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बिहार में कब आयेंगे क्रिकेट के ‘अच्छे दिन’
झारखंड की राजधानी रांची ने जहां गुरुवार को टेस्ट क्रिकेट की मेजबानी कर इतिहास रच दिया वहीं बिहार में क्रिकेट अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. बिहार में 1935 से ही क्रिकेट चलाने का दावा किया जाता है. 1996 में राज्य विश्व कप क्रिकेट की मेजबानी भी कर चुका है, लेकिन अब झारखंड से […]
झारखंड की राजधानी रांची ने जहां गुरुवार को टेस्ट क्रिकेट की मेजबानी कर इतिहास रच दिया वहीं बिहार में क्रिकेट अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. बिहार में 1935 से ही क्रिकेट चलाने का दावा किया जाता है. 1996 में राज्य विश्व कप क्रिकेट की मेजबानी भी कर चुका है, लेकिन अब झारखंड से रेस में बिहार पिछड़ गया है. यहां के प्रतिभावान खिलाड़ी बेहतर कैरियर की उम्मीद में दूसरे राज्यों से खेलने को मजबूर हैं. पटना के मोइनुल हक स्टेडियम में पिछले 20 सालों से कोई भी बड़ा मैच नहीं हुआ है. यह स्टेडियम भी अब बदहाल स्थिति में पहुंच गया है. 2000 में राज्य बंटवारे के पहले सब-कुछ ठीक-ठाक था, पर इसके बाद बिहार में क्रिकेट पर ग्रहण लग गया. पिछले कुछ सालों से बिहार क्रिकेट में कैसे पिछड़ता जा रहा है, इसकी पड़ताल कर रहे हैं आज के बिग इश्यू में.
विधान चंद्र मिश्र
पटना : टी-20, वनडे के बाद महज 17 वर्ष पहले जन्म लेनेवाला झारखंड टेस्ट मैचों की मेजबानी करनेवाला राज्य बन गया है. पर, बिहार क्रिकेट में दिनों-दिन पिछड़ रहा है. सैयद सबा करीम, सुब्रत बनर्जी, अविनाश कुमार, अमिकर दयाल, सुनील कुमार और जीशान अली जैसे क्रिकेटरों को जन्म देनेवाले बिहार के युवा क्रिकेटर पूछ-पूछ कर थक गये हैं कि कब आयेंगे बिहार क्रिकेट के अच्छे दिन. यह वही बिहार है, जो 1935 से क्रिकेट चलाने का दावा करता है. 1996 में विश्व कप क्रिकेट की मेजबानी कर चुका है, लेकिन अब झारखंड से रेस में कोसों पिछड़ गया है. बीसीसीआइ का सौतेला व्यवहार, बिहार सरकार की ओर से क्रिकेट पर चुप्पी और राज्य क्रिकेट संघों में गद्दी पाने की लड़ाई से बिहार के युवा क्रिकेटर दर-दर की ठोकर खा रहे हैं. इशान किशन और सौरभ तिवारी जैसे प्रतिभावान क्रिकेटर दूसरे राज्यों से खेलने को मजबूर हैं. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के दिवंगत पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया द्वारा डेढ़ दशक पहले रची गयी साजिश के बाद बिहार क्रिकेट के क्षेत्र में दिन-ब-दिन पिछड़ता गया और बिहार से ताज छीन कर झारखंड नया-नया कीर्तिमान गढ़ता जा रहा है.
अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट काउंसिल के अध्यक्ष रहे दिवंगत पूर्व बीसीसीआइ अध्यक्ष जगमोहन डालमिया ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने विभाजन के बाद बिहार क्रिकेट एसोसिएशन को पूर्ण मान्यता देने के बजाय झारखंड क्रिकेट एसोसिएशन को मान्यता देकर ऐसी नजीर कायम की है, जो अपने आप में उसके कामकाज के तरीके पर सवाल खड़ा करती है. दिलचस्प यह है कि बिहार के साथ ही उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश का भी बंटवारा हुआ था और उत्तराखंड व छत्तीसगढ़ राज्य वजूद में आये थे, लेकिन बोर्ड ने उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश क्रिकेट संघों को मान्यता दे दी, लेकिन बिहार के साथ उसने भेदभाव भरा रवैया अपनाया और उसकी जगह झारखंड को मान्यता दे दी. छत्तीसगढ़ सत्र 2016-17 में रणजी खेलने का पात्रता पाया है. उत्तराखंड अब भी मान्यता की बाट जोह रहा है.
जब बिहार और झारखंड एक थे, तब भी जमशेदपुर ही राज्य क्रिकेट का केंद्र हुआ करता था. हालांकि लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने के बाद पटना में भी बड़े क्रिकेट मैचों का आयोजन होने लगा. पहला वनडे मैच 15 नवंबर 1993 को खेला गया. 25 हजार दर्शकों की क्षमता वाले इस स्टेडियम में दूसरी बार 1996 के विश्व कप में केंन्या और जिंबाब्वे के बीच मैच हुआ. इसके बाद से मोइनुल हक स्टेडियम में कोई भी बड़ा मैच नहीं हुआ. इस स्टेडियम में लगा इलेक्ट्रॉनिक्स स्कोर बोर्ड भी खराब हो चुका है. दर्शक दीर्घा में घास उग आयी हैं. स्टेडियम की गैलरी की कुरसियां गायब हैं. पुराने कर्मचारी रिटायर्ड हो चुके हैं, नयी बहाली नहीं होने से आयोजकों को स्वंय मेंटेन करना पड़ता है.
एक वोट ने सब कुछ छीन लिया
2000 में राज्य बंटवारे के बाद शुरू में सब कुछ ठीक रहा था. लालू प्रसाद की पार्टी तब बिहार में सत्ता में थी और इसे देखते हुए लालू प्रसाद को बिहार क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाया गया था. उनके ही सहयोगी और खेलों में गहरी रुचि रखनेवाले अब्दुल बारी सिद्दीकी भी संघ से जुड़े. लालू ने बतौर अध्यक्ष बीसीसीआइ की बैठक में हिस्सा लिया था और बोर्ड के चुनाव में अपना वोट भी डाला था. तब अध्यक्ष पद के लिए जगमोहन डालमिया और एसी मुथैया में मुकाबला था. लालू ने मुथैया को वोट किया था, लेकिन चुनाव डालमिया जीत गये और इसी के बाद बिहार क्रिकेट पर ग्रहण लग गया. डालमिया ने मतदान का बदला बिहार क्रिकेट से लिया. अध्यक्ष बनते ही उन्होंने बिहार क्रिकेट संघ को तो मान्यता नहीं दी, लेकिन झारखंड क्रिकेट को दे दी.
हालात तब और बिगड़े जब बिहार क्रिकेट को लेकर बिहार में सियासी दांवपेच चले जाने लगे. खिलाड़ियों के हितों से इतर अपने नफे-नुकसान को देखा जाने लगा और कीर्ति आजाद के संरक्षण में एसोसिएशन ऑफ बिहार क्रिकेट खड़ा कर एक समांतर सत्ता स्थापित करने की कोशिश की गयी (अब गायक से सांसद बने मनोज तिवारी इसके अध्यक्ष हैं). दिलचस्प बात यह है कीर्ति आजाद को तब बिहार क्रिकेट से किसी तरह का लेना-देना नहीं था. वे दिल्ली से रणजी ट्रॉफी के मैच खेलते रहे. बिहार की नुमाइंदगी करने की जहमत नहीं उठायी, लेकिन फिर सियासी रसूख काम आया. भाजपा से सांसद बने और बिहार में क्रिकेट-क्रिकेट खेलने लगे. इसका फायदा बिहार के खिलाड़ियों को कम, नुकसान ज्यादा हुआ, लेकिन मामला यहीं नहीं रुका, बाद में क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार का गठन हुआ. इसके अध्यक्ष सुबोध कांत सहाय बने. सचिव आदित्य वर्मा हैं. तीनों संघ बीसीसीआइ से मान्यता की मांग करते रहे.
मिला एसोसिएट का दर्जा
बिहार प्लेयर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष मृत्युंजय तिवारी, पूर्व क्रिकेटर अरुण सिंह, राजू वाल्स सहित अन्य क्रिकेटरों ने कोलकाता स्थित बीसीसीआइ के कार्यालय में विरोध प्रदर्शन किया. इसके बाद जब बोर्ड का कार्यालय मुंबई शिफ्ट हुआ, तो क्रिकेटरों ने मुंबई कार्यालय में ताला जड़ने की चेतावनी दी. बिहार का आंदोलन रंग लाया, पर बीसीसीआइ ने 27.9.2008 को बिहार क्रिकेट संघ को एसोसिएट का दर्जा दिया. पूर्ण मान्यता नहीं देने से बिहार के क्रिकेटर फिर रणजी खेलने से वंचित रह गये.
एसोसिएट का दर्जा मिलने के बाद बिहार के क्रिकेटरों में थोड़ी उम्मीद जगी. बीसीसीआइ बिहार में क्रिकेट की स्थिति सुधारने के लिए 50 लाख का फंड भी दिया. क्रिकेटरों ने सोचा कि एसोसिएट टूर्नामेंट में अच्छा प्रदर्शन कर बिहार पूर्ण मान्यता ले लेगा, लेकिन बिहार क्रिकेट संघ के सचिव अजय नारायण शर्मा बीसीए द्वारा बीसीसीआइ से मिले पैसों का हिसाब नहीं दे पाना फिर से बिहार को गर्त में ढकेल दिया. बीसीसीआइ ने इसके बाद बिहार को कोई फंड नहीं दिया. बिहार एसोसिएट टूर्नामेंट खेलता रहा, लेकिन इसे अपग्रेड नहीं किया गया.
सिफारिशों से जगी है उम्मीद
क्रिकेट की स्थिति सुधारने को लेकर गठित लोढ़ा समिति की सिफारिशों के अनुसार सभी राज्यों को रणजी का दर्जा देना है. इससे बिहार की उम्मीद फिर से जग गयी है. हालांकि जून-जुलाई में रणजी ट्रॉफी को लेकर बीसीसीआइ की ओर से कार्यक्रम की घोषणा के बाद ही स्पष्ट हो पायेगा कि बिहार अगले सत्र में रणजी खेलेगा या नहीं . लोढ़ा समिति की ओर से कड़ा रुख अपनाने के बाद बिहार क्रिकेट संघ और इसकी जिला इकाइयों की ओर से क्रिकेट मैचों का आयोजन शुरू कर दिया गया है. हेमन ट्रॉफी सहित कई राज्यस्तरीय क्रिकेट टूर्नामेंटों की घोषणा कर दी गयी है. बिहार के क्रिकेटरों को पूर्वोत्तर के राज्यों को मिला कर गठित एसोसिएट एंड एफिलिएट टीमों की ओर से बीसीसीआइ के टूर्नामेंट में खेलने का मौका मिला.
राजगीर में स्टेडियम की मंजूरी
बिहार सरकार ने भी विश्व कप की मेजबानी करनेवाले मोइनुल हक स्टेडियम को फिर से बनाने का फैसला किया है. इसके लिए 315 करोड़ का बजट बनाया है. नक्शा बन गया है और जल्द ही यहां पर काम शुरू होगा. राजगीर में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट स्टेडियम बनाने की सरकार की योजना है. हालांकि यहां पर सभी खेलों के लिए खेल के मैदान बनाये जाने हैं. राज्य सरकार ने इसके लिए 630 करोड़ रुपये की मंजूरी दे दी है.
खींचतान व कुरसी की लड़ाई में क्रिकेट हुआ ठप
पटना : भारतीय अंडर-19 टीम के पूर्व कप्तान अमिकर दयाल कहते हैं कि बिहार में क्रिकेट ठप होने की वजह भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) नहीं, बल्कि अपने ही लोग हैं, जिन्हें क्रिकेट से कम, कुरसी से ज्यादा प्यार था. अमिकर ने कहा कि झारखंड से बंटवारे के बाद बिहार संघ में शामिल लोगों के बीच कुरसी के लिए जंग शुरू हो गयी, जिसमें राज्य में होनेवाले सारे लीग मैच बंद हो गये और क्रिकेटरों को टूर्नामेंट के लिए तरसना पड़ा. कई क्रिकेटर उसी दौरान दूसरे राज्यों की ओर पलायन कर गये, तो वहीं कई यहीं रुक कर लड़ाई थमने के इंतजार में अपने कैरियर को बरबाद कर दिये. आज दूसरे राज्यों की क्रिकेट एकेडमियां यहां से क्रिकेट दूर होने की वजह से बिहारी क्रिकेटरों से गुलजार है.
झारखंड और पश्चिम बंगाल की क्रिकेट एकेडमियों में सैकड़ों की संख्या में बिहार के क्रिकेटर बेहतर भविष्य के इंतजार में ‘स्ट्रेट ड्राइव’ मार रहे हैं.
दयाल बताते है कि पटना सहित पूरे राज्यों में कॉलेज और स्कूल के मैदानों पर क्रिकेट लीग का आयोजन होता था. यहीं से नये क्रिकेटरों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलता था, लेकिन अब यह मैदान क्रिकेट आयोजन के लिए नहीं दिये जाते हैं और कुछ पर तो पार्क भी बन चुके हैं. पटना के साइंस कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज मैदान और गर्दनीबाग स्टेडियम लीग मैचों के लिए बेहतरीन ग्राउंड होते थे, लेकिन अब इनकी हालात बदतर हो गयी है.
उन्होंने कहा कि अगर हम आज से बिहार क्रिकेट को पटरी पर लाने का प्रयास करें, तो हमें तीन-चार वर्षों से अधिक लगेंगे बड़े मैचों के लिए क्रिकेटर तैयार करने में. हाल के दिनों में राष्ट्रीय क्रिकेट का स्तर बहुत ऊंचा उठ चुका है, जिसे पाने के लिए हमारे क्रिकेटरों को जरूरत से ज्यादा अभ्यास, खेल मैदान और नयी तकनीक की जरूरत है. ये सारी सुविधाएं मिलने के बाद ही क्रिकेटर बेहतर प्रदर्शन कर पायेंगे. क्रिकेट पर बनी सरकार की नीतियों पर अमिकर तंज कसते हुए कहते हैं कि करोड़ों रुपये सरकार स्टेडियम बनाने में खर्च करने के बजाय, गरीबों के बीच बांट दे, तो उसका लाभ मिलेगा.
वर्षों लगेंगे इतनी बड़ी खाई को पाटने में
बिहार में क्रिकेट खत्म होने की बड़ी वजह भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) है. अगर उसने बिहार से मान्यता नहीं छीनी होती, तो शायद आज बिहारी क्रिकेटरों को दर-दर नहीं भटकने पड़ते. पूर्व रणजी क्रिकेटर रामकुमार कहते हैं कि बोर्ड के अलावा बिहार में क्रिकेट की राजनीति करनेवालों ने भी बेड़ा गर्क किया है. कुरसी की लड़ाई ने यहां से क्रिकेट छीनने में अहम भूमिका निभायी चाहे वह कोई भी क्यों न हो. अभी हमें रणजी खेलने का मौका मिल भी जाये, तो कोई फायदा नहीं होगा. हमारे क्रिकेटर अभी बड़े मैचों के लिए तैयार नहीं हैं.
खानाबदोश जीवन जी रहे बिहारी क्रिकेटर
रंजीत भट्टाचार्या बिहार से रणजी खेलने के बाद अब नये क्रिकेटरों की पौध तैयार कर रहे है. उनका मानना है कि बिहार के क्रिकेटर खानाबदोश जीवन जी रहे हैं. जिन्हें जहां से मौका मिलने की उम्मीद होती है, वहां वह पलायन कर जाते हैं. बिहार में क्रिकेट की यह दशा नहीं हुई होती अगर स्थानीय स्तर के लीग मैच बंद नहीं होते. सीनियर डिवीजन, जूनियर डिवीजन और स्टेट टूर्नामेंट बंद होने की वजह से भी यहां क्रिकेटर पलायन कर गये. अब यहां क्रिकेटरों के लिए न तो क्रिकेट मैदान है और न ही बेहतर उपकरण, जिनसे वह खुद को आनेवाले बड़े मैचों के लिए तैयार कर सके.
पैसे और मैदान की कमी से बदहाल हुआ क्रिकेट
बिहार क्रिकेट संघ के सचिव रविशंकर प्रसाद सिंह बिहार में क्रिकेट की बदहाली का कारण पैसा और मैदान की कमी को मानते हैं. उन्होंने कहा कि बंटवारे के बाद बिहार क्रिकेट की कमान जब बिहारियों की पास आयी, तो उनके पास न ही पैसा था और न ही बेहतर क्रिकेट मैदान. अभी इसमें कुछ सुधार होता. उससे पहले कई क्रिकेट संघों का उदय राज्य में होने लगा, जिसकी लड़ाई में क्रिकेट पूरी तरह से बंद हो गया है और बीसीसीआइ ने बिहार को उसके हाल पर छोड़ दिया. लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों की वजह से विगत एक सालों में फिर से राज्य में क्रिकेट का माहौल बना है.
लगातार पिछड़ रहा पटना, टेस्ट में भी मेजबानी कर रांची ने बनाया कीर्तिमान
16 मार्च, 2017 का दिन झारखंड के लिए एेतिहासिक रहा. दुनिया काे एक बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी (धाैनी) देनेवाली झारखंड की धरती पर पहली बार काेई टेस्ट मैच खेला जा रहा है. अगर यही टेस्ट दाे-तीन साल पहले रांची में खेला जाता ताे झारखंड के लाेग अपने हीराे धाैनी काे अपने ही मैदान पर टेस्ट खेलते देखते, जैसा वनडे खेलते देखा है.
इसमें काेई दाे राय नहीं कि रांची में अंतरराष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम है जहां वनडे मैच, टी-20 के मैच ताे हाेते रहते हैं लेकिन इससे पहले टेस्ट मैच राज्य में कभी नहीं खेला गया. झारखंड में क्रिकेट का जाे इतिहास रहा है, अगर उसे देखा जाये ताे यह टेस्ट बहुत पहले झारखंड में खेला जाना चाहिए था . दुनिया में पहला टेस्ट मैच इंग्लैंड आैर अॉस्ट्रेलिया के बीच 15 मार्च 1877 काे मेलबॉर्न स्टेडियम (अॉस्ट्रेलिया) में खेला गया था लेकिन इस टेस्ट काे रांची पहुंचने में 140 साल आैर एक दिन लग गये.
यह कहा जा सकता है कि टेस्ट काे मेलबॉर्न से रांची (दूरी 9213 किमी) की यात्रा तय करने में इतने वक्त लग गये. ऐसे ताे भारत ने अपना पहला टेस्ट इंग्लैंड के खिलाफ जून, 1932 में लार्ड्स में खेला था लेकिन भारत की धरती पर खेलने में डेढ़ साल का वक्त आैर लगा था. मुंबई के जिमखाना ग्राउंड काे भारत में पहला टेस्ट सेंटर बनने का गाैरव मिला. 15 दिसंबर 1933 से वहां भारत आैर इंग्लैंड के बीच पहली बार टेस्ट खेला गया. लाला अमरनाथ के शतक के बावजूद भारत अपने देश का पहला टेस्ट नाै विकेट से हार गया था. अजीब संयाेग है कि 1875 में बने जिमखाना ग्राउंड में सिर्फ एक ही टेस्ट मैच खेला जा सका. उस पहले टेस्ट के बाद कभी इस मैदान पर टेस्ट नहीं खेला गया.
झारखंड बनने के बाद रांची में अंतरराष्ट्रीय स्तर का जेएससीए स्टेडियम बना. इस स्टेडियम की तारीफ दुनिया के कई मशहूर खिलाड़ी कर चुके हैं. इस स्टेडियम के बनने के पहले झारखंड कई वनडे अंतरराष्ट्रीय मैचाें का आयाेजन कर चुका था. पहले ये वनडे मैच जमशेदपुर के कीनन स्टेडियम में खेले जाते थे. कीनन (जमशेदपुर) में 1983 से ही वनडे मैच (अंतरराष्ट्रीय) हाेते रहे हैं.
जेएससीए (रांची) स्टेडियम बनने के पहले जमशेदपुर काे ही झारखंड का बड़ा केंद्र माना जाता था. राज्य बनने के पहले झारखंड-बिहार के लिए सबसे बड़ा केंद्र. अगर रांची के पहले झारखंड में किसी शहर में टेस्ट मैच हाे सकता था ताे वह था जमशेदपुर. कीनन स्टेडियम ताे 1939 में ही बन कर तैयार हाे गया था. तब देश में सिर्फ मुंबई, काेलकाता, मद्रास समेत इने-गिने शहराें में स्टेडियम थे.
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