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उषा किरण खान को मिला वर्ष 2020 का प्रबोध साहित्य सम्मान

सहरसा : कथाकार-उपन्यासकार, नाटककार मैथिली-हिंदी की लेखिका उषा किरण खान को वर्ष 2020-के लिए मैथिली भाषा और साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ‘प्रबोध साहित्य सम्मान’ दिये जाने की घोषणा की गयी है. इसकी जानकारी पुरस्कार समिति के प्रबंधन न्यासी प्रो अभय नारायण सिंह दी. यह निर्णय बुधवार को विख्यात भाषा-विज्ञानी, कवि-नाटककार और एमिटी विश्वविद्यालय के चेयर-प्रोफेसर […]

सहरसा : कथाकार-उपन्यासकार, नाटककार मैथिली-हिंदी की लेखिका उषा किरण खान को वर्ष 2020-के लिए मैथिली भाषा और साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ‘प्रबोध साहित्य सम्मान’ दिये जाने की घोषणा की गयी है. इसकी जानकारी पुरस्कार समिति के प्रबंधन न्यासी प्रो अभय नारायण सिंह दी. यह निर्णय बुधवार को विख्यात भाषा-विज्ञानी, कवि-नाटककार और एमिटी विश्वविद्यालय के चेयर-प्रोफेसर एवं कला संकाय के डीन प्रो उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’ की अध्यक्षता में मैथिली के मूल तथा अनुवाद साहित्य में इनका आजीवन योगदान के आधार पर लिया गया है.

प्रतीक चिह्न और प्रशस्ति पत्र के साथ एक लाख रुपये की राशि का यह पुरस्कार उषा किरण खान को फरवरी 2020 को दिल्ली अथवा पटना में प्रदान किया जाएगा. उल्लेखनीय है कि प्रति-वर्ष ‘प्रबोध साहित्य सन्मान’ मैथिली आंदोलन के अग्रणी नेता, विशिष्ट विद्वान तथा संस्कृत-फारसी-पाली-मैथिली और हिंदी के मूर्धण्य भाषा-शास्त्री एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय के भूतपूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. प्रबोध नारायण सिंह के सम्मान में स्वस्ति फाउंडेशन द्वारा 2004 से प्रदान किया जा रहा है. याद रहे कि गत वर्ष मैथिली और हिंदी के चर्चित कवि-अनुवादक हरेकृष्ण झा को दिया गया था.

उषा किरण खान मैथिली और हिंदी दोनों भाषाओं में समान रूप से सृजनशील रही हैं. उषा किरण खान का जन्म 7 जुलाई 1945, लहेरियासराय, दरभंगा (बिहार) में हुआ था और वे बंदर बगीचा, डाक बंगला रोड, पटना में रहती हैं. इन्होंने संस्कृत, पालि, अंग्रेजी, मैथिली तथा हिंदी के प्राचीन साहित्य का गहन अध्ययन किया है. मैथिली में ‘‘भामती’’ एवं हिंदी में ‘सिरजनहार’’ लिखकर ऐतिहासिक उपन्यासों की ओर दृष्टिपात किया है. उषा जी की पहली कहानी इलाहाबाद से निकलने वाली यशस्वी पत्रिका ‘कहानी’ में प्रकाशित हुई थी.

उषा किरण सामाजिक क्रियाकलापों में भी बेहद सक्रिय हैं एवं महिला चर्खा समिति पटना की अध्यक्षा हैं. इनका मानना है कि साहित्य में विचारधारा हावी हो यह सही नहीं है, क्योंकि लेखक को समदर्शी होना चाहिए. इन्होंने ‘आयाम’ नाम से एक संस्था की स्थापना भी की है जिसका उद्देश्य है साहित्य में स्त्री-स्वर को प्रोत्साहित करना, घरों में बैठी संकोच में डूबी कवि-लेखक स्त्रियों की पहचान कराना और स्त्रीलेखन का सूचीकरण इत्यादि कार्य करना.

उषा किरण जी को इतिमध्य बिहार राष्ट्र भाषा का हिंदी सेवी सम्मान, बिहार राजभाषा विभाग का महादेवी वर्मा सम्मान, दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, कुसुमांजलि पुरस्कार, विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार एवं पद्मश्री सम्मान मिला है. ‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘हसीना मंजिल’, ‘भामती’, तथा ‘सिरजनहार’ जैसे मैथिली उपन्यासों के लिए वे प्रख्यात हैं. जिसके अलावा भी कहानी-संग्रह ‘कांचहि बांस’ भी है. हिंदी में उनके सुपरिचित उपन्यासों का नाम है इस प्रकार: ‘पानी पर लकीर’, ‘फागुन के बाद’, ‘सीमांत कथा’, ‘रतनारे नयन’. इनको छोड़ कर कहानी की किताबें जैसे ‘गीली पॉक’, ‘कासवन’, ‘दूबजान’, ‘विवश विक्रमादित्य’, ‘जन्म अवधि’, ‘घर से घर तक’ भी पाठकों को बहुत पसंद आयी. ‘सिरजनहार’ और ‘अगनहिंडोला’ क्रमश: कवि विद्यापति और शेरशाह की जीवनी-निर्भर कृतियां हैं. नाटक लेखिका के रूप में उषा जी ने मैथिली में ‘फागुन’, ‘एकसरि ठाढ़’, ‘मुसकौल बला’ आदि और ‘घंटी से बान्हल राजू’, ‘बिरड़ो आबि गेल’ जैसा बाल-नाटक और हिंदी में ‘कहां गये मेरे उगना’ एवं ‘हीरा डोम’ आदि नाटक तथा ‘डैडी बदल गये हैं’, ‘नानी की कहानी’, ‘सात भाई और चंपा’, ‘चिड़िया चुग गयी खेत’ जैसी लोकप्रिय नाटिकाओं की रचना भी की है. इन्होंने ‘कहां गये मेरे उगना’ नाटक के माध्यम से कविवर विद्यापति का जीवनदर्शन मंच पर साकार किया जिसे सामान्यजन जान सकें. उन्होंने एक बाल-उपन्यास भी लिखा है: ‘लड़ाकू जनमेजय’.

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