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बिहारी बोलते नहीं, इसलिए जीतने वाले अपनी दुनिया सजाते हैं
गिरींद्र नाथ झा पूर्णिया में आज सुबह से ही एक हेलीकॉप्टर हवा में चक्कर काट रहा था. किसी ने कहा कि सीमांचल के कोई नेताजी आसमान से जमीन देख रहे हैं, जिसे चुनाव और बाढ़-सुखाड़ के वक्त ‘हवाई दौरा’ कहते हैं. वैसे सच्चाई ये है कि बिहार विधानसभा चुनाव नामक मैच अब अंतिम ओवर में […]
गिरींद्र नाथ झा
पूर्णिया में आज सुबह से ही एक हेलीकॉप्टर हवा में चक्कर काट रहा था. किसी ने कहा कि सीमांचल के कोई नेताजी आसमान से जमीन देख रहे हैं, जिसे चुनाव और बाढ़-सुखाड़ के वक्त ‘हवाई दौरा’ कहते हैं. वैसे सच्चाई ये है कि बिहार विधानसभा चुनाव नामक मैच अब अंतिम ओवर में है और सभी दल असली मुद्दे को साइड में रखकर जाति और जानवर के जरिये चुनावी बैतरणी पार करने की जुगत में हैं.
बिहार की गद्दी जो दल हासिल करे, यकीन मानिए हारेंगे तो हम बिहारी ही. हम बिहारी बोलते नहीं हैं इसलिए जीतने वाले हमें हारा हुआ समझकर अपनी दुनिया सजाते-संवारते रहे हैं. आप सोच रहे होंगे कि विधानसभा चुनाव के दौरान नकारात्मक बातें ही क्यों. दरअसल मुद्दा विहीन इस चुनाव के पीछे हमारा भी हाथ है. हम बोल नहीं रहे हैं, लिखने वाले लिख नहीं रहे हैं.
बोलते वही हैं जो सुनने में अच्छा लगता है. लिखते वैसा ही हैं जैसा बाजार चाहता है. समस्तीपुर में पिछले महीने एक बुजुर्ग मिले थे. उन्होंने कहा था मीडिया मैनेजर सब इस बार चुनाव लड़वा रहा है, नेता सब तो खाली हवा पानी देता है. खेल तो कोई और खेल रहा है. हालांकि पतंग की डोर नेताजी के हाथ में होती है न कि मैनेजर साब के पास. लेकिन मैनेजर सब खूब कमा रहा है.
हम सब दाल की बात करते हैं लेकिन क्या हम किसान से यह नहीं पूछ सकते कि वह दाल की खेती क्यों छोड़ रहा है. ऐसे कई सवाल हैं जो चुनाव के दौरान गुम हो जाते हैं. हम खुद ही मुद्दों का अचार बनाकर नेताओं को दे देते हैं कि लीजिये और चटकारा लगाकर भर चुनाव खाते रहिये. नेताजी ने हाथ जोड़ दिया, पीठ पर हाथ फेर दिया, हम हो गए भावुक. इस फेर से मतदाताओं को निकलना होगा.
सड़क-बिजली-पानी-शिक्षा -शासन या किसानी को छोड़कर विभिन्न दल गाय-सूअर की बातें कर रहे हैं और एक हम हैं कि भीड़ बनकर उनकी रैली-सभाओं में जाते हैं और उनकी बकैती सुनते हैं.
वो बोलते हैं और हम ताली पिटते हैं. लाखों रु पया का जिमी कैमरा घुमता है हमारी तरफ और हम कुछ पल के लिए ऐसे भाव में आ जाते हैं मानो सबकुछ जीवन में मिल गया.ऐसे में हारेंगे तो हम ही न. मीडिया ने भी अपना काम बखूबी किया है.
जाति का प्लेट मीडिया सजा रहा है और हम उसकी टीआरपी बढ़ाते जा रहे हैं. लगातार घूमते हुए और लोगबाग से बतकही करते हुए लगता है कि हम सभी ने जाति के फ्र ेम वाला चश्मा पहन लिया है और उसका पॉवर इतना बढ़ा दिया है कि इसके बिना हमारा कोई काम ही नहीं होगा. करोड़ों रु पये खर्च कर राजनीतिक दल व्यक्तिगत हमले वाले कंटेंट अखबारों में छपवाते हैं. मुखर होना होगा लोगों को नहीं तो गाते रिहये- कौन ठगवा नगरिया लूटल हो…
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