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शहीदों के सपनों की राजनीति कब होगी?

अनिल अंशुमन इस साल भी, गुवा गोलीकांड के शहीदों की याद का दिन उन तमाम सवालों का जवाब पाये बगैर यूं ही गुजर जायेगा, वो सवाल जो राज्य गठन के बाद से ही उठाये जा रहे हैं. झारखंड आंदोलन के तमाम शहीदों तथा आंदोलनकारियों को उचित सम्मान और उनके परिजनों को जीवनयापन के साधन दिये […]

अनिल अंशुमन

इस साल भी, गुवा गोलीकांड के शहीदों की याद का दिन उन तमाम सवालों का जवाब पाये बगैर यूं ही गुजर जायेगा, वो सवाल जो राज्य गठन के बाद से ही उठाये जा रहे हैं. झारखंड आंदोलन के तमाम शहीदों तथा आंदोलनकारियों को उचित सम्मान और उनके परिजनों को जीवनयापन के साधन दिये जाने के सवाल.

आजादी के आंदोलन को छोड़ दें, तो झारखंड आंदोलन को देश का सबसे बड़ा जनांदोलन कहा जा सकता है, जिसकी विशिष्टता थी बड़े पैमाने पर आदिवासियों की भागीदारी. आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे झारखंड आंदोलन सबसे तीखा रहा, जिसे दबाने के लिए इतने पुलिस गोलीकांड हुए कि हर महीने कोई न कोई शहादत दिवस मनाया जाता है. गुवा गोलीकांड (सन 1980) पहली ऐसी घटना थी, जब इस आजाद देश में पुलिस ने अस्पताल में इलाज करा रहे घायल आंदोलनकारियों को लाइन में खड़ा कर गोलियों से छलनी कर दिया.

गोली मारने का तर्क यह था कि आंदोलनकारी आदिवासियों ने चार पुलिसवालों को मार डाला, जबकि इस टकराव में तीन आदिवासी भी मौके पर मारे गये थे और सैकड़ों जख्मी हुए थे. इस कांड का मुख्य कारण यह था कि गुवा उन दिनों झारखंड आंदोलन का हिस्सा रहे जंगल आंदोलन का केंद्र बन रहा था. इसके अलावा गुवा माइंस से निकलनेवाले जहरीले लाल पानी से हो रहे प्रदूषण तथा स्थानीय लोगों की नियुक्ति नहीं होने को लेकर भी लोगों में काफी आक्रोश था. आंदोलनकारियों ने 8 सितंबर को गुवा में एक बड़ी सभा कर प्रतिवाद करने का फैसला किया था, जिस पर पुलिस टूट पड़ी.

ऐसे अनेक जनांदोलनों और उनके दमन की घटनाओं से झारखंड का इतिहास भरा पड़ा है. सवाल है कि आज जब अलग राज्य बन चुका है, तो झारखंड आंदोलन के तमाम शहीदों और आंदोलनकारियों को सम्मान व उनके परिजनों को जीवनयापन के लिए नौकरी क्यों नहीं मिली. क्यों हर बार सिर्फ झूठी घोषणाएं की गयीं? जबकि, प्रदेश के सभी मुख्यमंत्री आदिवासी हुए तथा अधिकतर मंत्री-नेता अपने को ‘धरतीपुत्र’ कहते हैं!

झारखंड के नाम पर भावनात्मक राजनीति करनेवाले अधिकतर नेताओं ने उसी राज्य को लूट कर कई पीढ़ियों के लिए धन-दौलत जमा कर ली है, जिसे वो ‘मां और माटी’ कहते थे! वहीं, दूसरी तरफ अलग राज्य के लिए कुरबानी देनेवाले आंदोलनकारी व उनके परिजन मजदूरी कर किसी तरह दिन काट रहे हैं. इलाज और दो जून का भोजन तक मयस्सर नहीं है उन्हें. अपने ही देस में बेगाने हो गये हैं. क्या इसी दिन के लिए वे लड़े थे? कुरसी की राजनीति तो खूब हो रही है, शहीदों-आंदोलनकारियों के सपनों की राजनीति कब होगी?

(लेखक झारखंड जन संस्कृति मंच से जुड़े हैं.)

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