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चंपारण में अब भी 55 फीसदी आबादी भूमिहीन

दास्तान : 1950 में गठित लोहिया जांच समिति ने किया खुलासा, आज भी चंपारण में नील प्लांटरों के हिस्से की ज्यादातर जमीनों पर चंद लोग काबिज हैं पुष्यमित्र पटना : यह सच है कि चंपारण सत्याग्रह का मूल मकसद तिनकठिया प्रथा को खत्म करना था, जो नीलहे अंगरेजों के हाथ में शोषण के बड़े हथियार […]

दास्तान : 1950 में गठित लोहिया जांच समिति ने किया खुलासा, आज भी चंपारण में नील प्लांटरों के हिस्से की ज्यादातर जमीनों पर चंद लोग काबिज हैं
पुष्यमित्र
पटना : यह सच है कि चंपारण सत्याग्रह का मूल मकसद तिनकठिया प्रथा को खत्म करना था, जो नीलहे अंगरेजों के हाथ में शोषण के बड़े हथियार की तरह था. जिसके तले चंपारण की रैयत पिसती रहती थी. महात्मा गांधी के आगमन से उस तिनकठिया प्रथा को खत्म करने में तो लोगों को सफलता हासिल हो गयी, मगर लूट और शोषण का जो तंत्र नीलहों ने विकसित किया था, दुर्भाग्यवश वह कभी खत्म नहीं हुआ. आज भी चंपारण की आधी से अधिक जनता भूमिहीन है और नील प्लांटरों के हिस्से की ज्यादातर जमीनों पर चंद लोग काबिज हैं.
1950 में गठित लोहिया रिपोर्ट कहती है, नीलहों के जाने के वक्त और उसके बाद चंपारण में जमीन की जो लूट हुई उससे यहां की जनता कभी उबर नहीं पायी. दुर्भाग्यवश इस लूट में वे लोग भी शामिल थे, जिन्हें लोगों को इस लूट से मुक्ति दिलाना था. आंकड़े बताते हैं कि चंपारण में जिस 98 हजार एकड़ जमीन पर पहले नील की खेती होती थी, 1920 आते-आते उनमें से 40 हजार एकड़ जमीन नौ चीनी मिलों ने औने-पौने दाम पर खरीद ली. यानी हर चीनी मिल के हाथ औसतन 4500 एकड़ जमीन आयी. इसके बाद जो जमीन बची उसे बाहरी जमींदारों ने खरीद लिया. दरअसल चंपारण सत्याग्रह और उसके बाद शुरू हुए असहयोग आंदोलन की वजह से नील प्लांटरों को समझ आ गया था कि वे अब यहां अपना कारोबार नहीं कर पायेंगे. ऐसे में उन्होंने औने-पौने दाम में 30 रुपये प्रति एकड़ तक की दर पर अपनी सारी जमीन बेच दी.
इसका फायदा उस वक्त के देसी धनिकों ने उठाया. कई लोगों ने तो पूरी की पूरी जमींदारी ही खरीद ली. लूट का दूसरा चरण 1946 में शुरू हुआ, जब देश में अंतरिम सरकार अस्तित्व में आयी. उस सरकार ने 28 मंत्रियों, विधायकों और सम्मानित राजनेताओं को चंपारण में जमीन उपहार स्वरूप दी. इन लोगों के बीच 1952 एकड़ जमीन बांटी गयी. यानी औसतन एक नेता को 69 एकड़ जमीन मिली. जबकि चंपारण की रैयत भूमिहीन की भूमिहीन रह गयी. ये जानकारियां लोहिया जांच रिपोर्ट का हिस्सा है. सोशलस्टि पार्टी ने 1950 में तत्कालीन समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में इस स्वतंत्र जांच आयोग का गठन किया था.
इस आयोग की रिपोर्ट में चंपारण में हुई जमीन की लूट का कच्चा चिट्ठा है. आजादी के बाद भी कभी कोई ऐसी योजना धरातल पर कारगर नहीं रही जो यहां के भूमिहीनों को जमीन दिला सके. आज भी राज्य सरकार के आंकड़े कहते हैं कि चंपारण की 55 फीसदी आबादी भूमिहीन है. विभिन्न सरकारों ने यहां के लोगों के बीच 1.64 लाख एकड़ जमीन का वितरण तो किया है, मगर उनमें से 12,600 लोगों को वितरित जमीन पर कब्जा हासिल नहीं हो पाया. सीलिंग के बावजूद चीनी मिलें अथाह भूमि पर कब्जा जमाये उसका अनुचित तरीके से इस्तेमाल करती हैं.
राजकुमार शुक्ल के नाम से कृषि विवि बने
कई संगठन भूमिहीनों के लिए संघर्षरत हैं. उनमें जेपी के शिष्य पंकज जैसे लोग भी हैं. जिन्हें भूमिहीनों की लड़ाई लड़ने की वजह से पिछले साल कई महीने जेल में रहना पड़ा. पंकज और लोक संघर्ष समिति के दूसरे साथियों ने सरकार से मांग की है कि चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह के मौके पर इस जमीन में से 1200 एकड़ पर राजकुमार शुक्ल के नाम से कृषि महाविद्यालय खोला जाये. शेष जमीन 30 हजार भूमिहीन परिवारों के बीच वितरित कर दिया जाये.

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