लूट का पर्याय बन गयी. राजनीति में उड़ता, अज्ञानता, अकर्म सब माफ. सिर्फ लूट कला का ज्ञान अहम बन गया. राजनीति जैसी पवित्र चीज बिचौलियों की, भ्रष्टाचारियों की, दलालों की, पैरवी करनेवालों की, तिकड़म- षड़यंत्र करनेवालों की चेरी बन गयी. जो ग्राम प्रधान के काबिल नहीं थे, वे राज्य की तकदीर संवारने के पदों पर बैठ गये. अब झारखंड को तय करना है कि यही राजनीति चलेगी या बदलेगी? नये झारखंड की कल्पना नयी राजनीति के गर्भ से ही संभव है.
नौकरशाही : यह नौकरशाही स्टील फ्रेम कही जाती है. इस संस्था की भूमिका देश को जोड़ने में अदभुत रही है. ईमानदार नौकरशाहों की बदौलत आज देश यहां पहुंचा है. झारखंड में भी अनेक अच्छे, ईमानदार और समर्पित आइएएस-आइपीएस हैं, पर वे निष्क्रिय बना दिये गये. झारखंड के दो आइएएस अफसरों के यहां छापे पड़े हैं. जो विवरण आये हैं, उनसे लगता है कि झारखंड में कोई शासन ही नहीं रह गया था. डॉ राममनोहर लोहिया ने नौकरशाही को दूसरे नंबर का स्थायी राजा कहा था. यानी नेता और मंत्री तो आते-जाते रहते हैं, चुनाव में पराजित भी होते हैं, पर अफसर तो अपनी जगह बने रहते हैं.
स्पष्ट है कि सरकार की स्थायी पहचान या प्रतिनिधित्व तो नौकरशाही ही करती है. वह संविधान-कानून की प्रहरी है. वही नौकरशाही भयमुक्त होकर गलत कामों में शरीक थी. झारखंड में अनेक ऐसे आइएएस हैं, डीसी हैं, जिनके यहां ऐसे छापे पड़ें, तो एक से एक बड़े राज खुलेंगे. एक सज्जन, एक जिले के डीसी थे. खुद अपने परिवार के नाम एक बेशकीमती भूखंड (बिल्डिंग) खरीदी. पता चला, पंद्रह दिनों के लिए उन्होंने जमीन संबंधी अपना अधिकार अपने एक पालतू अफसर को सौंप दिया था. बिहार विधानसभा ने कानून बना कर केंद्र सरकार के पास अनुमोदन के लिए भेजा है कि भ्रष्ट अफसरों की संपत्ति जब्त हो, उनके खिलाफ भी स्पीडी ट्रायल के मुकदमे चलें. क्या झारखंड इससे कुछ नहीं सीख सकता? आखिरकार झारखंड में जो लूट, कुव्यवस्था, अराजकता थी, इसकी कीमत इस देश-राज्य ने किस रूप में चुकायी है? नक्सल प्रभाव का सबसे मूल कारण यही अराजकता, अव्यवस्था है.
राज्य में लोग भूखे मरें, चिकित्सा की व्यवस्था न हो, पढ़ने के लिए अच्छी संस्थाएं न हों, और राज्य चलानेवाले राजनीतिज्ञ और नौकरशाह खुद अपनी दुनिया समृद्ध करने में लगे रहें, आत्मकेंद्रित हो जायें, तो क्या हालात होंगे? वही न जो झारखंड का हो रहा है.
पत्रकारिता : यह चौथा स्तंभ है. अन्य तीन स्तंभों का वाच डॉग, प्रहरी या उन पर नजर रखनेवाला. दो दिनों पहले प्रभात खबर में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय प्रेस सलाहकार बने एचवाइ शारदा प्रसाद पर लेख छपा है. पिछले साल दो सितंबर को वह नहीं रहे. उनके छोटे भाई नारायण दत्त जी (जो सबसे सम्मानित नवनीत के संपादक रहे, जो खुद विलक्षण और चरित्रवान पत्रकार हैं) ने खासतौर से बेंगलुरु से प्रभात खबर के लिए यह लेख भेजा. शारदा प्रसाद जी तीन-तीन प्रधानमंत्रियों के प्रेस सलाहकार रहे. उनकी आभा, योग्यता और चरित्र यह था कि कैबिनेट सेक्रेटरी भी उनके सामने झिझकते थे. वह विद्वता और ज्ञान के पर्याय थे. वह उस दौर की पत्रकारिता के प्रतीक भी थे. तब हमने टाइम्स हाउस में काम करते हुए करीब से देखा श्यामलाल को, गिरिलाल जैन को, फिर कुलदीप नैयर के सानिध्य में हम युवा आये. अजीत भट्टाचार्जी को नजदीक से देखा, प्रभाषजी को देखा. बीजी वर्गीस का स्नेह मिला. अज्ञेय, धर्मवीर भारती के दौर में टाइम्स में इनके साथ काम किया. रघुवीर सहाय को पास से देखा. इनके पहले के पत्रकारों को छोड़ दीजिए. यानी आजादी की लड़ाई के राम राव, चलपति राव, देवदास गांधी, मूलगांवकर, तो ऋषिकोटि के थे ही. पर इनके बाद के ये पत्रकार भी 24 कैरेट सोना थे या हैं. उनकी योग्यता, प्रतिबद्धता और दृष्टि में हम आज पासंग भी नहीं हैं. पीछे मुड़ कर देखने पर लगता है, आज क्षेत्रीय और छोटे अखबारों में जो तनख्वाहें और सुविधाएं हो गयी हैं, वह भी सत्तर-अस्सी के दशकों में इन बड़े पत्रकारों को नहीं मिलती थीं. टाइम्स ऑफ इंडिया ट्रेनिंग स्कीम अपने दौर की सबसे प्रतिष्ठित योजना थी. उसमें आइपीएस और आइआइएम के लोग आते थे. वेतन की शुरुआत साठ के दशक में 350 रुपये से हुई. वह बढ़ते-बढ़ते पांच सौ, साढ़े सात सौ और बाद में एक हजार तक पहुंची. इसी प्रशिक्षण योजना से गणेश मंत्री, विक्रम राव, एमजे अकबर, विश्वनाथ सचदेव, सुरेंद्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा, विनोद तिवारी, विष्णु नागर, विक्रम बोरा जैसे पत्रकार निकले, जिन्होंने हुनर और कौशल से देश-दुनिया में अपनी पहचान बनायी. इन सब की वेतन, सुविधाएं जो उन दिनों थीं, उनसे आज क्षेत्रीय अखबारों के हालात बहुत बेहतर हैं. पर, क्यों नहीं हम एक भी ऐसा पत्रकार खड़ा कर पा रहे हैं, जो स्तर का हो. धन कमाना अपराध नहीं है.
भारतीय परंपरा भी इसे सही मानती है. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के गुण हम गाते हैं. इस तरह अर्थ कमाना बुरी बात नहीं, पर वह ईमानदार तरीके से क्यों नहीं? आज पत्रकारिता में बढ़िया वेतन है. अगर आप में हुनर और कौशल है, तो आपके पीछे पैसे लेकर घूमनेवाले लोग हैं. यह सब सही तरीके से संभव है और हो रहा है. पुरानी पीढ़ी के अनेक पत्रकारों ने खूब पैसे कमाये. कैसे? अपनी प्रतिष्ठा से. उनकी किताबें हिट हुईं. देश-विदेश में उन्हें लिखने के अवसर मिले. आज अखबारों में वेतन सुविधाओं और नौकरी की सेवा शर्तों की दृष्टि से हालात काफी बेहतर हैं, पर ज्ञान, चरित्र, दृष्टि में हम पत्रकार अपनी पहले की पीढ़ी के पत्रकारों के मुकाबले कहां हैं? उन्हें आज जैसा अर्थ कमाने का (ईमानदार तरीके से) मौका नहीं था?
आज कई मीडिया कंपनियां मुनाफे में हिस्सा देती हैं. अच्छे लोगों को इनसेंटिव देती हैं, शेयर देती हैं, ईनाम देती हैं. फिर भी वह पुरानी पीढ़ी की ईमानदारी, नैतिकता और ज्ञान हममें क्यों नहीं है? क्या हम पत्रकार इस पर कभी गौर करेंगे? हमारा धंधा क्या है? लाइजनिंग या फेवर लेना या सत्ता के पतन में साझीदार बनना या चुपचाप देखना ?
इस देश में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह, एचटी समूह, हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, आनंद बाजार पत्रिका वगैरह पत्रकारीय मूल्यों के वाहक (टॉर्च बियरर) रहे हैं. इन्हीं घरानों के मशहूर और वरिष्ठ पत्रकारों ने पत्रकारिता को नये मूल्य दिये. जरूरत है कि आज ये घराने फिर पहल करें और पत्रकारों के लिए कोड ऑफ इथिक्स ( नीतिगत आचारसंहिता) गढ़ें. ये समर्थ संस्थान ही पहल कर सकते हैं. निश्चित तौर पर अन्य अखबार इनका अनुकरण करेंगे. जरूरत है कि पत्रकारिता सचमुच प्रहरी की भूमिका में लौटे, ताकि कोई राज्य झारखंड जैसी दुर्गति की स्थिति में न पहुंचे.
उम्मीद की किरण :जिनके कंधों पर झारखंड संवारने का दायित्व था, वे ही झारखंड की दुर्दशा में हिस्सेदार बन गये. इससे झारखंड में गहरी निराशा फैली. पर बरसों बाद उम्मीद की किरण भी दिख रही है. सिर्फ एक ईमानदार, कानून की हिफाजत करनेवाले राज्यपाल, के शंकरनारायणन के आगमन से हालात बदले हैं. राज्यपाल नारायणन का झारखंड में आना वैसा ही था, जैसे भारी परेशानी, बेचैनी, तबाही और उमस के बाद हवा के ताजे झोंके आयें. यह सुकून शब्दों से परे है. राज्यपाल संवैधानिक हेड हैं, पर एक अच्छे व्यक्ति के आते ही क्या असर पड़ा? कानून का राज वापस लौट रहा है. आम लोग कहते हैं, राज्यपाल के रहते वैसी गड़बड़ी नहीं होगी, जो पहले होती रही है. यह धारणा क्यों? एक मूल्यनिष्ठ, ईमानदार और कानून के अनुसार चलनेवाले व्यक्ति के व्यक्तित्व का यह असर है.
भारतीय संस्कृति की मान्यता रही है, ‘महाजनो येन गता स पंथा’अर्थ है, जिस रास्ते से महान लोग गये हों, वही रास्ता सही है.यानी बड़े लोग जिस रास्ते जाते हैं, वही रास्ता श्रेयस्कर होता है. अर्थ साफ है, श्रेष्ठ पदों पर बैठे लोग जैसा आचरण करेंगे, वही अन्य अनुकरण करेंगे. अब झारखंड में राज्यपाल पद पर एक गरिमापूर्ण व्यक्तित्व है. उसका असर बाहर भी दिख रहा है.